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४१७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड:-२ का.५
* उपादानप्रत्यक्षकारणतामीमांसा *
अस्तु वा लाघवादुपादानप्रत्यक्षस्य स्वजन्यकृतिविशेष्यत्वसम्बन्धेनैव हेतुत्वम् । न च चैत्रकृतेरप्यन्तत: कालोपाधितयाऽपि मैत्रोपादानप्रत्यक्षजन्यतयाऽतिप्रसङ्गः, सामानाधिक
* जयलता * द्वयणुकत्वादेराकस्मिकत्वप्रसङ्गभिया तदाश्रयजनकोपादानप्रत्यक्षाश्रयत्वेनेश्वरसिद्धिरिति वक्तव्यम्, अस्मन्नय बिनसापरिणामप्रयो. ज्यत्वेन तदाकस्मिकत्वाच्यत्वात् ।
प्रौहिवादेन प्रकरणकृदाह- अस्तु वेति । लाघवात् = कारणतावच्छेदकधर्मबाहुल्यमच्यवप्रयुक्तलाघवात्, उपादानप्रत्यक्षस्य स्वजन्यकृतिविशेष्यत्वसम्बन्धेनैवेति ण्वकारेण स्वविशेष्यत्तासम्बन्धव्यवच्छेदः कृतः । समवायेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्याबच्छिन्न प्रति हेतुत्वम् । सम्बन्धकुक्षिप्रविष्टजन्यपदं प्रयोज्यपरं, ज्ञानस्येच्छाजनकत्वात, चिकीर्षायाः कृतिजनकत्वात् । कृते सम्बन्धकुक्षी निवेशेन चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षे सति मैत्रीयप्रयत्नादुपादेयोत्पत्त्यतिप्रसङ्गानवकाशः । कृती कारणत्वकल्पनाया अनावश्यकत्वेन लाघवञ्च । य इष्टसाधनत्वादिना जानाति स चिकीर्षति यतते नियमेन कपालप्रत्यक्षजन्यचिकीर्षया कपाल. विशेष्यककृतिजननदशायामेव घटोपादानगोचरकुलालसमवेतप्रत्यक्ष स्वजन्यजन्यकृतिविशेष्यतासम्बन्धेन कपाले वर्तते तदैव तत्र समवायेन घटोऽपि जायत्त एवेति कृत्यनुत्पादावस्थायामुपादानप्रत्यक्षे सत्यपि कार्यानुत्पादे प्यन्वयव्यभिचारानवकाशः, कारणतावच्छेदकसम्बन्धेनोपादाने कारणस्यैवाऽसत्त्वादिति भावः ।
ननु 'जन्यानां जनकः कालः' (कारि.४५) इति वचनात् मैत्रीयकपालप्रत्यक्षकाले या तन्तुगोचरचैत्रीयकृतिः भविष्यत्ति तं प्रति घटोपादानविषयकमैत्रीयप्रत्यक्षकालस्य कारणत्वं तादृशकालोपाधिनया मैत्रसमवेतकपालप्रत्यक्षस्याऽपि कारणत्वमिति तन्तुविशेष्यकचैत्रसमवेतकृतेः कालोपाधितया कपालगोचरमैत्रसमवेतप्रत्यक्षजन्यतया समवायन चैत्रीयपटं प्रति स्वजन्यकृतिविदोष्यतासम्बन्धन कपालगोचरमैत्रसमवेतप्रत्यक्षस्याऽपि कारणत्वं प्रसज्येत । न च कालोपाधितया जन्यजनकभावस्य न प्रामाणिकत्वमिति वाच्यम्, सूर्योदयसमये एव भुआनस्य भुजिक्रियां प्रति कालविशेषणतया सूर्योद्गमस्य हेतुत्वस्याउनपलपनी- ! यत्वात्. अन्यथा ततः प्रागपि भोजनं प्रसज्येतेति नोक्तसम्बन्धेनोपादानप्रत्यक्षस्य कारणत्वं घटामश्वतीत्याशङ्कामरा क्षिपति - न चेति । शङ्काग्रन्धस्य भावितत्वात्स्पष्टत्वमेव । अतिप्रसङ्गनिराकरणाय हेतुमाह - सामानाधिकरण्यप्रत्यासत्त्येति । से तो उपादानप्रत्यक्ष हेतु ही नहीं हो सकता । अतः तादृश उपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविश्या ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। कारण असिद्ध होने पर कारणश्रय की कैसे सिद्धि हो सकती है ? अतः ईश्वर की कल्पना केवल कल्पना है, न कि वास्तविकता।
उपादानप्रत्यक्षकाता में लायत अस्तु वा. इति । अथवा उपादान प्रत्यक्ष को उपादेय का कारण माना जा सकता है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने में लापन है। लाघव यह है कि उपादान प्रत्यक्ष को जन्य भाव का कारण मानने पर इच्छा, प्रयत्न का कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में निवेश करने से ही अन्वयव्यभिचार का वारण हो सकता है । वह इस तरह - उपादान के प्रत्यक्ष से उपादानविशेप्यक प्रयत्न उत्पन्न होता है । उपादानप्रत्यक्ष के बिना तद्विशेप्यक प्रयत्न नहीं होता है। अतः उपादानविशप्यक प्रयत्न के प्रति उपादानप्रत्यक्ष कारण होता है। उसी उपादान में समचाय सम्बन्ध से उपादेय उत्पन्न होता है । अतः समवाय सम्बन्ध से कार्य के प्रति उपादानप्रत्यक्ष स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध सं हेतु कहा जा सकता है। उदाहरणरूप से कपालप्रत्यक्ष स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध से कपाल में रहेगा और वहाँ समवाय सम्बन्ध से घट उत्पन्न होता है। मगर जब तक कुम्हार कपाल में प्रयत्न नहीं करता है, तब तक स्वजन्यविशेप्यतासम्बन्ध से कपालप्रत्यक्ष कपाल में नहीं रहता है, क्योंकि स्व = कपालप्रत्यक्ष से कपालविशेप्पक प्रयत्न उत्पन्न ही नहीं हुआ है। इस तरह से उपादानविशेष्यक प्रयत्न का कारणतावच्छेदकसम्बन्ध में प्रवेश करने से स्वतन्त्र कारणता से स्वीकार का गौरव भी अप्रसक्त है तथा चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष होने पर मैत्रीय प्रयत्न से उपादेय की उत्पत्ति के अतिप्रसङ्ग की भी सम्भावना नहीं है, क्योंकि चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष से मैत्रीय उपादानविष्यक प्रयत्न जन्य नहीं होने से स्वजन्यकृतिविशेप्यतासम्बन्ध से चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष प्रयत्न उपादान में नहीं रहता है । अत: चैत्रीयत्व आदि का उपादानप्रत्यक्ष के विशेषणविषया निवेश करने का गौरव भी अनावश्यक है । अतः स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध से उपादान प्रत्यक्ष को समवाय सम्बन्ध से उपादेय का कारण मानना युक्त है।
* ईश्वरप्रत्यक्षा में स्वमन्यप्रयत्नविशेष्यतासम्बन्ध से कारणता नामुमकिन * न च चैत्र, इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि ->"समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति ।