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* सादृश्यमीमांसायां मम्मद-दण्डि-रुद्रट-भोजप्रभृतिमतप्रकाशनम् * || मिथस्तयोरेवोपमानोपमेयत्वविवक्षामापादस्या अलहारान्तरख्यपदेशात्।
यत्तु प्राचा -> 'तद्धिमत्वे सति तगतभूयोऽसाधारणधर्मवत्त्वं सादृश्यम्' । पढादी घटसादृश्यवारणाय 'असाधारणे'ति, यत्किचिदसाधारणाधर्मवति तदवारणाय 'भूय' <-- इत्युक्त
=- =- =* जयलता * -- पमालक्षणसङ्गतिरेव । 'यदि च तस्या लक्ष्यत्वमेव तर्हि कुतस्तस्या अलङ्कारान्तरव्यवहः : इत्याशङ्कायामाहुः- मिथस्तयोः = परस्परमुपमानोपमेययोः एव उपमानोपमेयत्वविवक्षामात्रात् अस्याः = उपमेया ... या अलङ्कारान्तरव्यपदेशात् । तदुक्तं काव्यप्रकाशे मम्मटेन 'विपर्यास उपमेयोपमा तयोः ।९१। तयोः = उपमानापमययोः परिवृत्तिः अर्थाद् वाक्यद्वये इतरोपमानव्यवच्छेदपरा उपमेयेनोपमेति उपमेयोपमा । उदाहरणम् - कमलेव मतिर्मतिरिव कमला, तनुरिव विभा विभेव तनुः । धरणीव धृतिधृतिरिब धरणी, सततं विभाति बत यस्य ।। (का.प्र.सू.१३६ का.९१) इति । उपमाया उपमेयोपमायां वैवक्षिक एव भेदो न तु वास्तवः । अत एव दण्डि-रुद्रट-भोजादिभिरुपमेयोपमात्वस्योपमात्चव्याप्यत्वमभ्युपगम्यते । न चानन्वयादुपमेयोपमाया अभेदः, अन्योपमान्यवच्छेदस्योभयत्र साम्यादित्यारेकणीयम्. अनन्वये एकेनैव वाक्येन तद्व्यवच्छेदः क्रियते उपमेयोपमायां तु वाक्यद्वयेनेति विशेषात् । तदुक्तं काव्यप्रकाशे -> 'उपमानोपमेयत्वे एकस्यैवैकवाक्यगे अनन्वयः - (का, प्र.स.१३५ का.९.) इति । किञ्चानन्वये एकस्यैवोपमेयत्वमपमानत्वञ्च, उपमेयोपमायान्तुभयोरित्यपि तयोर्विशेषः । तदुक्तं काव्यानुशासने श्रीहेमचन्द्राचार्यः -> 'उभयोरुपमेयत्वे उपमानत्वे चोपमेयोपमा । एकस्यैवोपमानत्वोपमेयत्वेऽनन्वयः (का.अ. अ.६, सू.३) इत्यादिकं विभावनीयमलङ्काररसिकैः ।।
यत्चिति । उक्तमित्यनेनास्यान्वयः । प्राचा = प्राचीननैयायिकेन, तद्भिनत्वे सति तद्गतभूयोऽसाधारणधर्मवत्त्वं सादृश्यं = सादृश्यपदप्रतिपाद्यम् । तदेव समर्थयति - पटादौ घटसादृश्यवारणाय 'असाधारणे'ति धर्मविशेषणम् । असाधारण्यञ्च सकलपदार्थाऽवृत्तित्वेन बोध्यम् । एतेन पदार्धमात्रस्य पदार्थमात्रेणाऽपि समं सादृश्यं स्यात्, तद्गतप्रमेयत्व-वान्यत्यादिधर्मवत्वसत्त्वादिति प्रत्युक्तम्, प्रमेयत्वादेरसाधारण्या भावात् । तथापि घटभिन्नत्वेन सिंह-शृगालयोरपि सादृश्यं प्रसज्येतेत्याशङ्कायामाह- यत्किनिदसाधारणधर्मबति = घटभेदाद्यसाधारणधर्माश्रये सिंह-शृगालादो तद्वारणाय = सादृश्यापाकरगाय 'भूय' इति असाधारणधर्मविशेषणम् ।
वह लक्ष्य है। अतः वहाँ उपर्युक्त सादृश्यलक्षण की प्रवृत्ति हो तो भी अतिव्याप्ति दोप का अवकाश नहीं है। अलक्ष्य में लक्षण की प्रवृत्ति होने पर ही अतिव्याप्ति दोष का उद्भावन किया जाता है। यहाँ परस्पर उन दोनों में ही उपमान-उपमेयभाव की विवक्षा होने से उपमा अलंकार से अतिरिक्त उपमेयोपमा नामक अन्य अलंकार का व्यवहार होता है।
प्राचीजमत में दूषणोद्भावन [D यत्तुइनि | प्राचीन नैयायिक सादृश्यलक्षण बताते हुए कहते हैं कि --> "तद्भिनल होते हुए तगत अनेक असाधारण धर्मों का होना ही तत्सादृश्य है। तत्शन्द से उपमान का ग्रहण अभिमत है। जैसे 'मुखं चन्द्रसदृशं' यहाँ मुख उपमेय है और चन्द्र उपमान है । मुख में चन्द्र का भेद एवं चन्द्रगत आह्लादकत्व, वर्तुलत्व, तेजस्विता आदि अनेक असाधारण धर्म भी रहते हैं, वही मुस्त्रगत चन्द्रसादृश्य है । यदि सादृश्य का लक्षण केवल इतना ही बनाया जाय कि उपमानभिनत्व होते हुए उपमानगत अनेक धर्म उपमेय में हो वही सादृश्य है, तो फिर विजातीय घट-पट में भी सादृश्य रह जायेगा, क्योंकि पट में घटभेद एव घटगत प्रमेयत्व, वाच्यत्व आदि अनेक धर्म रहते हैं। इस आपत्ति के निवारणार्थ धर्मसामान्य न कह कर असाधारण धर्म का ग्रहण किया गया है। पट में वाच्यत्व, प्रमेयत्व आदि घट के साधारण धर्म रहते हैं, मगर असाधारण धर्म नहीं रहते हैं। अतः 'पदो घटसदृशः' इसकी आपत्ति नहीं है । यहाँ घट का असाधारण धर्म द्रव्यत्व पट में भी रहता है । अतः पुनः 'पटः घटसदृशः' इत्याकारक प्रयोग की आपत्ति आयेगी । इसके निवारणार्थ 'भूयः' यानी 'अनेक' ऐसा असाधारण धर्म का विशेषण लगाया गया है । घट के असाधारण = केवलान्वयिभिन्न द्रव्यत्व धर्म की पट में विद्यमानता होने पर भी घट के अनेक असाधारण धर्म पट में नहीं रहते हैं । अतः 'पटः घटसदृशः' इस प्रयोग का अनिष्ट प्रसंग नहीं होगा । अतः सादृश्य का घटक केवल धर्म नहीं है. किन्तु अनेक असाधारण धर्म हैं . यह फलित होता है" -
तत्र. इति । मगर विचार किया जाय तो प्राचीन नैयायिक का उपर्युक्त वक्तव्य भी नामुनासिब प्रतीत होता है । इसका il कारण यह है कि पट में भी कथंचित् यटसादृश्य धर्म का सादृश्यलक्षण में प्रवेश करना असंगत है। यंट की भाँति पट