Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 300
________________ ४५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का... *सादृश्पस्य ज मेदार्भितत्वम् * 'अोग्यतावमादितस्तदप्रतिसन्धानेऽनन्वय' इति चेत् ? तर्हि या नाऽयोग्यताक्षमादिकं तत्र || क्वचिदवैधयाऽप्रतिसन्धानेऽपीवादिपदादर्थबोध इति कथं तस्येवाद्यर्थत्वम् ? ___इदमश्रावधेयम् । 'पटो घटसदृश', 'पटो द्रव्यमि'तिप्रतीत्योर्वेलक्षण्यं विषयवैलक्षण्याधीनं, विषयं विनैव धियां विशेषे साकारवादापातात् । तथा च सावच्छिन्ननिरवच्छिमप्रकारता =---* जयलता * पुनरपि परः शङ्कते - अयोग्यताभ्रमादितः आदिपदेन तादृशव्युत्पत्तिवैकल्यादेर्ग्रहणम् । तदप्रतिसन्धाने = उपमानभेदानवबोधे अनन्वयः अलङ्कारः । 'गगनस्यैकत्वेन तत्तयुगविशिष्टगगनभेदान्वयो गगनेऽयोग्य' इति भ्रमात् गगने गगनभेदानवबोधे तु तत्राऽनन्धयाऽलङ्कारोऽवकाशं लभेतैवेति न तत्रोपमाऽलङ्कारसम्भव इति साधर्म्यस्य भेदघटितत्वमेव वाच्यमिति शहकाभिप्रायः । प्रकरणकारस्तमपहस्तयति. तीति । यत्र = पुरुषादौ नाऽयोग्यताभ्रमादिकं तत्र क्वचित् कदाचित् वैधयाऽप्रतिसन्धानेऽपि वैधर्म्यस्वरूपभेदानवबोधेऽपि इवादिपदात् = 'अस्या इवाऽस्या' इत्यादिवाक्यघटकात् अर्थबोधः = सादृश्यावबोधो जायत एव इति कथं तस्य = भेदस्य इवायर्थत्वं । नैवेत्यर्थः । व्युत्पन्नस्य तत्पदात् पावदस्यलद्वृत्त्या. समुपतिष्ठते तावतः तत्पदशक्यत्वनियमेन भेदै नास्तीवादिपदशक्तिरिति तात्पर्यम् । नन् भेदस्येवादिशब्दाऽवाच्यत्वे कथं सादृश्यबद्धचनुगतबद्धयोलक्षप्यस्योपपत्तिः ? इत्याशडकायां प्रकरणकदाह - इदं = अनुपदं वक्ष्यमाणं. वर्तमानत्वेन सत्रिकष्टत्वादिदमः शब्दस्योपादानम । अत्र = सादयविचारे अवधेयम । तदेवाऽऽह . 'पटो घटसदृशः' 'पटो द्रव्यमि तिप्रतीत्योः विद्यमानं वैलक्षण्यं = वैचित्र्यं, विषयवैलक्षण्याधीनं = विषयनिष्ठवैचित्र्यनिमित्तकमिति वक्तव्यम् । विपक्षबाधकमाह - विषयं = विषयलक्षण्यं विनैव धियां विशेषे = बुद्भिवलक्षण्येऽभ्युपगम्यमाने सति साकारवादापातात् = साकारज्ञानवादियोगाचाराभिधानसोगतमतप्रवेशप्रसङ्गात् । तन्मते ज्ञानाकारातिरिक्तविषयस्याऽसत्त्वेन बहिर्विषयविशेषमृत एव ज्ञानविशेषाभ्युपगमात्प्रकृते विषयवैचित्र्यमृते प्रदर्शितप्रतीतिवेलक्षण्याभ्युपगमे साकारज्ञानवादिमतप्रवेशापत्तेरिति भावः । तथा चेति । साकारज्ञानवादिमतप्रवेशापाकरणाय चेति । सावचिन्न-निरव होना ही चाहिए । कलियुग में गगन त्रेता-द्वापरादियुग से विशिष्ट नहीं होने से त्रेतादियुगविशिष्ट गगन का कलियुगकालीन गगन में भेद ज्ञान होकर उपमा अलंकार 'गगन गगनमिव' इत्यादि में माना जा सकता है, अन्यथा सादृश्यवाचक इव शन्द अनुपपत्र-असंगत-निरर्थक हो जायेगा । यहाँ यह कहना कि → 'गगन एक होने से उसमें उपर्युक्त रीति से विशिष्टगगनभेदान्वय में अयोग्यता का भ्रम आदि होने की वजह उपमेय गगन में उपमान गगन के भेद का शान्द बोध नहीं होने पर उपर्युक्त स्थल में अनन्वय अलंकार की प्रवृत्ति हो सकती है। अतः सादृश्य को भेदमर्भित मानना आवश्यक है, जिसके फलस्वरूप सादृश्यवाचक इव शब्द की भेद में शक्ति सिद्ध होगी, अर्थात् भेद भी इवादि. शन्द का अर्थ सिद्ध होगा' -भी नामुनासिब ॥ है, क्योंकि जिस पुरुष को अयोग्यताभ्रम आदि नहीं है, उसे भी कभी गगन में विशिष्टगगनभेद का ज्ञान नहीं होने पर भी 'गगन गगनमिव' इत्यादि स्थल में इव आदि शब्द से सादृश्य अर्थ का शान्दबोध होता ही है - यह तो अनुभवसिद्ध ही है । इपशब्द का प्रयोग होने पर भी भेद का शाब्द ज्ञान नहीं होता है । इस स्थिति में भेद कैसे इव आदि शब्द का अर्थ होगा ? क्या घटपद से पट का शाब्दबोध नहीं होने पर भी पट को घटशब्दार्थ माना जा सकता है ? अतः सादृश्य को भेदघटित नहीं माना जा सकता । अतएव भेद सादृश्यवाचक इवादि शब्द का अर्थ नहीं है - यह सिद्ध होता है। सास्यदि और अनुगतबुद्धि के लक्षण्य की उपपति ४ इदमत्रा, इति । यहाँ इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि 'पटो घटसदृशः' यह बुद्धि सादृश्यावगाही है, जब कि 'पटो द्रव्यं', 'घटो द्रव्य इत्यादि बुद्धि अनुगत बुद्धि है। उपर्युक्त बुद्धि में लक्षण्य है, वह विषयवलक्षण्य के आधीन है। विषय में विलक्षणता नहीं होने पर बुद्धि में विलक्षणता नहीं हो सकती है, क्योंकि विषयविशेष के बिना ही ज्ञान में विशेषता | - लक्षण्य मानने पर साकारवाद : ज्ञानसाकारवाद = योगाचारमत में प्रवेश होने की आपत्ति मुँह फाड़े खड़ी रहती है। योगाचार बौद्ध ज्ञान से अतिरिक्त पदार्थ का स्वीकार ही नहीं करता है। उसके मत में घट, पट आदि गाइरी पदार्थ नहीं हैं, किन्तु ज्ञान का ही आकारविशेष है। अत: उसके मतानुसार विषयविशेष के बिना भी ज्ञान में बैलक्षण्य मान्य करने पर साकारज्ञानवादी योगाचार के मत में प्रवेश अनिवार्य हो जायेगा । इसलिए विषयवेलक्षण्य से ही उपर्युक्त दोनों प्रकार

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