Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 270
________________ ४६७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. * प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्त्रार्थबोधकत्वनियमविचारः * अथ प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वनियमात् कथमसत्वे पञ्चम्यान्वय: इति चेत् ? त, तवापि 'तेषां मोहः पापान दाढत्य त:' (.सू.४/9/६) इति सूत्र अमुढस्येतरोत्पत्त्यभावादित्यर्थकरणेन निपाताद्यातिरिक्तस्थल एवं वस्तुत: प्रकृतित्वं नेकमिति विशिष्यैतदव्युत्पत्तिस्वीकारेऽत्र नेयं व्युत्पत्ति: किन्तु भिवेत्यपि, बोध्यम् । अथ उक्तयाऽनया दिशा नवयो दृष्टचर इति त ? तात्पर्यसत्त्वे किमदर्शनमात्रेण ! =* जयलता न नैयायिकः शङ्कते - अधेति । 'चेदित्यनेनाऽस्या न्चय: । प्रत्ययानां स्वादीनां प्रकृत्यर्यान्वितस्वार्थबोधकत्वनियमात = स्वप्रकृतिपदार्थांन्चितस्वार्थबोधजननव्युत्पत्तेः कथं असत्वे - पञ्चमी विभक्त्यप्रकृतिभूताऽसत्पदार्थे, पञ्चम्यान्वयः = प्रमाणप्रसिद्धिप्रकृतिकपञ्चम्यर्थस्यान्वयः प्रमाणप्रसिद्धयसत्त्वादित्यन्वयबोधः प्रदर्शितनियमविरोधान्नैव स्वीकर्तुं युज्यत इति पराभिप्रायः । प्रकरणकृत्तत्रिराकरुते - नेति । तब = नैयायिकस्य अपि 'तेषां मोहः पापीयान नामूढस्येतरोत्पत्ते' रिति सूत्रे = न्यायसूत्रचतुर्थाध्यायसूत्रे, 'अमूढस्येतरोत्पत्त्यभावादित्यर्थकरणेनेति । प्रदर्शितसूत्रे 'तेषां = रागद्वेषमोहाना रागमोहयोर्देषमोहयो; मध्ये मोहः पापीयान् = बलवद्वेषविषयः, अमूढस्येतरोत्पत्त्यभावादि' त्यों व्याख्यातः । अत्र पञ्चमीविभक्तिप्रकृतिभूतमुत्पत्तिपदं न तु नञ्पदं तथापि नजाभावेनाऽन्वितपञ्चम्यान्वयस्याऽभ्युपगतत्वेन न तादुनियमस्य सार्वत्रिकत्वं कल्पनामर्हति । प्रकृतव्याख्यानबलेन निपातायऑतिरिक्तस्थल एवैतनियमस्वीकारादिति । अमावस्य निपातार्थत्वेन तदन्वितपञ्चम्यर्धान्वयस्य तादृशव्युत्पनिविषयातिक्रान्तत्वान्नायं दोषः, प्रत्ययार्थे प्रकृतिनिपाताद्यतिरिक्तान्चियोऽव्युत्पन्न इत्येवोक्तनियमतात्पर्यात् ।। अत एव 'नानुपमृद्य प्रादुर्भावात' (न्या.सू. ४/१/) इत्पत्र न्यायसूत्रे अनुपमृद्य प्रादुर्भावाभावादित्यों व्यास्त्यातः । ईदृशे स्थले प्रकृत्यान्वितनार्थ-विभक्त्यर्थयोरन्वयस्वीकारात् । ततश्च प्रमाणप्रसिद्धव्यसत्त्वादिति न्यारल्यानं साध्वेव । पञ्चम्यर्धश्चात्र | ज्ञानज्ञाप्यत्वं यथा वह्निमान् धूमादित्यत्र धूमज्ञानज्ञाप्ययह्निमानितियत् । वस्तुतः प्रकृतित्वं नैकं अननुगतत्वादिति विशिष्य = विशेषरूपेण, एतद्व्युत्पत्तिस्वीकारे = परिष्कृतनियमाङ्गीकार, अत्र = असत्प्रमाणप्रसिद्भित इति स्धले, न इयं = 'प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्धबोधकत्वरूपा व्युत्पत्तिः किन्तु भिन्नैव - प्रकृत्यान्वितनञर्थ-विभक्त्यर्थान्वयनियमरूपैव इत्यपि बोध्यम् । ततश्च न प्रकृते क्षतिरित्यर्थः । परः शङ्कते-अथेति । उक्तया अनया - प्रकृत्पर्धान्वितनञर्थविभक्त्यर्धयोरन्वयनियमरूपया, दिशा नान्चयो दृष्टचरः प्रकृत्यातिरिक्तान्वितप्रत्ययार्थप्रकारकोऽन्वयः पूर्वमदृष्ट इति नायं सङ्गत इति शङ्काशयः । प्रकरणकारः समाधत्ते- तात्पर्यसत्त्वे अध प्र. इति । यहाँ यह शंका की जाय कि -> "असतप्रमाणप्रसिद्धितः में पंचमी विभक्ति प्रसिद्धिपद के अन्यवहित उत्तर में होने से वह उसकी प्रकृति है, न कि 'असत्' पद । शाब्दबोधस्थलीय यह मर्यादा है कि प्रत्यय अपने प्रकृतिभूत पद के अर्थ से अन्चित :- युक्त ही अपने अर्थ के बोधक होते हैं । अतः पञ्चमी विभक्ति के अर्थ का अन्वय असत्पद के अर्थ असत्त्व में नहीं हो सकता, किन्तु स्वप्रकृत्तिभूत प्रसिद्धिपद के अर्थ में ही हो सकता है। मगर यहाँ तो 'विरोधविषय प्रमाण प्रसिद्धि नहीं होने से' ऐसा अर्थघटन किया गया है, जिस में असत्त्व = अभाव में पंचमी विभक्ति के अर्थ का अन्वय ज्ञात होता है, जो उपर्युक्त नियम के विरुद्ध होने से त्याज्य है" -- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'तेषां मोहः पापीयान् नामूढस्यतरोत्पत्तेः' इस न्यायसूत्र की व्याख्या ऐसी की गई है कि 'राग, द्वेष व मोह में मोहः पापिष्ट है, क्योंकि मोह से रहित को राग और द्वेष की उत्पत्ति नहीं होती है । इस न्यायसूत्रव्याख्या में उत्पत्तिशन्न के उत्तर पंचमी विभक्ति के अर्थ में प्रकृतिभूत उत्पत्तिपद के अर्थ का अन्वय न मान कर अप्रकृतिभूत 'न'पद के अर्थ अभाव का अन्वय करने से उपर्युन नियम दुपित होने से निपातातिरिक्त स्थल में ही तादृश नियम का स्वीकार किया गया है। उक्त सूत्र में 'न'पद निपान है तथा 'असत्' पद में अनिपात है, जिसका अर्थ अभाव होता है । अतः अभावात्मक निपातार्थ से, जो प्रकृत में उभयत्र पंचमी विभक्ति के प्रकृति पद का अर्थ नहीं है, अन्चित पंचमी विभक्ति के अर्थ का भान होने में कोई बाथ नहीं है । परिष्कृत नियम के अनुसार तादृश व्याख्या मान्य हो सकती है। वास्तविकता नो यह है कि प्रकृति में रहा हुआ प्रकृतित्व भी एक नहीं है, इसलिए उपर्युक्त नियम का विशेषरूप से स्वीकार करना होगा, जो 'असन्प्रमाणप्रसिद्धितः' इस स्थल में प्राप्त नहीं है, किन्तु उससे भिन्न व्युत्पत्ति ही यहाँ प्राप्त है। अतः असत्व = अभाव में पंचमी विभक्ति के अर्थ . :'. .....'." - : - -- ..

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