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४७५ मध्यमस्यावादरहस्ये खण्डः २ . का. *न्यायनयसम्मतजातेरखण्डोपाधिनाऽन्यथासिद्भता *
एकत्वसङ्ख्यावत्वं तु जातो तवाऽपि नास्ति । 'अनेकस्य कथमेकत्वमिति चेत् । स्वभावादेवेति ब्रूमः ।
प्रधानुगतकार्यस्यानुगतकारणजन्यत्वनियमाद घटत्वावच्छिमबुब्दो घटत्वस्यानुगतस्यैव हेतुत्वौचित्यमिति चेत् ? न, लाघवेन व्यजकत्वानिमतानामुपाधीलामेव तत्त्वस्वीकारोचि
=... .....* जायलता *ननु व्यक्तिस्वरूपसामान्ये वर्तमानस्याऽपेक्षाबुद्भिविदोषविषयत्वरूपस्यैकत्वस्य गौणत्वेन न ततोऽनुगतधिय उपपत्तिरित्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह- एकत्वसङ्ख्यावत्त्वं तु जाती तब = नैयायिकस्य अपि नास्ति, जातेर्निर्गुणत्वात् । तद्वदेव प्रकृतेऽपि भावनीयम् ।
ननु सामान्यस्य व्यक्तितादात्म्ये व्यक्तीनामनेकत्वेन सामान्यस्याऽपि नामात्वप्राप्ती कथं तत्र दर्शि प्रामाण्यं सम्भवेदित्याशयेन परः शङ्कते- अनेकस्येति । तत्समाधानमिदं - स्वभावादेवेति वयं स्याद्वादिनो ब्रमः । व्यवहारनयेनाऽनेकस्यापि सतो वस्तुनः सङ्ग्रहनयग्राह्यस्वभावादकत्वमपि निराबाधम । अत एव स्याद्वादाविरोधेनैकत्रापि धर्मभेदोपरागेणकत्व-द्वित्वयोरविरोधमभिप्रेत्य 'एगे भवं दुगे भवमिति सोमिलप्रश्ने 'दबट्ठयाए एगे अहं नाणदंसणद्वयाए दुवे अहमिति (भग.सू.६४८) प्रत्युवाच परमेश्वरः । तत्र सङ्ग्रहनयाभिप्रायेण प्रधममुत्तरं द्वितीयञ्च व्यवहारनयाभिप्रायेणेति विभाव्यम् ।
अतिरिक्तसामान्ययादी नैयायिकः पुनराशते- अथेति । अनुगतकार्यस्य अनुगतकारणजन्यत्वनियमात् अन्यथा कार्याऽऽकस्मिकत्यापत्तः घटत्वावच्छिन्त्रबुद्धी = 'घटोऽयं चटोऽयमि'त्यनुगताकारप्रतीती, घटत्वस्य अनुगतस्येच प्रति घर्ट वर्त्तमानस्यैव विषयविधया हेतुत्वीचित्यम् । एतेनातिरिकानुगतसनादिसिद्धिरपि प्रदर्शिता सर्वत्रानुगताकारप्रतीतीनामेकविषयत्वौचित्यात् 'सत्सदि'ति 'द्रव्यमि' त्यादिप्रतीतिभिः सत्त्वद्रव्यत्वाद्यतिरिक्तानुगतसामान्यसिद्धेरिति गौतमीयाभिप्रायः ।
प्रकरणकृत्तन्निराकुरुते . नेति । अतिरिक्त-घटत्यादिसामान्य परिकल्प्या:पि सकलघटादिषु तज्ज्ञानार्थं कम्बुग्रीवादिमत्त्वादीनामुपाधीनां तद्व्यञ्जकत्वेन कल्पनावश्यकल्वे तु लाघवेन व्यञ्जकत्वाभिमतानां = जातिज्ञानजनकत्वेन योगाभीष्टानां, उपाधीनामेव तत्त्वस्वीकारीचित्यात = 'घटोऽयं. घटोऽयमित्याद्यनगताकारकप्रतीतिजनकत्वाइभ्युपगमस्य न्यायोचितत्वात्,
होने से उन दोनों के बीच समवाय सम्बन्ध का स्वीकार करना ठीक नहीं है। यहाँ यह भी शंका करना कि > 'संग्रह नय की दृष्टि से अनेक व्यक्तिस्वरूप सामान्य में अपेक्षाबुद्धिविशेष की विषयताविशेषात्मक एकत्व तो गौण है, न कि मुख्य । अतः अनुगत प्रतीति का निर्वाह गीण एकत्व से कैसे हो सकता है ?' -नामुनासिब है, क्योंकि नैयायिकसंमत घटत्व आदि सामान्य में भी एकत्व संख्या मुख्य नहीं होने से उसको भी घटत्व आदि सामान्य में गौण एकत्व का ही स्वीकार करना होमा । नैयायिकमतानुसार केवल द्रव्य में ही एकत्व संख्या आदि गुण रहते हैं । अतः जाति = सामान्य में अनुगत प्रतीति का निर्वाहक एकत्व गौण ही मानने को उसे मजबूर होना पड़ता है। जैसे व्यक्ति से अतिरिक्त सामान्य में गीण एकत्ल होने पर भी अनुगत प्रतीति की उपपत्ति नैयायिक की ओर से की जाती है, ठीक वैसे ही स्याद्वादी की ओर से भी व्यक्तिस्वरूप सामान्य में अपेक्षाबुद्धिविशेषविपयतात्मक गीण एकत्व का संग्रह नय की दृष्टि से स्वीकार कर के अनुगत बुद्धि की उपपनि की जा सकती है। यहाँ यह प्रश्न हो की -> 'व्यक्ति तो अनेक है, तब व्यक्तिस्वरूप सामान्य में गौण एकत्व भी कैसे हो सकता है ?' - तो इसका समाधान यह है कि स्वभावविशेष से ही अनेक में भी एकत्व की कल्पना की जा सकती है, क्योंकि मंग्रह नय की दृष्टि से घट, पट आदि पदार्थ सत् होने से एक ही है।
यायिकांमत नाति अप्रामाPिM अथानु. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जा सकता है कि --> "अनुगत कार्य सदा अनुगत कारण |से उप होता है। इस नियम के बल से 'अयं घटः', 'अयं घटः' इत्याकारक घटत्वावच्छिन्नविषयक बुद्धिस्वरूप अनुगत
कार्य का अनुगत कारण होना चाहिए और वह सभी घट में अनुगत एक घटत्व जाति के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। इस तरह 'यह घट है', 'यह घट है' इत्याकारक अनुगत बुद्धि का विषयविधया घटत्वात्मक अनुगत कारण जातिरूप में सिद्ध होता है । स्वयं एक होते हुए अनेक में रहने वाला ही अनुगत हो सकता है । अतः सामान्य = जाति व्यक्तिस्वरूप न हो कर उससे अतिरिक्त सिद्ध होता है"