Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 291
________________ 'पटो न घटसदृशः' इतिवाक्यविमर्श:* ४८८ अनवच्छिन्नविशेषणताया भेदसंसर्गत्वाच्च न कपिसंयोगवति कपिसंयोगवत्साहश्यापत्तिः ।। अवं-> 'पटो न घटसहश' इतिधीन स्यात्, घटवृत्तिधर्मसामान्याभावस्य पटेउसम्भवात् । 'अनोपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्वविशिष्टधर्माभावबोधानायं दोष' इति ===* जयलता * ... - ननु 'चन्द्रसदृशं मुखमि' त्यत्र चन्द्रस्य प्रतियोगितासम्बन्धेन भेदे निरूपितत्वसम्बन्धेन च वृत्तित्वे तस्य तु स्वरूपसम्बन्धेन धर्मेऽन्वयमङ्गीकृत्य 'चन्द्रभिन्नत्वविशिष्ट-चन्द्रबृत्त्यालादकत्वादिधर्मवन्मुखमि'तिशाब्दबोधाभ्युपगमे तु शाखावच्छेदेन कपिसंयोगवति बृश्ते कपिसंयोगवत्सादृश्यप्रसङ्गो दुर्निवारः, वृक्षे मूलावच्छिन्नविशेषणतासम्बन्धेन कपिसंयोगिभेदस्य वृत्तित्वादित्याशङ्कायामाहअनवछिन्नविशेषणतायाः = निरवचिन्नवृत्तिताकविशेषणतायाः भेदसंसर्गत्वात् च = सादृश्यघटकभेदनिष्ठवृत्तितावच्छेदकसम्बन्धत्वविवक्षणात् हि न कपिसंयोगवति चुनादी कपिसंयोगवत्सादृश्यापत्तिः । न हि वृक्षे निरवच्छिन्नविशेषणतासंसर्गेण कपिसंयोगिभेदो वर्तते, शाखायां तस्य कपिसंयोगित्वात् । एवञ्चान्योन्याभावस्याऽच्याप्यवृत्तित्वाऽङ्गीकारेऽपि न अतिः । परः शहते- अथेति । द्वितीयत्पदेन सहास्यान्वयः । एवं - सादृश्यलक्षणघटकधर्मविशेषणविधयाऽसाधारणत्वस्यानङ्गीकारे सति, 'पटो न घटसदृशः' इति धीन स्यात्, पटस्य प्रभिन्नत्वे सति वटवृनिप्रमेयत्वादिधर्मवत्त्वेन घटवृत्तिधर्मसामान्याभावस्य पटेसम्भवात । विशेषण-विशेष्योभयवति विशिष्टाभावस्य वक्तुमशक्यत्वेन विशिष्टवातियोगिक दस्याउ सत्त्वात् पटे घटसदृशभिन्नत्वप्रतीतिर्नब स्यादित्यधाभिप्रायः । कश्चित् समाधत्ते. 'अत्र = 'पटो न घटसदृश' इत्यादी उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्व विशिष्टधर्माभावबोधार नापं दोपः = न सादृश्योधानुपपत्तिसमः । उपमानभूतघटनिरूपितवृत्तित्वं आश्रयतासम्बन्धेन पटसाधारणे प्रमेयत्वादी धर्मे वर्तते किन्तु उपमानपदार्थतावच्छेदकघटत्वनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्वं घटत्वे एव वर्तते न तु प्रमेयत्वादी धर्मे । न हि प्रमेयत्वादिकं प्रकृते उपमानपदार्थतावच्छेदकं, तस्याऽतिप्रसक्तत्वात्, किन्तु घटत्वमेव तथा 1 उपमानात्मकघटपदार्थतावच्छेदकघटत्वनिष्ठाश्रयत्वसंसर्गेण वृत्तित्वविशिष्टो यो घटत्वधर्मः स तु नोपमेये पटे वर्तत इति तत्र घटसादृश्यविरहात् 'पटोन घटसदृश' इतिधीरनाक्लिनि मुग्धसमाधानाशयः । अनव. । यद्यपि 'उपमानभिन्नत्वे सति उपमानवृत्तिधर्मवत्व' को सादृश्य मानने पर शाखाअवच्छेदेन कपिसंयोग वाले वृक्ष में 'यह कपिसंयोगिसदा है' इत्याकारक वाक्यप्रयोग के प्रामाण्य की आपत्ति आ सकती है, क्योंकि 