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४५० मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड; २ - का. * स्वस्मिन् स्वसादृश्यानीकारः * || न च स्वस्मिन् स्वसाहश्यापत्तिः, इष्टत्वात, कथमन्यथा 'अस्या इवाऽस्या' इत्यादौ इव
शब्दप्रयोग: साधीयान् । न चैवमनन्वयस्याऽलइकारान्तरत्वं न स्यादिति वाच्यम्, स्वस्यैवोपमानोपमेयत्वविवक्षया ताऽलङ्कारान्तव्यपदेशात् । अथ 'अस्या इवाऽस्या' इत्यादावपि रूपातिमाहा एव सास्यव्यवहारो
* जयलता र बस्तुतस्तु फ्टत्वादिधर्मस्य उपमानोपमेयसाधारण्याभावेन 'पटो घटसदृशः', 'घटः पटसदृशः' इत्यादे: पटत्वादिना । | प्रसङ्ग इति ध्येयम् ।
ननु तदत्तिधर्मकधर्मतत्त्वं तूपमेय इवोपमानेऽपि सम्भवतीति स्वस्मिन् स्वसादृश्यप्रसङ्गस्य दुर्वारत्वमित्याशङ्कामिष्टापत्तित्वेन समाधत्तं - न च स्वस्मिन स्वसादश्यापत्तिरिति । इष्टत्त्वादिति । ततश्च मिष्टमिष्टं वैद्योपदिष्टश्चेतिन्यायप्राप्तिः । इष्टापतित्वमेव समर्धयति - कथमन्यथा 'अस्या इव अस्या' इत्यादी इधशब्दप्रयोगः साधीयानिति । स्वस्मिन् स्वसादृश्याडनङ्गीकारे उपदर्शितप्रयोगे इदशब्दस्याऽसाधुत्वं स्यात् । न चेष्टापत्तिरत्रैव किं न स्यादिति वक्तव्यम्, प्रसिद्धत्वेन तस्याऽनपलपनीयत्वात् । इवशब्दस्य सादृश्यवाचकत्वेनोक्तस्थलानुरोधात् स्वस्मिन्नपि स्वसादृश्यमङ्गीकार्यमेव । इत्यमेव 'रामरावणयोयुद्धं रामरावणयोरिवे'त्यादेरपि साधत्वोपपत्तेः ।
ननु स्वस्मिन्नपि स्वसादृश्याऽङ्गीकारे 'गगनं गगनाकारमि' त्यादावुपमालकार एव स्यान्न त्वनन्वयाऽलङ्कार इत्याशकां दुरीकरोति - न चेति । वायमित्यनेनाऽस्यान्वयः । तदयुक्तत्वे हेतुमाह - स्वस्यैवेति एवकारेण परव्यवच्छेदः कृतः । उपमानोपमेयत्वविवक्षया तत्र = 'गगनं गगनाकारमि' त्यादी, अलङ्कारान्तरव्यपदेशात् = उपमाभिन्नाऽनन्वयाऽलङ्काराभिधानात्, आलङ्कारिकैरिति शेषः । इदं समाधानाकूतं स्वस्मिन् परसादृश्यवत् स्वसादृश्यमपि वर्तते । परं यदा स्वस्मिन् परसादृश्यं तदोपमालङ्कारव्यवहारः, उपमानोपमेययोर्भेदे तत्प्रवृत्तेः । यदा तु स्वस्मिन स्वसादृश्यं तदाऽनन्वयालङ्काराभिधानं, उपभानोपमेययोरभेदे ततावृत्तेः । अतो नानन्वयालङ्कारोच्छेदो न वा स्वस्मिन् स्वसादृश्यापलाप इति ।
परः शकते - अथेति । चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । नान्यथा = वैधर्म्यलक्षणभेदाऽनवबोधे तत्र न सादृश्यव्यवहारः ||
से उसमें संग्रह नय की प्रवृत्ति नामुमकिन है। विस्तारग्राही संग्रह नय तो उपमान-उपमेयसाधारण द्रव्यत्व, रूपवत्त्व आदि | धर्म में ही प्रवृत्त होता है, न कि एतद्घटत्व में या पदत्वादि धर्म में ।
स्व में स्तसारश्य सम्मत - स्यादादी न च स्व. इति । यहाँ जो सादृश्य का निर्वचन किया गया है, उसमें की तन्नित्व का निवेश नहीं किया गया | है। इसलिए अपने में अन्य के सादृश्य की भाँति अपने सादृत्य की आपति का उद्भावन हो सकता, क्योंकि स्वगत धर्म तो स्व में रहता ही है। मगर यह आपत्ति अनिष्ट नहीं है, किन्तु इट-अभिमत ही है। अतः दोपात्मक नहीं है । 'मगन गगन जैसा है, सागर सागर जैसा है' इत्यादि में उपमेय में स्वात्मक उपमान के सादृश्य की प्रतीति सर्वजनसिद्ध है। यदि अपने में अपना सादृश्य अमान्य हो तो फिर 'अस्याः इव अस्याः' इत्यादि वाक्य में इवशब्द का प्रयोग समीचीन कैसे हो सकता है. ? क्योंकि इवशब्द सादृश्य का वाचक है और प्रकृत दृष्टान्त में उपमान और उपमेय एक होने की वजह स्व में स्वसादृश्य का स्वीकार न किया जाय तो इवशब्द निरर्थक = अशिष्ट हो जाता है। मगर उपर्युक्त वाक्य प्रसिद्ध एवं सर्वमान्य होने की वजह वहाँ प्रयुक्त इवशन्द को समीचीन मानना आवश्यक है। वह तभी संगत होता है, यदि अपने में स्वसादृश्य का अंगीकार किया जाय । यहाँ यह शंका हो कि --> 'यदि अपने में स्वसादृश्य का स्वीकार किया जाय तो उपर्युक्त स्थल में उपमा अलंकार को मानना होगा, क्योंकि सादृश्यस्थल में उपमा अलंकार की प्रवृत्ति होती है। मगर ऐसा मानने पर अनन्चय अलंकार उपमा अलंकार से अलग सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि स्व में स्वसादृश्य को मान्य कर के अनन्वय अलंकार के स्थान में उपमा अलंकार को आपने मान्य किया है। -तो यह नामुनासिब है, क्योंकि उपमान और उपमेय में अभेद की विवक्षा होने पर यानी अपने में ही उपमानत्व और उपमेयत्व की विवक्षा होने पर अनन्वय अलंकार का व्यवहार होता है । मगर इसकी वजह स्व में स्वसादृश्य का अपलाप करना ठीक नहीं है । भिन्न धर्मी में उपमान-उपमेयभाव की विवक्षा होने पर उपमा अलंकार कहा जाता है और एक धर्मी में उपमान-उपमेयभाव की विवक्षा होने पर अनन्वय अलंकार कहा जाता है। इसलिए अनन्चय अलंकार के उच्छेद की आपत्ति भी नहीं है । अत: स्व में स्वसादृश्य का अपलाम नहीं किया जा सकता है - यह फलित होता है।