Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 297
________________ * जैनमते सादृश्यनिर्वचनम् * ४९४ अभवदति - साहश्यं न तदभिमतले सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वम, किन्तु तदवृत्तिधमकधर्मवत्त्वम् । एकत्व सग्रहनयाऽर्पणार्पितवन्दिविशेषविषयत्वं, तेन नैतद्घठत्वादेः सामान्यत्वं, सग्रहस्य विस्तरावधिकत्वात् । नाऽपि पटत्वादेर्घटसादृश्यत्वम्, तत्तदितरसाधारणसमध्येच सहस-प्रवा --ॐ जयलता समवेतत्वसम्बन्धेन लोमवल्लाङ्लत्वजातिस्वरूपपशुत्वविशिष्टत्वाद्वादेः निरुक्ताखण्डपशुत्वेन रूपेण मेषादिसादृश्ये किश्चिद्वाधकं नास्तीति समाथानाभिप्रायः । अत्र वदन्ति स्याद्वादिन इति शेषः । नैयायिकसम्मतसादृश्यप्रतिक्षेपपूर्वकं तद्वक्तव्यमेवावेदयति प्रकरणकारः - सादृश्यं = सादृश्यपदप्रतिपाद्यं न तद्भिन्नत्वे सति तद्गतभूयोधर्मवत्त्वमिति । तद्भिन्नत्वांशस्य व्यर्धत्वेन गौरवात्, 'गगनं गगनाकारमि'त्यादावव्याप्ते, एकधर्मेणाऽपि गोत्वाश्वत्वयोः सादृश्यव्यवहारेण भूयःपदस्याऽपि व्यर्थत्वेन गौरवात्, एकधर्मेण सादृश्यस्थलेऽव्याप्तेश्च । किन्तु तवृत्तिधकधर्मवत्त्वमेव सादृश्यम् । तत्पदेनोपमानग्रहणमभिमतम् । ननु जातित्वेन द्रव्यत्वादावेकत्वस्याऽघटमानत्वेनैकत्मविशिष्टधर्मरूपस्यैकधर्मस्याऽसम्भवेन नेतत्सादृश्यनिर्वचनं युक्तमित्याशङ्कायामाह - एकत्वञ्चेति । सादृश्यघटकधर्मविशेषणीभूतमेकत्ववेत्यर्थः । सङ्ग्रहनयाऽर्पणाऽर्पितबुद्धिविशेषविषयत्वं = सङ्ग्रहनयविवक्षाकृतप्रतिभासविशेषविषयतास्वरूपम् । तब घरपटादिसाधारणपरिणामेष्वपि सम्भवतीति न तत्सादृश्यानुपपत्तिः । एतेनैतद्घटत्वेनाऽपि घट: किं नानुवर्चेतेति प्रत्युस्तमित्याशयेनाह-तेनेति ! सङ्ग्रहनयार्पणार्पितबुद्धिविशेषविषयत्वात्मकैकत्वविवक्षणेनेत्यर्थः । न एतद्घटत्वादेः सामान्यत्वं = निरुक्तसादृश्यत्वं, सङ्ग्रहस्य विस्तरावधिकलात्, एतपटत्वादेस्लेकमात्रव्यक्तिवृत्तित्वेनाऽतुल्यपरिणामत्वान्न तेन रूपेणोक्तसादृश्यसम्भवः । तर्हि पटत्वादेरेव घटसादृश्यत्वमस्तु, तस्याऽनेकवृत्तित्वेन साधारणधर्मत्वादित्याशङ्कायामाह - नापीति । तत्तदितरसाधारणधर्मेपु = पटत्वादिभिन्नेषु साधारणधर्मेषु द्रव्यत्वादिस्वरूपेषु एव सङ्ग्रहसम्भवात् = सङ्ग्रहनयप्रवृत्तिसम्भवात् । भेदकृक्षिप्रविष्टत्वेन न पटत्वादिना घटसादृश्यप्रसङ्गः । धर्म से कभी भी सादृश्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि पशुत्व आदि सखण्ड धर्म हैं, न कि अखण्ड धर्म । पशुमात्र में रहने बाला पशुत्व लोमवल्लालबत्त्व = बालचाली पुच्छस्वरूप है । यह धर्म सखण्ड होने से पशुत्वरूप से गाय आदि में भैंस, सिंह आदि का सादृश्य अनुपपत्र हो जायेगा' -तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पशुत्व भी परम्परासम्बन्ध से अखण्डधर्मस्वरूप ही है । आशय यह है कि पशुमात्र में पालवादी पुच्छ रहती है और उसमें लोमबल्लालत्व जाति रहती है । वह स्वसमवायिसमवेतत्वात्मक परम्परासम्बन्ध से पशुमात्र में रहती है और बही पशुत्व है। जातिस्वरूप होने से वह अखण्ड एवं अनुगत और लघुधर्म है । इस तरह लोमवल्लालत्वस्वरूप जातिविशेषरूप ही पशुत्व मानने से पशुत्वधर्म की अपेक्षा गाय, भैंस, सिंह आदि में सादृश्य हो सकता है। इसलिए लाघव तर्क से अखण्ड धर्म की अपेक्षा ही सादृश्य का स्वीकार करना मुनासिब है - पह सिद्ध होता है। यह नैयायिकमत है। * उपमानगतधमकधर्मवत्व ही साध्य - स्यादादी * अत्र बद. इति । उपर्युक्त नैयायिक मत के खिलाफ में स्याद्वादियों का यह कथन है कि सादृश्य तद्भिन्नत्वे सति ततिधर्मवत्वस्वरूप नहीं है, किन्तु तद्गतधर्मकधर्मक्व ही सादृश्य है। जैसे 'पटो घटसदृशः' यहाँ घटगतद्रव्यत्वधर्मकधर्म | पट में रहता है, वही घटसादृश्य है। यहाँ एक धर्म ऐसा जो कहा गया है उसका अर्थ है एकत्वविशिष्ट धर्म और एकत्व भी संख्यात्मक नहीं, किन्तु संग्रह नय की विवक्षा से कृत = अर्पित बुद्धिनिशेषविषयतास्वरूप अभिमत है। ऐसे एकत्व को गृहीत करने का तात्पर्य यह है कि घटगत एतद्घटत्व से घटसादृश्य - सामान्य के अंगीकार की आपत्ति न हो, अन्यथा वह समस्या अपरिहार्य बनी रहती है । संग्रहनयविवक्षाकृत बुद्धिविशेषविषयतास्वरूप एकत्व का ग्रहण करने पर उक्त समस्या का अवकाश नहीं है, क्योंकि संग्रह नय विस्तारविषयक है । एतद्घटत्व तो केवल पतत् घट में, जो एक ही है, रहता है, न कि सर्व घट में । अतः व्यापकविषयतावाला संग्रह नय एतद्घटत्व धर्म को अपना विषय नहीं बनाता है । इस तरह पटत्त्वादि धर्म से भी घटसादृश्य की आपत्ति को अवकाश नहीं है, क्योंकि पटत्वादि से भिन उपमान-उपमेयसाधारण में ही संग्रह नय की प्रवृत्ति मुमकिन है। पटत्वादि यद्यपि अनेक पटरादि में साधारण-व्यापक है फिर भी उपमान घट में नहीं रहने

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