Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 252
________________ ४४९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का. ५ * ईशज्ञानस्य गुणादिविषयकत्वमसिद्धम् * तज्ज्ञानस्य गुणाद्यविषयकत्वे लाघवं द्रव्यत्वेन जन्यसत्त्वेन पृथक्कारणत्वाऽकल्पनात् । 'गुणादावुपादानप्रत्यक्षविरहेणैव जन्यसदनुत्पत्ते 'रित्यप्येके । तच्चिन्त्यम्, तथापि कुलालाघुपादानप्रत्यक्षस्य गुणादौ सत्त्वेन द्रव्यत्वेन जन्यसत्वेन कार्य-कारणभावस्याऽऽवश्यक* जयलता ॐ = जगन्नाथसाक्षात्कारस्य गुणाद्यविषयकत्वे अभ्युपगम्यमाने सति लाघवं कुतः ? इत्याह- द्रव्यत्वेन जन्यसत्त्वेन जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजात्येन पृथक्कारणत्वाऽकल्पनादिति । तज्ज्ञानस्य द्रव्यमात्रविषयकत्वे विषयतासम्बन्धेन गुणाद्यवृत्तित्वेन गुणादौ समवायेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्यावच्छिन्नोत्पादवारणाय समवायसम्बन्धावच्छिन्न- जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजात्यावच्छिन्नकार्यतानिरूपित तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतायां द्रव्यत्वावच्छिन्नत्वाऽकल्पनेन लाववात् समवायेन जन्यसन्भात्रं प्रति विषयतया | ज्ञानस्य कारणत्वमित्यवश्यक्लृप्तकार्य कारणभावेनैव तद्वारणसम्भवादिति । एतेन ईश्वरज्ञानीयविषयतायां सङ्कोचे मानाभाव इत्यपि | प्रत्युक्तम्, लाघवेनैव तत्सिद्धेः, तस्य सर्वविषयकत्वे प्रयोजनाभावाच । = अत्रैवकेषां मतमाह गुणादी विषयतासम्बन्धेन उपादानप्रत्यक्षविरहेण एवं तत्र समवायेन जन्यसदनुत्पत्तेः जन्यसदुत्पादापादानाऽसम्भवात् । समवायेन जन्यसन्भात्रं प्रति विषयतया प्रत्यक्षस्य न कारणत्वं किन्तूपादानप्रत्यक्षस्यैव । त गुणादौ नास्ति, गुणादौ कस्यचिदप्युपादानत्वाऽभावात् । सामग्रीवैकल्यादेव न तत्र जन्यसदुत्पादप्रसङ्गः । अतः शम्भुप्रत्यक्षस्य सर्वविषयकत्वेऽपि न जन्यसन्मात्रं प्रति तादात्म्येन द्रव्यस्य पृथक्कारणत्वकल्पनाया आवश्यकत्त्वमितीश्वरस्य सर्वज्ञत्वं | बायकाभावेनैव सेत्स्यतीति पराशयः । अत्र स्वकीया स्वरसप्रदर्शनार्थं प्रकरणकृदाह- तचिन्त्यमिति । चिन्ताबीजमेव प्रदर्शयति तथापीति । गुणादी विषयतया ईश्वरीयस्योपादानप्रत्यक्षस्याःसत्त्वेऽपीत्यर्थः किं इत्याह कुलालाघुपादानप्रत्यक्षस्य 'इदं नीले कपालं घटोपादानमित्याद्याकारकस्य या 'इदं कपालं कपालनीलरूपस्योपादानमित्याद्याकारकस्य कुलालादिसमवेतस्योपादानगोचरसाक्षात्कारस्य, विषयतासम्बन्धेन गुणादौ = कपालनीलरूपादौ सत्त्वेन तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणतावच्छेदकी भूतेन द्रव्यत्वेन समवायसम्बन्धावच्छिनकार्यतावच्छेदकीभूतेन जन्यसत्त्वेन जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्येन कार्य कारणभावस्य = हेतुहेतुमद्भावस्य गुष्णादी समवायेन जन्यसदुत्पादनिवारणकृते आवश्यकत्वात् = अवश्यमङ्गीकार्यत्वात् परेण । इत्थञ्च तत्प्रत्यक्षस्य सर्वविषयकत्वे = = = में लाघव क्या है ? जिसकी वजह आप उसे गुणादिविषयक मानने में हिचकिचाहट करते हैं ? - ठीक नहीं है, क्योंकि ईश्वरज्ञान को गुणादिविषयक भी मानने पर विपयतासम्बन्ध से वह गुणादि में भी रहेगा । ऐसा होने पर गुणादि में भी समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् पदार्थ उत्पन्न होने लगेगा, क्योंकि समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् के प्रति विघयता सम्बन्ध से ज्ञान कारण होता है । इस आपत्ति का निवारण करने के लिए समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से द्रव्य को कारण मानना होगा । गुणादि द्रव्यात्मक नहीं होने से वहाँ समवाय सम्बन्ध से जन्य सत् की उत्पत्ति नहीं होगी । इस तरह ईश्वरज्ञान को सर्वविषयक मानने पर जन्य सत् के प्रति द्रव्यत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना करनी होगी। जब कि ईश्वरज्ञान को द्रव्यमात्रविषयक मानने पर जन्य सत् पदार्थ के प्रति इव्यत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना अनावश्यक बनती हैं, क्योंकि ईश्वरप्रत्यक्ष विषयतासम्बन्ध से केवल द्रव्य में ही रहता है, जहाँ सभी जन्य सत् = द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं । अतः गुणादि में जन्य सत्तावान् पदार्थ की उत्पत्ति होने की कोई संभावना ही नहीं है, जिसके निवारणार्थ जन्यसत्त्व और द्रव्यत्व से स्वतंत्र कार्य कारणभाव की कल्पना आवश्यक हो । अतः इस लाघव से भी ईश्वरज्ञान को उपादानद्रव्यमात्रविषयक मानना ही उचित है । इस परिस्थिति में ईश्वर सर्वज्ञ कैसे हो सकेगा ? गुणादा. इति । यहाँ अन्य विद्वानों का यह कथन है कि " समवाय सम्बन्ध से जन्य सत्तावान् के प्रति विषयता सम्बन्ध से केवल प्रत्यक्ष कारण नहीं है, किन्तु उपादान प्रत्यक्ष ही कारण है । गुणादि तो किसीका भी उपादान कारण नहीं है, क्योंकि केवल अन्य ही उपादान कारण होता है । अतः गुणादि में विषयतासंबंध से उपादानप्रत्यक्ष रहता ही नहीं है, तब उसमें जन्य भाव की उत्पत्ति के निवारणार्थं द्रव्यत्वेन पृथक् कारणता की कल्पना की क्या आवश्यकता है ? अतः ईश्वरप्रत्यक्ष को सर्वविषयक मानने पर भी जन्यभाव और द्रव्य के बीच पृथक् कार्य कारणभाव की कल्पना अनावश्यक है । उपादानप्रत्यक्ष तो विषयतासम्बन्ध से केवल अन्य में ही रहता है" ← मगर यह अयुक्त प्रतीत होता है, क्योंकि ईश्वरीय प्रत्यक्ष को सर्वविषयक मान कर समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति विपयता सम्बन्ध से उपादानप्रत्यक्ष को कारण मानने पर भी कुलालादि का

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