Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 281
________________ ४७८ * अनुवृतिव्यानिनिपामकत्वविचारः * - किञ्च परम्परासम्बन्धेन जात्यप्रतिसन्धानेऽपि उपाधिभिरनुवृत्तिधीजननदर्शनात् स्वभावत | एव घटादीनानुवृत्तिधीनियामकत्वमुचितम् । । अथैवमेतद्घदत्वेनापि घट: किं नानुवर्तेत ? स्वभावाऽप्रच्यवादिति चेत् ? न, प्रतिव्यक्ति तुल्याऽतुल्यपरिणतिरूपधर्मयोरेव स्वभावतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिनियामकत्वात् । धर्मी go: कायदातव्यावृत्युभयस्वभाव इति स्पष्टीभविष्यति व्याख्यान्तरे पुरस्तात् । अधैवमप्यूटर्वतासामान्ये मानाभाव:, अङ्गद-कुण्डलादी काचनत्वरूपतिर्यक्सामान्येनैव = = = = =* जयलता - ___ यत्तु ‘त्र्यअकमपि परम्परया सास्नात्वादिकमेवेति' (पृ.५७६) परेणोक्तं तत्राऽऽह- किश्चेति । परम्परासम्बन्धेन = स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन, जात्यप्रत्तिसन्धानेऽपि = गवादिषु सास्नात्वादिजातेरज्ञानेऽपि, उपाधिभिः = सास्नादिमत्त्वलक्षणैः ‘इयं गौरियं = गौरि'त्यनुवृत्तिधीजननदर्शनात् न जातेरनुगतधीनियामकत्वं न्याय्यं किन्तु स्वभावत एव घटादीनां गवादीनाञ्च अनुवृत्तिधीनियामकत्वमुचितमिति ।। परः शङ्कते - अथेति । एवं = स्वभावत एव घटादीनामनुवृत्तिधीनियामकत्वे तु एतद्धटत्वेनापि रूपेण घटः किं नानुवर्तेत ? अनुवर्नेत एब, स्वभावाप्रच्यवात् = समानाकारकधीजननस्वभावाऽपरित्यागात्, अन्यथा मृगपतिशृङ्गसहोदरत्वप्रसङ्गः । न हि स्वभावो जातुचित् परावर्तते, तत्त्वहान्यापत्तेः । प्रकरणकारः तन्निराकुरुते- नेति । प्रतिव्यक्ति तुल्याऽतुल्यपरिणतिरूपधर्मयोः = समानाऽसमानपरिणामयोः एव स्वभावतोऽनुवृत्तिव्यावृत्तिनियामकत्वात् एतदटत्वस्याऽतुल्यपरिणामत्वेन न तेन रूपेण घटोऽनुवर्तते किन्तु घटत्वलक्षणसमानपरिणामेनैव । न च धर्मयोरेव स्वभावतस्तन्नियामकवे धर्मिणो घटादेस्स्वभावतस्तनियामकत्वाभिधानं कधं सङ्गच्छते इति वाच्यम्, धर्मधर्मिणोः कश्चित्तादात्म्याऽङ्गीकारेण तथावक्तुं सुचचत्वात् । न हि तयोः सर्वधा भेद उपलभ्यते । न चैवमपि धर्मिणोऽनुवृत्तिस्वभावत्वमेव ब्यावृत्तिस्वभावत्वमेव वा स्यात्, न तु तदुभयस्वभावत्वं, विरोधादिति वक्तव्यम्, विशेषात्मना व्यावृत्तस्यैव धर्मिणः स्वरूपेण सामान्यात्मनाउनुवृत्तस्योपलम्भन तयोः कथश्चिदविरोधादित्याशयेनाऽन्ह- धर्मीति । अनेकान्तवादिमते वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वम्, तत्र सामान्यमनुवृत्तिप्रत्ययाऽसाधारणहेतुर्वस्त्वन्शः । भवति खलु । भिन्नप्रदेशकनानाव्यक्तिविशेष्यकैकत्वप्रकारकप्रतीतौ तादात्म्येन तिर्यक्सामान्य हेतुः । एकप्रदेशकनानापर्यायव्यक्तिविशेष्यकैक| त्वप्रकारकप्रतीता च तादात्म्येनोव॑तासामान्यं हेतुरित्येतद्विविधमण्यनुवृत्तिप्रत्ययाऽसाधारणकारणम् । तदुक्तं परीक्षामुखे माणिक्य लिया जाय तो भी विशेषणतात्व तो सभी विशेषणता में अनुगत होने से उसका विशेषणतात्वरूप से अनुगत हो सकता: है। अतः व्यभिचार का भी कोई अवकाश नहीं है। दूसरी बात यह है कि . घट में कंबुग्रीवादि को देख कर परम्परासम्बन्ध से कम्युग्रीवत्व आदि जाति का भान न होने पर भी 'यह घट है, वह यट है' इत्याकारक अनुगत बुद्धि उत्पन्न होती है, यह देखा गया है । इस तरह जाति का भान न होने पर भी अनुगत बुद्धि उत्पन्न होती है, तब तो यही मानना मुनासिब ।। है कि घटादि स्वभाव से ही अनुगत बुद्धि का नियामक है, क्यों अतिरिक्त घटत्व की कल्पना का कष्ट उठाया जाए ? अथै. इति । यहाँ इस शंका का कि > 'घटत्वरूप से घट यदि अनुगत बुद्धि का जनक है, तो फिर एतद्घटत्वरूप से भी वह क्यों 'अयं श्रदः अयं घटः' इत्याकारक अनुगत बुद्धि का जनक नहीं है ? क्योंकि स्वभाव का तो त्याग नहीं होता है" - समाधान यह है कि प्रत्येक घटादि व्यक्ति में तुल्य परिणाम और अतुल्य परिणामात्मक धर्म ही स्वभाव से अनुमत बुद्धि और व्यावृत्त बुद्धि का निवामक है, धर्मी घट आदि तो कथंचित् अनुवृत्ति और कथंचित् व्यावृत्ति उभय स्वभाव वाला होता है । एतद्घटत्त्व धर्म व्यावृत्ति का नियामक है, क्योंकि वह अतुल्यपरिणामात्मक धर्म है। अतः एक ही व्यक्ति तुल्य परिणाम से अनुगत बुद्धि का एवं अतुल्य परिणति से व्यावृत्त बुद्धि की जनक है - यह फलित होता है । इस विषप की अधिक स्पष्टता इस लोक के उत्तरार्ध की अन्य व्याख्या में आगे हो जायेगी। * तिर्यसामान्य की भाँति ऊर्वतासामान्य वास्तविक *** ___अर्थव. इति । यहाँ इस शंका का कि -> "प्रतिव्यक्ति तुल्य परिणाम को अनुगत प्रतीति का नियामक मानने पर भी उचंतासामान्य की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है. क्योंकि कांचनत्वादिस्वरूप तिर्यक् सामान्य से ही अंगद, कुण्डल आदि - - ___

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