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* योगसूत्रनिराकरणम्
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न तु सर्वथाऽभावरूपः, तस्य क्वचिदपि स्यादादिभिरनभ्युपगमात् । तथा च यत्र सर्वज्ञानावरणविलयः, स एव भगवान् सर्वज्ञः सिध्यति ।
तालु ज्ञानस्य कथं सर्वविषयत्वं ? अतीतानागतयो: स्वरूपाऽभावेनोभयस्वरूपविषयताऽभावादिति चेत् ? न आलेख्याऽऽकाराणामिवाऽवर्तमानस्याऽपि वस्तुनो ज्ञेयाकाराणां ज्ञाने सम्भवात् ।
जै गयलता
तदा प्रतियोगिव्यधिकरणज्ञानावरणध्वंसो ज्ञानावरणक्षय इति प्रदर्शनीयमिति दिकू ।
ननु ज्ञानावरणत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकात्यन्ताभावस्यैव लाघवेन तथात्वमस्त्वित्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह न तु सर्वथाऽभावरूप इति । कुतः ? इत्याह तस्य क्वचिदपि आत्मनि स्याद्वादिभिः अस्माभिः अनभ्युपगमादिति । एतेन क्लेशकर्मविपाकाशयैर परामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' - (यो.सू.१ / २४ ) इति पतञ्जलिवचनमपि प्रत्युक्तम्, नित्यनिर्दोषपुरुषे मानाभावात् नित्यत्वे सति तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका भावभिन्नत्वरूपस्याऽत्यन्ताभावत्वस्य जन्याभावत्वलक्षणध्वंसत्वऽपेक्षया गुरुत्वाच्च । ध्वस्तदीयत्वस्यैवेश्वरत्वे तन्त्रत्वमिति यत्र आत्मनि सर्वज्ञानावरणविलयः = स्ववृत्तियावज्ज्ञानावरणध्वंसः, स एव आत्मा भगवान् सर्वज्ञ इति सिध्यति ।
असर्वज्ञवादी शकते नन्विति । 'चेदित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । ज्ञानावरणक्षय-क्षयोपशमयोरेवं सिद्धत्वेऽपि ज्ञानावरणक्षयसंपाद्यस्य ज्ञानस्य कथं सर्वविषयत्वं अतीतानागतवर्त मानव्यवहितातीन्द्रियाद्यर्थगोचरत्वं अतीतानागतयोः वस्तुनो निवृत्ताजातत्वात् स्वरूपाऽभावेन निरुपाख्येयत्वेन, उभयस्वरूपविषयताऽभावात् = विज्ञानविषयोभयात्मक विषयत्वाऽसम्भवात् । विषयताया अतिरिक्तत्वे गौरवात् लाघवेन विषयविषयिस्वरूपत्वमेवेति तदन्यतराज्भाव उभयात्मकविषयताया एवासत्त्वात् कथं ज्ञानस्याऽतीतादिविषयकत्वं स्यात् ? न खल्वतीतोऽजातो वा शत्रुः सम्प्रति संतर्पयत्ति विवेकिनः नानागतः शङ्खचक्रवर्त्ती महासंपत्रिमित्तं विप्राननपानैरुत्थापयतीतिशंकाशयः ।
तन्निराकुरुतेनेति । आलेख्याकाराणां = आलेख्ये आकाराणां, इवाऽवर्त्तमानस्याऽपि वस्तुनः अतीतानागतपदार्थस्य ज्ञेयाकारणां ज्ञाने सम्भवादिति । यथा विद्यमानस्य पुरुषस्य आकारो लेप्यादौ वर्तते तथाऽविद्यमानस्य वस्तुनो
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हम अभी आश्रय नहीं है । एक ज्ञानावरण कर्म का हमारी आत्मा में ध्वंस होने पर भी भावी काल में हम दूसरे ज्ञानावरण कर्म का अधिकरण बनने वाले हैं। अतः अभी हमारी आत्मा में ज्ञानावरण कर्म का प्रागभाव रहता है । अतएव हमारी आत्मा में रहने वाला ज्ञानावरणकर्मध्वंस तादृश प्रागभाव का भिन्नकालीन नहीं कहा जा सकता । मगर जिस पुरुषविशेष में भावी काल में ज्ञानावरण कर्म की अधिकरणता नहीं होने वाली है, उसी पुरुपविशेष में रहनेवाला ज्ञानावरणकर्मध्वंस ही स्वसमानाधिकरण ( ज्ञानावरणध्वंसाधिकरणवृत्ति) स्वप्रतियोगिसजातीय (ज्ञानावरणकर्म) प्रतियोगिकप्रागभावकालीन नहीं होने से ज्ञानावरणकर्मक्षयात्मक सिद्ध होगा । मगर क्षय का अर्थ सर्वथा अभाव यानी ज्ञानावरणकर्मात्यन्ताभाव ऐसा नहीं है, क्योंकि हम स्याद्रादी ने किसी भी आत्मा में दोषात्यन्ताभाव त्रिकालिeदोपशून्यत्व का अंगीकार नहीं किया है । मतलब कि ' अनादि काल से जिस आत्मा में दोप नहीं है, उसी आत्मा में सर्वज्ञता है' ऐसा हम नहीं मानते हैं, क्योंकि सभी जीव अनादि काल से दोष (= ज्ञानावरण कर्म) से युक्त होते हैं और बाद में रत्नत्रयादि की आराधना के बल से ज्ञानावरणकर्मक्षय द्वारा केवलज्ञान = संपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करते हैं। जिस आत्मा में ज्ञानावरण कर्म का प्रदर्शित क्षय रहता है, वही सर्वज्ञ यानी केवलज्ञानी भगवंत है, यह सिद्ध होता है ।
अतीतविषयक प्रत्यक्ष मुमकिन
नंनु ज्ञा. इति । यहाँ यह समस्या मुँह फाड़े खड़ी रहती है कि 'अतीत पदार्थ विनष्ट होता है और अनागत पदार्थ अनुत्पन्न होता है, इसलिए उनका वर्तमान काल में कोई स्वरूप ही नहीं है । तब वे ज्ञान के विषय कैसे बन सकते हैं ? क्योंकि विषयता तो ज्ञान और विषय उभयात्मक होने से विषय न होने पर उभयात्मक विषयता भी नहीं हो सकती । इस तरह प्रत्यक्ष में अतीत अनागतवस्तुगोचरता नामुमकिन है, तो फिर त्रिकालवर्ती सब पदार्थ का विषयकत्व तो कैसे मुमकिन होगा ? अतः ज्ञानावरण के क्षय से सर्वविषयक ज्ञान की कल्पना नहीं की जा सकती' - मगर इसका यह समाधान है कि जैसे अतीतादि पुरुष का आकार आलेख्य चित्र में होता है ठीक वैसे ही भवर्तमान = अतीतादि वस्तु का आकार
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