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४६५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ • का.७ * एकत्र निन्यानिन्यादिप्रतीतेः सार्वजनीनत्वम् * किन्तु ब्दयं न विरुदं = न परस्परानधिकरणाधिकरणकम् । तत्र हेतुगर्भ विशेषणमाः ‘एको'ति, एकाश्रयवृत्तित्वं तदर्थः । न चाऽयं हेतुरसिब्दः, एकौत घटादौ नित्यानित्यादिप्रतीते: सार्वजनीनत्वात् । मनु नेयं प्रमा तत्र विरोधवाहकप्रमाणपरम्परासत्वेन विषयबाधात् । न च धमाद वस्तु
=* जयलवा *-..... -- | व्याख्यामहति ।
तह किम्स्वरूपं तव्याख्यानं ? इत्याशड़कायामाह - किन्विति । पक्षमाह - द्रयमिति । नित्यानित्यत्वादियग्ममिति तदर्थ इति वक्ष्यति । साध्यं निर्दिशति - न विरुद्धं = न परस्परानधिकरणाधिकरणकमिति । परस्परानधिकरणनिष्ठाधिकरणतानिरूपकभिन्नत्वं साध्यम् । तत्र = तत्सिद्धौ, हेतुगर्भ = हेतुघटितं, विशेषणमाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरपादा इति शेषः । 'एकत्रे'ति एकाश्रयवृत्तित्वं = एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वं तदर्थः = विशेषणवाचकपदार्थः । प्रयोगश्चात्रैवम् - द्वयं न परस्परानधिकरणाधिकरणकं एकाधिकरणवृत्तित्वात् रूपरसयोरिव । न च अयं = एकाधिकरणवृत्तित्वलक्षण: हेतुः असिद्धः = स्वरूपासिद्धिदोषग्रस्तः पक्षतावच्छेदकीभूतवैमत्याधिकरणतावच्छिन्ननिरूपितवृत्तित्वशून्य इति यावत् संशयतात्पर्यम् । तदपाकरणे हेतुमाह - एकत्रैवेति । एवकारेण भिन्नाधिकरणव्यवच्छेदः कृतः । घटादी धर्मिणि नित्यानित्यादिप्रतीतेः = नित्यत्वाऽनित्यत्व-भेदाभेदादिप्रकारकधियः सार्वजनीनत्वात् । तथा च नित्यत्वानित्यत्वादियुग्मे एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वसिद्धी न स्वरूपासिद्धिकवलितत्वे हेतोरिति नाम ।
___ननु न इयं = 'घटो द्रश्यत्वादिना नित्यो घटत्वादिना चाऽनित्य' इत्यादिस्वरूपा प्रमा । प्रदर्शितप्रतीतेरामात्वसाधनार्थ हेतुमाह - तत्र = नित्यत्वानित्यत्त्व-भेदाभेद-सत्त्वासत्त्वादिधर्मयुग्मे, विरोधग्राहकप्रमाणपरम्परासत्त्वेन तस्या विषयबाधादिति । नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुग्मे एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वाऽवगाहित्वस्य बाधादित्यर्थः । ततः किं ? इत्याह - न
तथापि तादृश अन्वयत्रोध यहाँ इसलिए नहीं स्वीकार्य हो सकता कि अविरुद्धत्यरूप से अविरुद्ध पदार्थ को सिद्ध करना यहाँ ग्रन्धकार को अभिमत नहीं है । आशय यह है कि यहाँ ग्रन्थकार की इच्छा अबिरुद्धत्वप्रकारक है, सिसाधयिषा का प्रकार = विधेय अविरुद्धत्व है और यहाँ अविरुद्धपदार्थ में उसका अन्वय करने का मतलब यह होगा कि अविरुद्धपदार्थ को उद्देश्य करके अविरुद्धत्व का विधान करना । मगर ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि तब उद्देश्यतावच्छेदक और विधेय एक बन जाने से तादृश अन्वयत्रोध नहीं हो सकता । प्रसिद्ध को उद्देश्य बना कर अप्रसिद्ध का विधान किया जाता है और उद्देश्यतावच्छेदक ज्ञात होने पर ही उद्देश्य प्रसिद्ध हो सकता है। मगर विधेय को ही उद्देश्यतावच्छेदक बनाने पर विधेय अप्रसिद्ध होने से । तदभिन्न उद्देश्यतावच्छेदक भी अप्रसिद्ध बनेगा, फलतः उद्देश्य ही अप्रसिद्ध हो जायेगा, तब तादृश विधान कैसे हो सकेगा ? अन्यथा 'घटो घटः' इत्यादि वाक्यप्रयोग भी शिष्ट बनने की आपत्ति आयेगी ।
किन्नु. इति । इसलिए सातवीं कारिका के प्रथम पाद का व्याख्यान ऐसा करना चाहिए कि नित्यत्वानित्यत्वादि दो धर्म विरुद्ध = परस्परानधिकरणाधिकरणक नहीं है। कारिका में दर्शित 'एकत्र' ऐसा 'द्वयं' का विशेषण हेतुगर्भित है, जिसका अर्थ है एकाधिकरणवृत्तित्व । अतः अनुमानप्रयोग इस तरह होगा कि नित्यत्व-अनित्यत्व आदि दो धर्म परस्पर के अनधिकरण में रहने वाले होते नहीं हैं, क्योंकि वे एकाधिकरण में रहते हैं। यहाँ दो धर्म पक्ष है, परस्पर के अनधिकरण में अवृतित्व साध्य है और एकाधिकरणवृत्तित्व हेतु है । एकाधिकरण में रहनेवाले दो धर्म परस्पर के अनधिकरण में ही रहे यह तो कैसे मुमकिन हो सकता है ? यहाँ यह शंका करना कि → “नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्म में, जो पक्ष है, एक अधिकरण • से निरूपित वृत्तिता ही नहीं होने से हेतु स्वरूपासिद्धि दोप से कलंकित है, तब उसके द्वारा स्वाभीष्ट साध्य की सिद्धि ': कैसे हो सकती है -
एक धर्मी में जित्यत्वाऽनित्यत्वोभयप्रतीति प्रामाणिक एकत्र, इति । भी नामुनासिब है, क्योंकि एक ही घट आदि धर्मी में नित्यत्त्व और अनित्यत्व, भेद और अभेद आदि युगल की प्रतीति सभी लोगों को होती है। 'घट मृत्व, इयत्व आदि रूप से नित्य है और घटत्व आदि रूप से अनित्य = नाशप्रतियोगी है' इत्यादि प्रतीति तो सर्वजनप्रसिद्ध है, जिससे एक ही धर्मी में नित्यत्व-अनित्यत्व आदि । होती है। यहाँ यह संका नहीं करनी चाहिए कि -> "यह प्रतीति प्रमा नहीं है किन्तु भ्रमात्मक है । यह प्रतीति भ्रमात्मक