Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 292
________________ ४८९ मध्यमस्यावादरहस्पे खण्डः २ - का. * 'घटो न पटसदृशः' इनिधिय इष्टत्वम् * चेत् ? न, एवं सति 'घट: पटसहश' इति बुन्दयनापतेरिति «- येत् ? न, 'घढो न पटसहश' इति बुन्दयनापत्तेरिष्टत्वात्, अनिष्टत्वे वा धर्मपदं घटत्वादिपरं बोध्यम् । एवमपि घटभिन्नत्वविशिष्टघटत्वाऽसिन्दः कथं तदभावबोध इति चेत् ? ल ह्या विशिष्टस्याभावबोध: - == =* गयलता * अथवादी तन्निराचष्टे - नेति । एवं = उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्धन उपमाननिरूपितवृत्तित्वविशिष्टो यो धर्मस्तस्य सादृश्यलक्षणघटकत्वाऽभ्युपगमे सति 'घटः पटसदृशः' इति बुद्ध्यनापत्तेरिति । घटे पदभेदसत्त्वेऽपि उपमानभूतपटपदार्थतावच्छेदकपटत्वनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्धेन वृत्तित्वविशिष्टस्य धर्मस्य विरहात् । अतो द्रव्यत्वेन घटे एटसादृश्यधी-व्यवहारी न स्यातामित्येकं सीव्यतोऽपरप्रच्युतिर्दुरिति नोपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्धेन वृत्तित्वविशिष्टो यो धर्मस्तद्वत्त्वस्य सादृश्यलक्षणनिवेशो युक्तः, अन्यथा 'मुखं चन्द्र इवे' त्यादौ सर्वत्र सादृश्यानुपपत्तिः प्रसज्येत, 'घटः कुम्भ इवे' त्यादेः प्रामाण्यप्रसङ्गश्चेत्यसाधारणत्वनिवेशस्याऽऽवश्यकत्वमेवेत्यधाशयः । नैयायिकास्तनिराकुर्वन्ति- नेति । 'घटी न पटसदृश' इति बुद्ध्यनापत्तेरिष्टत्वादिति । ततश्च सादृश्यलक्षणघटकधर्मविशेषणविधयाऽसाधारणत्वनिवेशोऽनावश्यक इति भावः । यदि च परेण 'घटो न घटसदृश' इति बुद्धेः प्रामाणिकत्वं स्वीक्रियते तदा विकल्पान्तरमाहुः - अनिष्टत्वे वेति । तादृशबद्ध्यनापतेरनिष्टत्वे येत्यर्थः । धर्मपदं = सादृश्यलक्षणघटकधर्मवाचकपदं, घटत्वादिपरं = लक्षणया घटत्वादिबोधकं बोध्यमिति । घटत्वस्य पटेऽभावात् 'घटो न पटसदृश' इति धिय उपपनिरित्यर्थः । परः शङ्कते - एवमपि = सादृश्यलक्षणघाटकीभूतधर्मबोधकपदस्य घटत्वादी लक्षणाऽङ्गीकारेऽपि घटभिन्नत्वविशिष्टघटत्वाऽप्रसिद्धेः 'पटो न घटसदृश' इतिवाक्यात कथं तदभारचोधः १ पटे घटभेदविशिष्टवटत्वलक्षणसादृश्याभावगोचर - शाब्दबोधो नैव स्यात् । यत्र घटत्वं तब न बटभिन्नत्वं यत्र च घटभिन्नत्वं तत्र न घटत्वमिति सामानाधिकरण्येन घट. भिन्नत्वविशिष्टस्य घटत्वस्य कुत्राऽप्यप्रसिद्धेः पटे न तदभावात्मक-घटसादृश्याभावबोधः सम्भवति, अप्रसिद्धप्रतियोगिकाभावस्या नभ्युपगमात् । इत्यञ्च तद्भिन्नत्वे सति तनिधर्मवत्त्वरूपस्य सादृश्यलक्षणस्य घटकीभूतधर्मपदं लक्षणया घटत्वादिबोधकं स्यात् तदा ‘पटो न घटसदृश' इतिवाक्याच्छाब्दबोधो न कथमपि सङ्गच्छेतेति शङ्काशयः । नैयायिकाः समादधते- न हीति । अत्र = ‘पटो न घटसदृश' इति स्थले, विशिष्टस्य = सामानाधिकरण्येन घट| भेदविशिष्टस्य घटवृत्तिघटत्वस्य अभावबोधः स्वीक्रियते, येन 'असओ णत्थि णिसेहो' इति वचनात् अप्रसिद्धप्रतियोगिक सर्वजनविदित है, भी नहीं हो सकेगी, क्योंकि यहाँ उपमान पद होने से उपमानपदार्थतावच्छेदक पटव है, जिसमें रहने वाले आश्रयत्वसम्बन्ध से पटनिरूपितवृत्तिताविशिष्ट केवल पटत्त्व धर्म ही है, जो कि उपमेय घंट में नहीं रहता है। घर में निरवच्छिनविशेषणतासम्बन्ध से पटभेद रहने पर भी पटत्वनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से पटनिरूपितवृत्तिताविशिष्ट ऐसा धर्म नहीं होने से पटसादृश्य ही नहीं है, तो 'घटः पटसदृश' ऐसी बुद्धि कैसे हो सकेगी। अतः इन दोषों से मुक्ति पाने के लिए सादृश्यघटक धर्म के विशेषणविधया असाधारणपदार्थ का निवेश आवश्यक है । तभी 'पटो न घटसदृशः' इस बुद्धि एवं व्यवहार की उपपत्ति हो सकेगी। समाधान :- न, घ. इति । मगर विचार करने पर उपर्युक्त कथन भी असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि 'पटो न । घटसदृशः' इस बुद्धि की अनुपपत्ति ही है। मतलब कि पट में घटसादृश्य होने से 'पटो न घटसदृशः' यह बुद्धि स्वीकार्य ही नहीं होने की वजह इसकी अनुपपत्ति इष्टापत्ति है । अतः उसके अनुरोध से सादृश्यलक्षण के शरीर में असाधारण का धर्मविशेषणविधया निवेश अनावश्यक है । अतः 'तद्भिन्नत्वे सति तवृत्तिधर्मवत्त्व' को ही सादृश्य का लक्षण मानना मुनासिब है न कि 'तभिन्नत्वे सति तवृत्तिभूयोऽसाधारणधर्मवत्त्व' को यह फलित होता है । यदि 'पटो न पटसदृशः' यह बुद्धि अभीष्ट हो और इसीकी वजह 'पटो न घरसदृशः' इत्याकारक बुद्धि की अनापत्ति = अनुपपत्ति = असंगति अनिष्ट हो तो उसकी उपपनि के लिए यह कहा जा सकता है कि सादृश्यलक्षणघटक धर्मपद घटत्वादिपरक है यानी धर्मपद की घटत्वादि में लक्षणा करनी चाहिए । तब 'पटो न घटसदृशः' इत्याकारक बुद्धि उपपन्न हो सकती है, क्योंकि पट में घटभेद होने पर भी घटवृत्ति घटत्व धर्म का अभाव होने से घटसादृश्य नहीं रहता है। विशेप्याभावप्रयुक्त विशिष्टाभाव अबाधित होने से 'पटो न घटसदृशः' इत्याकारक बुद्धि का समर्थन हो सकता है। एवमपि. इति । यहाँ यह शंका हो कि → "पट में घटसादृश्य का निषेध कैसे किया जा सकता है ? क्योंकि

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