'वृक्ष शाखा में कपिसंयोगी है, न कि मूल में भी' इस प्रतीति से मूलावच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से वृक्ष कपिसंयोगिभिन्नत्वविशिष्ट है । एवं उपमानगत कपि-संयोग भी वृक्ष में रहता है तथापि अनचच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से भेद की वृत्तिता का स्वीकार करने पर उपर्युक्त आपत्ति का परिहार हो सकता है, क्योंकि मूलावच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से ही वृक्ष कपिसंयोगिप्रतियोगिक भेद बाला है न कि निरवच्छिन्नविशेषतासंसर्ग से । वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग होने से निस्वच्छिन्नविशेपणतासम्बन्ध से कपिसंयोगिभेद की वृक्ष में संभावना नहीं हो सकती है, अन्यथा तब 'वृक्षो न कपिसंयोगी' ऐसी प्रतीति के प्रामाण्य की आपत्ति आयेगी । शंका :- अथैवं. इति । यहाँ यह कहा जा सकता है कि सादृश्य को तद्भिबत्वे सति तवृत्तिधर्मवत्त्वात्मक मानने पर तो 'पटो न घटसदृशः' ऐसी बुद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि घटगत प्रमेयत्व-वाच्यत्व आदि धर्म तो पट में रहते ही हैं और घटभेद भी पट में रहता है। पट में घटभिन्नत्वे सति घटवृत्तिप्रमेयत्वादिधर्म रहने से 'पटो घटसदृशः' ऐसी प्रतीति होनी चाहिए, न कि 'पटो न घटसदृशः' ऐसी प्रतीति । यदि यहाँ यह कहा जाय कि -> "सादृश्य के लक्षण का जो उत्तर अंश है 'उपमानवृत्तिधर्मवत्त्व' इसका अर्थ है उपमाननिरूपितवृत्तिताविशिष्टधर्मवत्त्व । यहाँ वैशिष्ट्य केवल आश्रयत्वसम्बन्ध से ग्राह्य नहीं है, किन्तु उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से ग्राह्य है। ऐसा मानने पर 'पटो न घटसदृशः' यह बुद्धि अनुपपन्न नहीं होगी, क्योंकि पट में जो वायत्यादि घटवृत्ति धर्म रहते हैं, उनमें उपमानपदार्थतावच्छेदकीभूतघटत्वनिष्ठाश्रयता. सम्बन्ध से घटनिरूपित वृत्तिता नहीं रहती है, किन्तु वाच्यत्वादिनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से या आश्रयत्वसामान्यसम्बन्ध से घटनिरूपितवृत्तितर रहती है। सिर्फ घटत्व धर्म ऐसा है कि जो घटात्मक-उपमानपदार्थतावच्छेदक होने की वजह उसमें रहने वाली घटनिरूपित वृनिता घटत्वनिष्ठाश्रयत्वसंसर्ग से रह सकती है। मगर वह घटत्व धर्म पट में नहीं रहता है, भले ही निरवच्छिचविशेषणतासम्बन्ध से घटभेद पट में रहता हो । सादृश्य के विशेप्य अंश के विरह से घटसादृश्य पट में नहीं रहता है। अतः 'पटो न घटसदृशः' इत्याकारक बुद्धि एवं व्यवहार निरावाध हो सकता है" - तो यह भी असंगत है, क्योंकि उपमानपदार्थतावच्छेदकनिष्ठाश्रयत्वसम्बन्ध से उपमाननिरूपितवृत्तिताविशिष्ट ऐसे धर्म का उपमेय में भान मानने पर तो 'घटः पटसदृशः' ऐसी बुद्धि, जो स्वारसिकतया

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