Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 283
________________ व्य-गुणपर्यायसाधारणोवंतासामान्यस्वीकारः * | तन्निवाहकत्वञ्च तिर्यक्सामान्यस्येवोर्खतासामान्यस्याऽप्यक्षतमिति कि । ___ रायपीहशोर्वतासामान्यत्वं चिरस्थायिनां गुणपर्यायाणामपि सम्भवति तथापि 'पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्खतासामान्यमि' (प्र.न.त.१/१) त्या द्रव्यपदं धर्मिपरमिति न कोऽपि दोषः । =* जयला कालीनेषु विभिन्नद्रव्येषु खण्ड-मुण्डादिषु 'अयं गौरयमपि गारि'ति प्रतीतेः खण्डनिष्ठमुण्डभेदानवच्छेदकीभूतगोत्वावगाहिन्या अनुगतत्वनिर्वाहकत्वं यथा तिर्यक्रम्गमान्यस्य तथैव मृत्पिण्ड-स्थास-कोश-शिवकादिषु एकद्रव्यपर्यायषु पूर्वापरकालभाविषु 'अयं मानों यमपि मार्त' इति प्रतीतेः मृत्पिण्डादिनिष्ठस्थासादिभेदनिरूपितप्रतियागितानवच्छेदकीभूतमृत्परिणः गावगाहिन्या अनुगत| त्वनिर्वाहकत्वं पूर्वापरपरिणामव्यापिमद्रव्यलक्षणोतासामान्यस्यापि निरावामिनि न तिसामान्यना नासामान्यस्याथासिद्धिरित्याशयेनाह- तनिर्वाहकत्वं च - निरुक्तानुगतत्वोपपत्त्यनुकूलत्वं हि सदशपरिणामलक्षणस्य तिर्यमामान्यस्येव उर्वतासामान्यस्याऽप्यक्षतमिति । अधिकं बुभुत्सुभिः पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूवंतासामान्य कट-कणाद्यनुगामिकाञ्चनवदिति' (प्र.न.त.५/५.) इत्ति प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारसूत्रन्याख्या द्रष्टव्या । यद्यपीति । 'तधापी त्यनेनाः स्याऽन्वयः । ईदृशोवतासामान्यत्वं = प्रतीतिनिष्ठानुगतत्वनिर्वाहकनिरुक्तीवंतासामान्यत्वं, चिरस्थायिनां गुणपर्यायाणां रूप-रसादि-मनुष्यत्व-देवत्वादिरूपाणां अपि सम्भवति नीलरूपनाशानन्तरं रक्तरूपांत्पादेऽपि रूपपरिणामाविनाशात् बालाद्यवस्थानाशानन्तरं युवाद्यवस्थोत्पादेऽपि मनुष्यपर्यायस्य तदुभयव्यापित्वात् । अत एव 'यदेव रूपं नीलतया परिणतमासीत् तदेव रक्तीभूतं' य एव मनुष्य बाल आसीत् स एव युबा जात' इत्याद्यकाकारप्रतीतेरप्युपपत्तिः । ततश्च पूर्वापरपरिणामव्यापिद्रव्यस्येव पूर्वापरपरिणामव्यापकगुणपर्यायाणामप्यूवंतासामान्यत्वं स्वीकर्तव्यं स्यात् । तथा च सूत्रविरोधः प्रसज्येतेति भावः । सनाधत्ते - तथापीति 'पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमवंतासामान्यमि'त्यत्र प्रमाणनयतत्त्वा. लोकालकारसूत्रे, संपूर्ण सूत्रञ्चन पूर्वापरपरिणामसाधारणं द्रव्यमूर्ध्वतासामान्यं कटक-कङ्कणाद्यनुगामिकाञ्चनवदिति । अत्र सूत्रे द्रव्यपदं धर्मिपरं द्रव्यपदस्य धमिमि लक्षणायाः स्वीकारात् न कोऽपि दोषः अपसिद्धान्तादिलक्षणः । एतेन 'ऊर्ध्वतासामान्य तु द्रव्यमेव (रत्ना,अब.७/६) इति रत्नाकराबतारिकावचनमपि व्याख्यातम् । स्वसम्प्रदायानुरोधेनैकन्येपर्वतासामान्येन अनेकद्रव्येषु च तिर्यक्सामान्येनानुगतप्रतीतिव्यवहारो प्रदर्श्य साम्प्रतं शुक्ला| म्बरांशरामणिः प्रकरणकार आशाम्बरसम्प्रदायानुरोधेन तदुपपत्तिमाह- दिगम्बरास्त्विति । तत्रये ह्यस्तित्वं द्विविध स्वरूपा अवच्छेदक बाहुलेयत्व आदि का अवगाहन नहीं करती है, किन्तु तदनवच्छेदक सदृश परिणाम का अवगाहन करती है । तादृश अवगाहित्य ही प्रतीति में रहने वाला अनुगतत्व है, जिसका निर्वाहक शावलेय, बाहुलेय आदि गाय में रहा हुआ सदृशपरिणामात्मक तिर्यक्सामान्य है 1 इसी तरह एक ही सुवर्ण में, जो पूर्व में कंगनपरिणाम वाला था और अभी कुण्डलपरिणाम वाला है, होने वाली 'जो सुवर्ण कंगन था वही कुण्डल बना है' इत्याकारक प्रतीति भी कंगननिष्ट कुण्डलभेद की प्रतियोगिता के अवच्छेदक सुवर्णपरिणाम का अवगाहन करती है । तादृश अवगाहिता = विपयिता ही उस प्रतीति में रहा हुआ अनुगतत्व है, जिसका निर्वाहक कंगन-कुण्डलात्मक पूर्वापरपरिणाम में अनुगत - व्यापक सुवर्ण द्रव्यात्मक ऊर्वतासामान्य ही है न कि तिर्यक् सामान्य क्योंकि कंगन और कुण्डल सदृश परिणाम नहीं है किन्तु विसदृश परिणाम है। इस तरह फलित होता है कि प्रतीतिनिष्ठ निरुक्त अनुगतत्व की निर्वाहकता तिर्यक् सामान्य की भाँति ऊर्ध्वता सामान्य में भी अक्षत = निरावाध है । इस विषय ' में अधिक विचार भी किया जा सकता है, यह तो एक दिग्दर्शन है - इस बात की सूचना देने के लिए प्रकरणकार ने | दिक् शब्द का प्रयोग किया है। अधिक जिज्ञासु स्याद्वादात्नाकर आदि ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं। .पा. इति । यद्यपि प्रतीति में रहने वाले निरुक्त अनुगतत्व का निर्वाहक ऊर्ध्वता सामान्य पूर्वापरपरिणामव्यापक द्रव्य की भाँति चिरस्थायी गुण एवं पर्याय में भी मुमकिन है तथापि 'पूर्वापरपरिणामसाधारणं इन्यं ऊर्ध्वतासामान्य' इस प्रमाणनयतत्वालोकालंकारसूत्र में उल्लिखित द्रव्यशब्द की धर्मी में लक्षणा अभिमत होने से तादृश द्रव्य की भाँति चिरस्थायी गुण एवं पर्याय का भी ग्रहण हो सकता है, क्योंकि वे भी पर्याय विशेष के धर्मी हैं एवं पूर्वापरपरिणाम में व्यापक = साधारण हो सकते हैं । अतः गुण, पर्याय का भी ऊर्खतासामान्यविधया ग्रहण होने से कोई दोप नहीं है । * दिगाप्रदायानुसार अनुगा प्यवहार की उपपत्ति -- - -

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