Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 302
________________ ५९५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.७ *सादृश्यव्यञ्जकल्पनागौरतस्य फलमुखत्वम् * खण्डपदार्थमात्रविलयापत्तेः, स्मर्यमाणारोपादिकारणताधवच्छेदकत्वेनानुगतस्यैव तस्य सिन्दी। तदौरखस्य फलमुखत्वाच्च । घटादिसादृश्यच पटादौ द्रव्यत्वाद्यवच्छेदेन न तु गुणत्वाद्यवच्छेदेनेति 'पटो द्रव्यत्वेन घटसहशो न तु गुणत्वेने'त्यादिप्रतीतेनानुपपतिरित्याहुः । .... जयलता -- सादृश्यकल्पनं तादृशधर्मवत्त्वे च सादृश्यज्ञानजनकल्यकल्पनमिति गौरवम् । तदपेक्षया तादृशधर्मेष्वेव सादृश्यत्वकल्पनमुचितमिति शङ्काभिप्राय: । नव्याः तमपाकुर्वन्ति - एवं सत्तीति । क्लुप्तेषु व्यञ्जकत्वकल्पनागौरवभयेनाऽतिरिक्तपदार्धप्रतिक्षेप सतीत्यर्थः । अखण्डपदार्थमात्रविलयापत्तेरिति । अतिरिक्तं सामान्यमभ्युपगम्याऽपि क्लुप्तेष्ववयवसत्रिवेषादिषु सामान्यव्यञ्जकत्वकल्पनागारवस्य तदवस्थत्वेन सामान्यादेरपि विलयप्रसङ्गादित्यर्थः । अतः सामान्यपदार्थादिवत् सादृश्यपदार्थोऽप्यतिरिक्त: स्वीकर्तव्य इत्यर्थः । तदतिरिक्तत्वे हेल्चन्तरमाह - स्मर्यमाणारोपादिकारणताचच्छेदकत्वेन = सादृश्यज्ञानकारणीभूतस्मृतिविषयोपमानधर्माध्यारोपनिष्ठकार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदकविधया अनुगतस्यैव = तत्तदुपमेयसाधारणस्यैव तस्य = सादृश्यस्य सिद्धी सत्यां तद्वौरवस्य = सादृश्यव्यञ्जकत्वकल्पनागौरवस्य फलम् खत्वात - प्रमाणसिद्धार्थनिर्वाहकत्वात् । ताददाकारणतावच्छेदकधर्मविधयाऽतिरिक्तसादृश्यसिद्धी उपमानभिनत्वे सत्युपमानगतभूपोधर्मवत्त्वस्य सादृश्याभिव्यञ्जकत्वकल्पनायाः पश्चादुपस्थितत्वेन तद्गौरवस्य सिद्धचसिद्भिभ्यां व्याघातेनाऽदोषत्वादिति भावः । ननु पटादी घटादिसादृश्यमगीकृतं न वा ? इति विकल्पयुगली समुपतिष्ठते । द्वितीये 'पटा घटसदृशः' इत्यादिव्यवहारानुपपत्तिः । आद्ये तु 'पटो द्रव्यत्वेन घटसदृशः' इतिव्यवहारवत् ‘पटो गुणत्वेन घटसदृश' इतिव्यबहारस्यापि प्रामाण्यापत्तिः, पटेऽतिरिक्तस्य घटसादृश्यस्याऽङ्गीकृतत्वात् । अनतिरिक्तसादृश्यसदिमते तु गुणत्वस्य पटाऽवृत्तित्वेन विशेष्याधावप्रयुक्त- ! ! विशिष्टसादृश्याभावान्न ‘पटो गुणत्वेन घटसदृश' इति धीव्यवहारयोः प्रामाण्यापत्तिरित्याशङ्कायां नव्याः प्राहुः - घटादिसादृश्यं । । च = बटादिप्रतियोगिकतिरिक्तं सादृश्यं हि पटादी सादृश्यानुयोमिनि द्रव्यत्वाद्यवच्छेदेन = द्रव्यत्व-पृथिवीत्वादिधर्मावच्छेदेन वर्त्तते, न तु गुणत्वाद्यवच्छेदेन = ब्यधिकरणीभूतगुणत्व-कर्मवादिधर्मावच्छेदेन, इतिः हेत्वर्थः शब्दः । तथा च निरुक्तहेतोः 'पटो द्रव्यत्वेन घटसदृशो न तु गुणत्वेने त्यादिप्रतीते: उपलक्षणात्तादृशव्यवहारस्य च नानुपपत्तिः । गुणत्वावच्छेदेन घटसादृश्यस्य पटे विरहात । यथा दण्डे घटकारणता दण्डत्वावच्छेदेन, न तु गणत्वाद्यवच्छे देनेति 'दण्डो दण्डत्वेन घटकारणं, ठीक वैसे यहाँ अतिरिक्त सादृश्य के व्यंजकविधया उपमानभिनत्वे सति उपमानगतधर्मवत्व का स्वीकार करना आवश्यक होगा, अन्यथा उपमेय से भिन्न पदार्थ में भी उपमानसादृश्य की आपत्ति आयेगी । मगर इस कल्पना में अधिक गौरव है, क्योंकि अतिरिक्त सादृश्य पदार्थ की कल्पना और उसके व्यंजकविधया तद्भिनत्वे सति तद्गतधर्मरत्व की कल्पना करने में दो कल्पना | का गौरव है । इसकी अपेक्षा सादृश्य को तद्भिवत्वे सनि तद्तधर्मवत्त्वस्वरूप मानना ही मुनासिब है" <- तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि इस तरह तो अखण्ड जाति आदि पदार्थ का भी उच्छेद को जायेगा । प्राचीन नैयायिक के मतानुसार भी अनेक घट में अनुगत प्रतीति की वजह अतिरिक्त घटत्व की कल्पना की जाती है। यहाँ अखण्ड सामान्य की कल्पना करने के बावजूद भी कम्बुग्रीवादिमत्त्व में उसके व्यञ्जकत्व की कल्पना करनी ही पड़ती है, अन्यथा अविशेषरूप से सर्वत्र अखण्ड घटत्व के भान की समस्या अवकाश पाती है, क्योंकि सामान्यपदार्थ सर्वव्यापी है । व्यंजक की कल्पना का गौरव होने पर भी जैसे अखण्ड जाति की कल्पना की जाती है, ठीक वैसे ही अतिरिक्त सादृश्य की कल्पना भी की जा सकती है। इसलिए अतिरिक्त सादृश्य की कल्पना में हिचकिचाहट करना नामुनासिर है । यहाँ यह शंका करना कि -> "फिर भी अतिरिक्त सादृश्य की एवं व्यंजक की कल्पना का गौरव तो दोपात्मक ही है - भी नामुनासिब है, क्योंकि स्मर्यमाण उपमान के धर्म के आरोप आदि की कारणता के अवच्छेदकविधया उपमेय में अनुगत सादृश्य की ही सिद्धि होने की वजह व्यञ्जककल्पना तनिर्वाहक होने से नह गौरव फलाभिमुख है। कारणतावच्छेदकविधया अतिरिक्त सादृश्य की प्रामाणिक सिद्धि होने के पश्चात् उपस्थित व्यंजककल्पनागीरव की बदौलत प्रमाणसिद्ध अतिरिक्त सादृश्य का अपलाप नहीं किया जा सकता, अन्यथा लाघवतर्क से शून्यवाद की ही सिद्धि हो जायेगी। बटा. इति । यहाँ इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि सादृश्य भी अव्याप्पवृत्ति पदार्थ है । एक धर्मी में एकावच्छेदेन सादृश्य एवं अन्यावच्छेदेन उसका अभाव भी रहता है। जैसे पटादि में घटादि का सादृश्य द्रव्यत्वावच्छेदेन ही रहता है, न कि गुणत्वादिधर्मावच्छेदेन । इसीलिए तो 'पट द्रव्यत्वरूप से घटसदृश है, न कि गुणत्वरूप से' इत्यादि प्रतीति की अनुपपत्ति नहीं है। यदि तद्भियत्वे सति तद्वृत्तिधर्मवत्त्व ही सादृश्य हो तब तो एक धर्मी में विवक्षित उपमान के सादृश्य और सादृश्याभाव

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