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५०१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का ७ * सामान्ये नित्यत्वाऽनेकसमवेतत्वाऽसम्भवः *
भिन्नत्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्तारूपतभिश्वयस्य घटवृत्तिधर्मवत्त्वसंशयव्यावृत्ततया पृथक् प्रतिबन्धकत्वकल्पने ध्रुवं साम्यमिति वाच्यम्, 'पटो घटभिन्नत्वे सति घटवृत्तिधर्मवानि' तिशाब्दबोधोत्तरं तदनुत्पत्त्या तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनस्याऽऽवश्यकत्वादिति दिक् ।
सामान्यस्य पराभिमते नित्यत्वाऽनेकसमवेतत्वेऽपि कथं समगंसाताम् ? 'अत्र मृत्पिण्डे घटत्वमासीदिति प्रतीत्या तस्याऽनित्यत्वसिदेः ।
* जयलता
वादिनः अपि घटभिन्नत्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्तारूपतन्निश्रयस्य = घटभेदविशिष्टघटवृत्तिधर्मवत्त्वप्रकारकस्याऽनतिरिक्तघटसादृश्यनिश्वयस्य, घटवृत्तिधर्मवत्त्वसंशयव्यावृत्ततया घटवृत्तिधर्मप्रकारकसंशयापेक्षया भिन्नप्रकारकतया 'घटो घटसदृश:' इति निश्वयस्य 'पटो घटवृत्तिधर्मवान् न वा ?" इत्याकारकसंशयप्रतिबन्धकत्वं न स्यात् । घटभिन्नत्वविशिष्टघटवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्चयस्यापि घटवृत्तिकारक निर्णय प्रति पृशन्धिकत्वकल्पने = स्वातन्त्र्येण प्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमे ध्रुवं साम्यं = तुल्यगौरवम् । यथाऽतिरिक्तसादृश्यनयेऽतिरिक्तसादृश्यनिर्णयस्यापि निरुक्तानतिरिक्तसादृश्यनिश्चयस्येव तादृशसंशयं प्रति स्वातन्त्र्येण प्रतिबन्धकत्वं कल्प्यते तथैवाऽनतिरिक्तसादृश्यमते घटभित्रत्वविशिष्टघटवृत्तिधर्मप्रकारकनिश्चयस्यापि घटवृत्तिधर्मप्रकारकनिर्णयस्येव तादृशसंशयं प्रति स्वातन्त्र्येण प्रतिबन्धकत्वमुपेयते इति गौरवसाम्यमिति शङ्काभिप्रायः ।
प्रकरणकृत् समाधत्ते 'पटो घटभिन्नत्वे सति घटवृत्तिधर्मवानि' ति शाब्दबोधोत्तरं तदनुत्पत्त्या = 'पटो घटवृत्तिधर्मवान् न वा ?' इत्याकारकसंशयानुदयेन तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनस्य निरुक्तसन्देहं प्रति प्रतिबन्धकत्वाभ्युपगमस्य, आवश्यकत्वात् । 'हृदो जलवान् न वा ?' इति संशयं प्रति 'हृदो जलवान्' इतिनिर्णयस्येव ' हृदो गदापहारिजलवानि' ति निश्वयस्यापि प्रतिबन्धकत्वमनुभवानुरोधाद्यथा कल्प्यते तथैव प्रकृतेऽपि । न हि कल्पनागौरवभिया विशदतरकार्यकारणभावः स्वारसिकप्रतीतिबलो पजायमानोऽपोतुमर्हतीति भावः ।
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परसम्मत सामान्यस्वरूपं खण्डयितुमुपक्रमते सामान्यस्येति । कथं समगंसाताम् ? नैवेत्यर्थः । तत्र यथाक्रमं | हेतुद्रयमाह 'अत्र मृत्पिण्डे घटत्वमासीदिति प्रतीत्या तस्य घटत्वलक्षणसामान्यस्य अनित्यत्वसिद्धेः = ध्वंसप्रतियोगित्वलक्षणाऽनित्यत्वस्य लङ्प्रत्ययबलात् सिद्धेः । न चेयं विशेषणाभावमेव विषयीकुरुत इति वाच्यम्, विशेषणीभूतस्य मृत्पिण्डस्य विद्यमानत्वेन तत्र ध्वंसप्रतियोगित्वान्वयाऽसम्भवात् विशेष्ये बाधकाभावाच्च । एतेन घटत्वे गौणमेव ध्वंसप्रतियोगित्वं तदाश्रये घंटे एवं तन्मुख्यत्वादिति प्रत्युक्तम्, 'एतन्मृत्पिण्डवृत्ति घटत्वं ध्वंसप्रतियोगी' त्येवोक्तप्रतीतिस्वारसिकार्थात्, घटस्योक्तप्रतीतावनुल्लेखाच्च ।
यह तो सर्वजनविदित है । उक्त निर्णय के पश्चात् तादृश संशय की अनुपपत्ति से इन दोनों के बीच तथाविध प्रतिबध्य- प्रतिबन्धकभाव की कल्पना अवश्य सभी को करनी पड़ती है, न कि केवल हमको । 'भूतल में चैत्रीय घट है' इत्याकारक निर्णय के पश्चात् 'भूतल घटवाला है या नहीं ?' ऐसा संशय क्या किसीको भी होता है ? इसलिए विशिष्ट अतिरिक्त वादी के मतानुसार भी उपर्युक्त प्रतिबंधकता स्वीकर्तव्य ही होने से सादृश्य को अतिरिक्त न मानने वाले के पक्ष में जो समान गौरव दोष का उद्भावन किया गया है, वह ठीक नहीं है। इसलिए सादृश्य को अतिरिक्त मानने का दुःसाहस करना नामुनासिव है यह फलित होता है । इस विषय में अधिक विचार भी किया जा सकता है । यहाँ जिन विचारों का उल्लेख किया गया है यह तो एक दिग्दर्शनमात्र है, जिसके अनुसार मनीषी लोग अधिक मीमांसा कर सकें इस बात की सूचना करने के लिए प्रकरणकार ने 'दिक्' शब्द का यहाँ प्रयोग कर के सादृश्यविपयक बादस्थल पर भी यहाँ पर्दा डाल दिया है ।
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* गाति मं नित्यत्वादि असिद्ध
समा इति । अब प्रकरणकार नैयायिकसंमत जाति
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सामान्यपदार्थ का पूर्वाचार्यों के मतानुसार निराकरण करते हैं
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| 'नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्व' नैयायिकसम्मत जाति का लक्षण है। मगर जाति में न तो नित्यत्वस्वरूप विशेषण मुमकिन हैं और न तो अनेकसमवेतत्वात्मक विशेष्यांश भी संभावित है। इसका कारण यह है कि इस मृत्पिंड में घटत्व था' ऐसी प्रतीति होने से घटत्वात्मक सामान्य में नित्यत्व बाधित होता है । जैसे 'रामचन्द्रजी हो गये' इत्यादि प्रतीति से रामचन्द्रजी में विनष्टत्व की सिद्धि होती है ठीक वैसे उक्त प्रनीति से घटत्व में विनाशप्रतियोगित्व सिद्धि होती है। अतः ध्वंसाऽप्रतियोगित्वस्वरूप नित्यत्व सामान्य में बाधित होता है । इस तरह अतीत और अनागत व्यक्ति में सामान्य वृत्ति नहीं होने से समवायावच्छिन्न यावत् व्यक्तिवृत्तित्वस्वरूप अनेकसमवेतत्व भी सामान्य में असिद्ध है । अतीत घटादि व्यक्ति विनष्ट होने से और अनागत