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* अनेकान्तवादे विरोधपरिहारप्रकारः *
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सिद्धिरित्याशङ्कायामभिदधति असदिति, अत्र विरोध इति शेषः । सत्पदच भावपरम् । तथा च विरोधे प्रमाणसिदे रसत्त्वादेक वृत्तित्वं निराबाधमिति हार्दम् । न हि जलानलयोरिव तयोर्विरोध: साक्षादनुभूयते, रूपरसयोरिव प्रत्युतैकवृत्तित्वस्यैवाऽऽनुभविकत्वात् । न वा छायातपयोरिव परस्परपरिहारेण वर्तमानत्वं, एकदैवानुभवात् । नाऽपि घट- तदभावयोरिवैकज्ञानानन्तरमज्ञायमानत्वं, नित्यत्वादिज्ञाने सत्यप्यनित्यत्वादेर्ज्ञानात् । स्वभावतो विरोधाभिधानं तु स्ववासनामात्रविजृम्भितम् ।
* जयलता
च भ्रमाद् वस्तुसिद्धिः, अतिप्रसङ्गात् । दर्शितप्रतिश्रमत्वां ततो नित्यानित्यत्वादिद्वन्द्वे एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वसिद्धिरिति स्वरूपासिद्धिदोषस्य वज्रलेपायमानत्वमेवेति आशङ्कायां सत्यां श्रीहेमचन्द्रसूरिप्रवरा अभिदधति असदिति । सत्पदच असच्छब्दघटकीभूतं सत्पदञ्च, भावपरं = सत्त्वविषयकबोधजननेच्छयोच्चरितम् । तथा च = सप्तम्यन्तविरोधपदाध्याहारे सत्पदस्य सत्त्वे लक्षणायाञ्च विरोधे प्रमाणसिद्धेरसत्त्वात् = नित्यत्वाऽनित्यत्वादिविरोधविषयकप्रमाणसिद्ध्यभावात्, नित्यत्वानित्यत्वादियुगललक्षणे पक्षे एकवृत्तित्वं एकाधिकरणनिरूपितवृत्तित्वलक्षणं लिङ्गं निराबाधं = न स्वरूपासिद्धं इति हार्दम् । विरोधविषयकप्रमाणसिद्धच भावमेव प्रकरणकृत् समर्धयति न हीति । शेषं सुगमम् । वध्यघातकभाव - परस्परपरि हारसहानवस्थानलक्षणप्रसिद्धविरोधाऽसम्भवेऽपि नित्यत्वानित्यत्वादिधर्मयुगले स्वभावत एव विरोधो भविष्यतीत्याशङ्कायां प्रकरणकारः प्राह् – स्वभावतः तत्र विरोधाभिधानं तु प्रसिद्धप्रत्यक्षतर्कादिप्रतिकूलत्वेन स्ववासनामात्रविजृम्भितं = एकान्तवादाऽहितमिथ्यासंस्कारवृन्दविलासमात्रम् । इत्थञ्चाञ्च प्रमाणेन विरोधाऽसिद्धी न हेतोरेकाश्रयवृत्तित्वलक्षणस्य स्वरूपासिद्धत्वं, येन नित्यानित्यत्वादी परस्परानधिकरणाधिकरणकत्वाभावासिद्धिः स्यादिति तात्पर्यम् ।
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होने का कारण यह है कि नित्यत्व- अनित्यत्व आदि धर्म में विरोधग्राहक प्रमाणों की परम्परा विद्यमान होने से उक्त प्रतीति का विषय बाधित होता है । विरोध का मतलब यह है कि एक अधिकरण में अवृत्तित्व । नित्यत्व- अनित्यत्व आदि धर्म में एकाधिकरणवृत्तित्त्वाऽभाव का प्रमाण से भान होने पर एकाधिकरणवृत्तित्व की प्रतीति के विषय का बाध होने से वह भ्रमात्मक सिद्ध होती है । भ्रम मे से तो नित्यत्व-अनित्यत्व आदि युगलधर्म में एकाधिकरणवृत्तित्व की सिद्धि नहीं की जा सकती" - क्योंकि विरोधगोचर प्रमाण ही असिद्ध है । कारिका में जो 'असत्' शब्द है उसका घटक सत्शब्द भावपरक है यानी सत्त्व का बोधक है । अतः असत्पद का अर्थ असत्त्व = अविद्यमानता होगा। 'बिरोधे' पद का अध्याहार करने पर समुदित अर्थ यह होगा कि विरोधविषयक प्रमाणसिद्धि अविद्यमान होने से नित्यत्व-अनित्यत्व आदि युगल धर्म में हेतु 'एकत्र' = एकाश्रयवृत्तित्व निराबाध है । अतः स्वरूपासिद्धि दोष का अवकाश नहीं है । जैसे एक धर्मी में अग्नि और पानी के बीच विरोध का साक्षात् अनुभव होता है, वैसे नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्मों के बीच विरोध का साक्षात् अनुभव नहीं होता है, बल्कि जैसे रूप और रस में एक ही घट आदि धर्मी से निरूपित वृत्तिता का भान होता है वैसे नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म में भी घट आदि एक धर्मी से निरूपित वृत्तिता का भी भान स्वरसतः होता है। नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म में छाया और प्रकाश की भाँति परस्परपरिहारनामक विरोध भी नहीं है, क्योंकि एक ही काल में वे एक धर्मी में प्रतीत होते हैं। एक काल में एक अधिकरण में रहने वाले धर्म में परस्परपरिहार विरोध नहीं होता है । यहाँ नित्यत्व और अनित्यत्व के बीच, घट और घटाभाव की भाँति, एक ज्ञान के बाद अज्ञायमानत्वात्मक विरोध भी नहीं है। मतलब यह है कि भूतल में घटज्ञान होने के बाद अनन्तर क्षण में वहाँ घटाभाव का भान नहीं होता है और वहाँ घटाभाव का भान होने पर अव्यवहित उत्तर क्षण में वहाँ घट का बोध नहीं होता है। अतः घट और घटाभाव परस्पर विरोधी कहे जाते हैं । मगर नित्यत्व और अनित्यत्व के लिए ऐसी बात नहीं है । घटादि में द्रव्यार्थादेश से द्रव्यत्वादिना नित्यत्व का ज्ञान होने पर भी पर्यायार्यादेश से घटत्वादिना अनित्यत्व का अबाधितरूप से ज्ञान होता है । इसलिए नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म में घट और घटाभाव आदि की भाँति विरोध का उद्भावन नहीं किया जा सकता। यहाँ यह तो नहीं कहा जा सकता कि -> 'नित्यत्व और अनित्यत्व के बीच स्वभावतः विरोध है' - क्योंकि ऐसा कहना केवल अपने दर्शन एकान्तबाद से आहित वासना का ही विलास है । इसमें कोई तर्क या तथ्य नहीं है। विरोध का दूसरा कोई प्रकार ही नहीं है, जिसके अनुरोध से एक धर्मी में नित्यत्व और अनित्यत्व आदि धर्म के रहने पर विरोध का उद्भावन किया जाय। वैसा करना अपनी बुद्धि की विडंबना है, दूसरा कुछ नहीं ।
प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थ... नियम में परिष्कार की आवश्यकता