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४७३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का. * सामान्य-विशेशत्मकवस्तुसिद्धिः * | त्वेनाऽयोग्यत्वादिति चेत् ? न, योग्यताविशेषेण ताहशस्यापि क्वचित्कस्यचिद योग्यत्वात् ।
एवं सामान्य-विशेषात्मकत्वमपि । स्वभावादेव हि घटोऽनुवृत्तिधियं जनयति, न तदर्थमतिरिक्तसामान्यकल्पनमुचितम, यतः तदप्येकमेव सत् पटादौ कि नाऽनुवृत्तिधियं !! जनयेत् ? 'धर्मिताविशेषेण तत्र तनास्तीति चेत् ? धर्मिताविशेषेणैव तर्हि सामान्यस्थाsबुगतधीनियामकत्वं मन्वानस्तादात्म्येनैव तस्य तथात्वं किं नाऽभ्युपैषि, तवाऽन्योन्या
. _* जयलता = प्रकरणकारस्तन्निराकरोति - नेति । योग्यताविशेपेण = योग्यताविशेषबलेन त दृशस्यापि = अयोग्यघटितस्यापि क्वचित् कस्य। चित् पुरुषादेः विशेषज्ञस्य ज्ञातुं योग्यत्त्वात् । 'विनष्टचत्रस्याऽयं पुत्र' इत्यादी विदोषणस्याऽयोग्यत्वेऽपि तद्विशिष्टस्य योग्यत्वेन यथा कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं भवति तद्वदेव प्रकृतेऽपि बोध्यम् । एतेन सत्ताजातिशून्यत्वमेव प्रत्यक्षवेद्यं न तु निषेधमुखप्रत्य- । यवेद्यत्वं. तस्यायोग्यघाटतत्वेनाइयोपवादित्यपि परास्तम् ।
एवं = नित्यत्वानित्यत्वादिविरोधग्राहकप्रमाणप्रसिद्धिविरहात् वस्तुनो नित्यानित्यत्वाद्यात्मकत्वमिव सामान्य-विशेषान्मकत्वमपि निराबाधम् । परेण सामान्य-विशेषयोरतिरिक्तत्वस्वीकारात्तन्निरासकृते आह- स्वभाबादेव हि अवधारणार्थः घटोऽनुवृत्तिभियं = 'अयं घटः', 'अयं बट' इत्याद्याकारकान्वयबुद्धिं जनयति इति हेतोः न तदर्थ = अनुगतप्रतीति-निर्वाहाय. अतिरिक्तसामान्यकल्पनं = घटादिव्यतिरिक्तस्य घटत्वादिसामान्यस्य कल्पनं उचितम् । तदतिरेके बाधकमुपदर्शयति - यतः तदपि अनन्तव्यक्तिनिष्ठं तद्मिन्नं घटत्वादिसामान्यं अपि एकमेव स्वीकृतं सत् पटादी व्यक्ती किं नानुवृत्तिधियं जनयेत् ? जनयदेव, पदार्धान्तरभूतस्य घटत्वादिसामान्यस्य तत्सम्बन्धस्य च समदायरूपस्य परेण सर्वगतत्वैकत्वाभ्युपगमात ।
नन समवायस्यैकत्वन रूपरसादिसमवायवति पदादी घटत्वादिसमवायसत्वेऽपि समवायन न घटत्वादिमना, तदाधारताया घटादिस्वरूपत्वादिति नोक्तदोष इत्याशयेन पर आह- धर्मिताविशेषेण घटानुयोगिकत्वविशिष्टसमवायसम्बन्धेन तत्र = पटादौ, तत् = घटत्वसामान्यं, नास्तीति न तत्रानुगतधीरिति परेणोच्यते चेत् ! तदा प्रकरणकृदाह- धर्मिताविशेषेण सम्बन्धेन एव तर्हि सामान्यस्य अनुगतधीनियामकत्वं मन्वानो गौतमीयः त्वं तादात्म्येनैव संसर्गेण तस्य सामान्यस्य तथात्वं अनुगत - बुद्भिजनकत्वं किं नाभ्युपैपि ? विषयतासम्बन्धेनाऽनुगतधियं प्रति तादात्म्येन सामान्यस्य जनकत्वमुचितं न तु घटाउनुयोगिकत्वविशिष्टसमवायरूपेण धर्मिताविशेषसम्बन्धेनेति स्याद्रादिवक्तव्यार्थः । तत्साधकमाह- तब नैयायिकस्य अन्योन्याभाव
से अयोग्य है" ठीक नहीं है, क्योंकि अयोग्यघटित होने पर भी योग्यतावियोप की वजह विधिमुखप्रत्ययवेद्यत्व भी कभी किसी के लिए योग्य होता है ।
Vतस्तु सामान्य-विशेषोभयात्मक है v ___ एवं सा, इति । जैसे वस्तु सत्यासत्त्वोभयात्मक है, ठीक वैसे ही सामान्य-विशेपउभयात्मक भी है। घट अपने स्वभाव | से ही अनुवृत्तिप्रत्यय = अनुगत बुद्धि को उत्पन्न करता है । हजारों घट में 'यह घट है', 'यह घट है' इत्याकारक अनुगन बुद्धि का निर्वाह घट के स्वभावविशेष से, जो घट से अभिन्न है, ही उपपन्न हो जाने से तदर्थ घट से अतिरिक्त नित्य जाति = सामान्य की कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यटत्वादि सामान्य तो एक एवं नित्य है और उसका संबन्ध समवाय भी नित्य और सर्वगत है । अतः अनेक घट की भाँति पट आदि में भी अनुगन बुद्धि उत्पन्न होने की समस्या खड़ी होती है। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि -> "समवाय एक नित्य और व्यापक होने से घटत्वसामान्य का समवाय तो पट आदि में भी है, मगर घटानुयोगिक सम्बाय सम्बन्ध से घटत्ववत्ता वहाँ नहीं है, क्योंकि तादृशाधारता घटस्वरूप होने से पटादि में नामुमकिन है। इस तरह धर्मिताविशेष सम्बन्ध से घटत्वसामान्य पटादि में नहीं होने से पटादि में 'अयं घटः', 'अयं घटः' इत्यादि अनुगत बुद्धि होने की आपत्ति नहीं है" - तो यह भी नामुनासिर है, क्योंकि धर्मिताविशेष सम्बन्ध से अतिरिक्त सामान्य को अनुगत बुद्धि का नियामक मानने की अपेक्षा तादात्म्य सम्बन्ध से ही सामान्य को अनुगत बुद्धि का नियामक क्यों न माना जाय ? मतलब कि घट को ही सामान्यात्मक मान कर उसे ही 'अयं यदः', 'अयं घटः' इत्याकारक अनुगत बुद्धि का नियामक मानना युक्त है । ऐसा मानने में लाभ यह है कि विषयता सम्बन्ध से होने वाली अनुगत बुद्धि के प्रति सामान्य में तादात्म्य सम्बन्ध से कारणता का स्वीकार होने से