Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 204
________________ ४०१ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ - का. * स्वणे पृथिवीत्वाङ्गीकार* अवयवनीलादिनैवाऽवयोवनीलोपपत्तो पर्थिवीत्वन न तत्समवायिकारणत्वम्, स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयवनीलादिमति रूपादौ नीलानुत्पत्तिस्तु जन्यसन्मात्रसमवायिकारणतावच्छेदकीभूतद्रव्यत्वाभावादेवेति तवैकदेशिनाऽपि स्वीकाराच्च । = = = =* जयलता *. - यचोक्तं 'स्वर्णपीतरूपस्यापि तद्वदेव निरुपाधिकत्वापत्तेरि ति तत्तथैव, स्वर्णस्य स्वनये पृथिवीत्वस्येचाऽङ्गीकारात् । न चैवमत्यन्तानलसंयोगेन तद्वपपरावत्तिप्रसङ्गो दर्निवार इति वाच्यम, वज्रवत स्वर्णादरपि रूपाऽपरावृत्तावपि पथितवीत्वस्य प्रतिक्षेपाऽयोगात् । तस्य तैजसत्वं तु कदाचिद् भास्वरशुक्लरूपरोपलम्भप्ररागात् । न च तस्य पृथिवीत्वे गन्धवत्त्वप्रसङ्गो बाधकः, अनुत्कटत्वेनापि तदुपपनेरिति दिक् । युक्त्यन्तरेण तमसः पृधिवीत्वमपाकरोति - अवयवनीलादिनैवेति । एवकारेण पृथिवीत्व विशिष्टावयवनीलादिव्यवच्छेदः कृतः । अवयविनीलोत्पत्ती = अबयविनीलाद्यपपत्तिसम्भावनायां, पृथिवीत्वेन रूपेण न तत्समवायिकारणत्वं = अवयविनीलादिसमवायिकारणत्वम् । समवायेनाऽवयविनि नीलादिरूपं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वरसम्बन्धेनाऽवयवनीलादे: कारणत्वेनाचयविनीलोत्पादनिर्वाह तादात्म्येन पृथिवीत्वेन पृथिव्याः समाविकारणत्वा कल्पनात ।। ननु अवयवनीलरूपं यथा स्वसमवापिसमवेतत्वसम्बन्धेनाऽवयविनि वर्तते तथा स्वस्मिन्नपि वर्तते स्वस्य = अवयवनीलरूपस्य समवायिनि = अवयवेवयविन इव स्वस्याऽपि समवेतत्वा विशेषात् । ततश्चात्ययविनीवाऽवयवनीलरूपेऽपि नीलरूपोत्पत्तिः प्रसज्येत । तदपाकरणाय समवायेन नीलरूपं प्रति तादात्म्येन पृधिन्याः सभवायिकारणत्वस्याऽऽवश्यकत्वादित्याशङ्कापराकरणायाऽह-स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेने । स्वपदेनाऽवयवनीलादिग्रहणम् । अवयवनीलादिमति रूपादौ = अबयवनीलादौ, नीलानुत्पत्तिः = नीलादिरूपाद्यनुत्पादः तु जन्यसन्मात्रसमचायिकारणतावच्छेदकीभूतद्रव्यत्वाभावादेवेति । समवायसम्बन्धावच्छिन्न-जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्यावच्छित्रकार्यतानिरूपिततादात्म्यसम्बन्धावछिन्नसमवायिकारणतावच्छेदकधर्मस्य दव्यत्वस्य चिरहादेव, उपपद्य इति शेषः । अवयवनीलरूपस्य स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन स्वस्मिन् सत्त्वेऽपि समवाविकारणतावच्छेदकताच्छेदकीभूतसमबायसम्बन्धेन जन्यसन्मात्रवृत्तिबजात्यावच्छिन्ननिरूपितसमवायिकारणतावच्छेदकस्य द्रव्यत्वस्य विरहादेव तत्र नीलरूपं नोपजायते, समवायेन जन्यभावमात्र प्रति तादात्म्येन द्रव्यस्य सभवायिकारणत्वात् । एलेनाऽ. वयवनीलादिनवाऽवयविनीलाधुतात्तिकल्पने जन्यभावमात्रस्य ससमवापिकारणत्वनियमो व्याहन्ये तेत्यपि परास्तम् । तवैकदेशिना = नैयायिकैकदेशीयेन, अपि स्वीकाराचेति । ततश्चाऽन्धकाराययवनीलरूपादेवावयवितमोनीलरूपोत्वादसम्भवे तमसि पृथिवीत्व 3E जन्य पृथ्वी और वायु दोनों में अनुप्ण अशीत स्पर्श उत्पन्न होता है फिर भी अनुप्ण अशीत स्पर्श का समवाषिकारणतावच्छेदक न तो पृथ्वीत्व है न तो वायुत्व है, किन्तु विजातीय (=पाकज) अनुष्ण अशीत स्पर्श का ही समवायिकारणतावच्छेदक पृथ्वीत्व है। ठीक वैसे ही विजातीय नील रूप का ही पृथ्वीव समवायिकारणतावदक है और विजातीय नील रूप का समस्त्व समवायिकारणतावच्छेदक है। अतः अन्धकार में तमस्त्वावशिवकारणतानिरूपित कार्यता वाले विजातीय नील रूप की उत्पत्ति होने में कोई दोप नहीं है - ऐसा भी अनेक विद्वानों का कथन है। (वसाप से नीलाकारणता अनावश्यक - जैयायिकएकदेशीय अवयधनी. इति । इसके अतिरिक्त एक बात यह भी विचारणीय है कि अवयवी में नीलरूप की उत्पत्ति अवयव के ; नील रूप से ही मुमकिन है, तो फिर पृथ्वीत्वेन रूपेण नीलसमवायिकारणता की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है? कपाल में नील रूप है वही स्वसमचायिसमवेतत्व सम्बन्ध से अवयवी घट में नील रूप को उत्पन्न करेगा । स्व = कपालनीलरूप, उसका समवायी = कपाल, उसमें समवेत है घट । अतः स्वसभवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से कपालनीलरूप घट में रहेगा और वहाँ समवाय सम्बन्ध से नील रूप उत्पन्न होगा। इस तरह कार्य-कारणभाव मुमकिन होने से पृथ्वीत्व को नीलरूपसमवायिकारणतावच्छेदक मानने की कोई जरूरत नहीं है। हाँ यह शंका हो सकती है कि → 'कपालादि अवयव का नील रूप जैसे स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से घट में रहता है, ठीक वैसे ही अपने में भी उसी सम्बन्ध से रह सकता है, क्योंकि स्व = पालादि का नील रूप, उसका समवायी कपालादि, उसमें घट की भाँति कपालादिनीलरूप भी समवेत है । अत: घट की भाँति कपालादिनीलरूप में भी रूप की उत्पत्ति होने लगेगी। इसके निराकरणार्थ पृथ्वीत्व को नील रूप का समवायिकारण१. जन्यसत्तायाः सामानाधिकरण्यन जन्यत्वविशिष्टसत्तारूपत्वात, विशिष्टस्य च जातित्वाऽसम्भवादित्धमुक्नम् ।

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