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४७९ मध्यमस्याद्भादरहस्ये खण्ड: २ का ७ * तिर्यगूर्यतासामान्यस्थापनं परीक्षामुखसंवादः
'काञ्चनं काथनमित्यनुगतप्रतीतेर्निर्वाहादिति चेत् ? त्र, 'यदेव काचनमङ्गदीभूतं तदेव कुण्डलीभूतमित्यादिप्रतीतीनामेकाकारत्वस्योर्ध्वतासामान्यं विनाऽनुपपत्तेः, विसदृशपरिणतिषु तिर्यक् सामान्यानवकाशाच्च । किञ्च प्रतीतावनुगतत्वं
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एकविषयनिष्ठापरविषयभेदानवच्छेदकावगाहित्वं,
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नन्दिनाऽपि 'सामान्यं द्वेधातिर्यगूर्ध्वताभेदात् । सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्ड-मुण्डादिषु गोत्ववत् । पराऽपरविवर्त्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मृदिव स्थासादिष्विति - (प.मु. ८ / ३ - ४-५ सूत्र ) ।
अत्र पर: शङ्कते - अथेति । एवमपि समानाऽसमानपरिणामयोरेव स्वभावतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिनियामकत्वाऽङ्गीकारेऽपि, उतासामान्ये तिर्यक्सामान्याऽतिरिक्ते मानाभावः । तर्हि पराऽपरविवर्ताकलिते द्रव्ये कथं अनुगतबुद्धेः निर्वाह : ? इत्यादाङ्गायामाह- अङ्गद-कुण्डलादी काञ्चनत्वरूपतिर्यक्सामान्येनैव 'काञ्चनं काञ्चनमित्यनुगतप्रतीतेः निर्वाहात् = उपपत्तिसम्भवात् पराऽपराऽङ्गदकुण्डलादिपरिणामव्यापिद्रव्यात्मको र्ध्वतासामान्यकल्पनमनतिप्रयोजनम्, गौरबादिति शङ्काशयः ।
प्रकरणकारः तन्निराकुरुते - नेति । 'यदेव कावनमङ्गदीभूतं तदेव कुण्डलीभूतमित्यादिप्रतीतीनां एकाकारत्वस्य = अभिन्नद्रव्यावगाहित्तस्य तासामान्य अङ्गदकुण्डलपर्यायव्यापि द्रव्यं विना अनुपपत्तेः पूर्वद्रव्यनाशानन्तरं नवीनद्रव्यो| पादाभ्युपगमे एकप्रदेशकनानापर्यायविशेष्यकैकत्वप्रकारकप्रतीतेरसम्भवात् । न च पूर्वकाञ्चननाशानन्तरमभिनवकाञ्चनोत्पत्तिस्वीकारेऽपि काञ्चनत्वरूपतिर्य. काका मुशतिवाद, तथापि काष्ठ- दण्डस्य भस्मीभवने 'यदेव | काष्ठं दण्डीभूतं तदेव भस्मीभूतमिति प्रतीतेरेकाकारत्वस्यानुपपत्तेरित्याशयेनाह - विसदृशपरिणतिपु तिर्यक्सामान्यानवकाशाच । न हि प्रकृते काष्ठत्वस्य तिर्यक्सामान्यत्वं सम्भवति । इत्थञ्च विकार्य कर्मस्थलानुरोधेनाऽयन्ततो गत्वोर्ध्वतासामान्याभ्युपगमस्याssवश्यकत्वमिति फलितम् ।
किचेति । प्रतीतो
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प्रतीतिवृत्ति अनुगतत्वं
में 'यह सुवर्ण है' इत्याकारक अनुगत प्रतीति हो सकती है" समाधान यह है कि जो सुवर्ण अंगद नामक आभूषण था, वही सोना अभी कुंडल बन गया है' इत्याकारक प्रतीतियों में एकाकारता = एकद्रव्यविपयकत्व की उपपत्ति ऊर्ध्वता सामान्य के बिना नामुमकिन है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि एक काल में विभिन्न व्यक्तियों में जो अनुवृत्ति बुद्धि होती है, वह प्रतिव्यक्ति समानपरिणतिस्वरूप तिर्यक् सामान्य की वजह होती है । जैसे शाबलेय, बाहुलेय आदि अनेक गाय में एक ही काल में 'यह गाय है, यह भी गाय है' इत्याकारक जो अनुवृत्ति बुद्धि होती है, वह सास्नादिमत्त्व आदि समानपरिणामात्मक तिर्यक्सामान्य की वजह होती है। मगर एक ही द्रव्य में भिन्न भिन्न काल में अलग-अलग पर्याय होते हुए भी जो एकाकार प्रतीति होती है, उसका नियामक कवंतासामान्य है । जैसे एक ही सुवर्ण पूर्व काल में बाजुबंध = कंगन स्वरूप था बाद में कुण्डल बनता है तब यह वही सुवर्ण है जो पूर्व में कंगन था और अभी कुण्डल बन गया है' ऐसी एकाकार प्रतीति होती है, वह कंगन आर कुण्डल पूर्वापरपर्यायच्यापक सुवर्ण द्रव्य की वजह ही हो सकती है । पूर्व कंगनपर्याय वाले सुवर्ण का नाश और कुण्डलपयांचा सुवर्ण की निष्पत्ति मानने पर दोनों में अभेदावगाहिनी प्रतीति नहीं हो सकती । इसलिए उता सामान्य का अंगीकार करना आवश्यक है । दूसरी बात यह है कि यदि तिर्यक् सामान्य से अतिरिक्त ऊर्ध्वता सामान्य का स्वीकार न किया जाय न काम की भस्म होने पर 'जो काष्ठ (= लकडा) दण्ड था, वही भस्म हो गया' इत्याकारक प्रतीति कैसे हो सकेगी ? तिर्यक् सामान्य का मतलब है तुल्य परिणाम । विसदृश परिणाम वाले द्रव्य में सदृशपरिणतिस्वरूप तिर्यक् सामान्य का अवकाश नहीं है । वहाँ तो दण्ड और भस्म स्वरूप पूर्वापर परिणाम के व्यापक पृथ्वी द्रव्यस्वरूप ऊर्ध्वतासामान्य का अंगीकार, इच्छा हो या न करना ही पड़ेगा । इसमें कोई अपील नहीं है ।
[ अनुगतत्व का निर्वचन []
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एकविषयनिष्ठापरविषयभेदानवच्छेदकावगाहित्वमिति । समान
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किश्व इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि प्रतीति में रहने वाला अनुगतस्त्र एकविपयनिष्ठ अपरविषयभेद की प्रतियोगिता के अनवच्छेदक के अवगाहित्यस्वरूप है, जिसका निर्वाहक तिर्यक् सामान्य की भाँति ऊर्ध्वता सामान्य भी निराबाधरूप से है । आशय यह है कि शाबलेय, बाहुलेय, खण्ड मुण्ड आदि विविध गाय में 'यह गाय है, यह भी गाय है' इत्याकारक जो प्रतीति होती है; वह शाबलेय आदि गाय में रहे हुए बाहुलेय आदि गाय के भेद की प्रतियोगिता के