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* प्रतिबन्धकसत्त्वंऽदृष्टस्याऽकिञ्चित्करत्वम्
पुण्य-पापरूपे तत्र साङ्कर्येण वैजात्याऽसिध्देश्व । एवञ्च ज्ञानावरणस्य क्षयोऽपि क्षयोपशमेन लिगेन क्वचिदनुमेयः ।
* जयलता *
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प्रतिबन्धका भावस्यापि कारणत्वेन तदा सामग्रीवैकल्यात् । दर्शितज्ञानतारतम्याऽन्यथानुपपत्त्या ज्ञानावरणस्य तत्प्रतिबन्धकत्वे सिद्धे तत्सत्त्वे नाऽदृष्टविशेषेण ज्ञानमुत्पत्तुमर्हति । किञ्चादृष्टसामान्यस्य न तद्धेतुत्वं सम्भवति, अतिप्रसङ्गादिति विजातीया - दृष्टस्यैव तत्त्वं वाच्यं, अदृष्टवैजात्यं च तत्कारणतावच्छेदकत्वं कल्पनीयमिति त्वन्मते गौरवमित्याह - अदृष्टवैजात्यस्य ज्ञानकारणीभूताऽदृष्टनिष्ठस्य ज्ञानकारणतावच्छेदकत्वेन अदृष्टनिष्ठजातिविशेषस्य, अदृष्टविशेषे ज्ञानं प्रति अनन्यथासिद्धत्वादेः अनन्यधासिद्धज्ञाननियतपूर्ववर्तित्वरूपकारणत्वस्य च त्वया कल्पने कल्पनीये गौरवात् । 'अस्तु गौरवं, तस्य फला'भिमुखत्वेनाऽदोषत्वादित्याशङ्कायां दोषान्तरमावेदयति- पुण्यपापरूपे तत्र अदृष्टविशेषे, साङ्कर्येण = पुण्यत्वादिना सङ्करेण, वैजात्याऽसिद्धेः देः = तस्य जातित्वाऽयोगात् च । तथाहि मिथ्याज्ञानजनकाऽदृष्टविशेषे ज्ञानकारणतावच्छेदकधर्मोऽस्ति पुण्यत्वं च नास्ति, सुखादिजनकादृष्टे पुण्यत्वमस्ति ज्ञानजनकतावच्छेदकधर्मश्च नास्ति । तदुभयञ्च तत्त्वज्ञानजनकाऽदृष्टविशेषेऽस्तीति साङ्कर्यं पुण्यत्वेन समम् । अत एव तस्य जातित्वं न सम्भवतीति न तदवच्छिन्नज्ञानकारणताकलपनाया युक्तत्वम् । न चोपाधिसाङ्कर्यस्येव जातिसाङ्कर्यस्याऽपि न दोषत्वं दोषत्वे वा तादृशनानाजातिकल्पनमस्त्विति वाच्यम्, तनानात्वकल्पने गौरवात् । न च तस्य फलमुखत्वेनाऽदोषत्वमिति वक्तव्यम्, तथापि कार्यतावच्छेदककोटावव्यवहितोत्तरत्वाऽनिवेशे व्यभिचारात् न चास्तु तन्निवेशोऽपीति वाच्यम्, नानाकार्य कारणभावकल्पने महागौरवात् । न च तर्हि तस्योपाधित्वमेवास्तु इति वाच्यम्, अनिर्वचनात् । न च तस्याऽखण्डोपाधित्वकल्पनात्राऽयं दोष इत्युद्गीरणीयम्, तथापि ज्ञानतारतम्याऽनुपपत्तेः कारणाविशे'पादित्यकामेनाऽपि ज्ञानावरणक्षयोपशमस्यैव ज्ञानकारणत्वमभ्युपगन्तव्यम्, तद्वैचित्र्ये ज्ञानवैचित्र्योपपत्तेरिति विभावनीयं प्राज्ञः । नन्वस्तु ज्ञानावरणक्षयोपशमस्य ज्ञानहेतुत्वं तथापि कथं सर्वज्ञसिद्धि: ? इत्याशङ्कायामाह एवश्चेति । प्रदर्शितरीत्या च ज्ञानावरणस्य कर्मणः क्षयोऽपि = केवलज्ञानहेतुरपि, क्षयोपशमेन लिङ्गेन हेतुना क्वचित् = पुरुषविशेषे, अनुमेयः । तदुक्तं अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरणे 'दोषावरणयोनिः क्वचिदात्मनि निशा
आंतंशयवतीत्वात् । या
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अदृष्टसामान्य
के क्षयोपशम के वैचित्र्य से ज्ञान में वैचित्र्य = तारतम्य की उपपत्ति हो सकती है । यहाँ यह कहना कि -> 'ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को प्रतिबन्धकाभावविधया कारण मानने की अपेक्षा यही मानना मुनासिब है कि अदृष्टविशेष = कर्मविशेष ही ज्ञान का कारण है, क्योंकि ऐसा मानने पर कारणतावच्छेदक धर्म अदृष्टविशेषत्व = अदृष्टवृत्ति वैजात्य होगा, जो ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमत्व की अपेक्षा लघु है' - भी असंगत है, क्योंकि ज्ञान के प्रति ज्ञानावरण कर्म प्रतिबन्धक होने से प्रतिबन्धक की उपस्थिति में हजारों अदृष्ट भी कार्य के जनक नहीं बन सकते । दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि को तो ज्ञान का कारण नहीं माना जाता किन्तु अदृष्टविशेष को ही कारण मानना होगा । अतः ज्ञानकारणतावच्छेदकविधया अदृष्टवैजात्य की कल्पना करनी होगी । तथा अदृष्टविशेष में ज्ञानकारणता उभयमत में सिद्ध नहीं होने से उसमें अनन्यधासिद्ध नियत पूर्ववर्तित्व की कल्पना करनी होगी, जो गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है । वास्तव में तो अदृष्ट में ज्ञानकारणतावच्छेदक जातिविशेष की सिद्धि ही नहीं हो सकती, क्योंकि अदृष्ट पुण्य-पापात्मक होने से नगत जाति के साथ तादृश वैजात्य = ज्ञानकारणतावच्छेदकीभूत जातिविशेष का सांकर्य होता है। वह इस तरह, मिथ्याज्ञान के जनक अदृष्टविशेष में ज्ञानकारणता अवच्छेदक क्षित जाति रहती है किन्तु पुण्यत्व धर्मत्व जाति नहीं रहती है । यश, कीर्ति, सुख आदि के जनक अदृष्ट में = धर्मत्व जाति रहती है किन्तु ज्ञानकारणतावच्छेदक जाति नहीं रहती है । परस्परव्यधिकरण पुण्यत्व = धर्मत्व जाति और पुण्यत्व ज्ञानकारणतावच्छेदक विवक्षित जाति दोनों ही सम्यक् ज्ञान तत्त्वज्ञान के जनक अदृष्ट में रहती है। इस तरह परस्परव्यधिकरण धर्म का एकत्र समावेश होने से प्रसक्त सांकर्य दोष की वजह अदृष्टगत ज्ञानकारणतावच्छेदकीभूत वैजात्य = जातिविशेष का स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः प्रतिबन्धकाभावविधया ज्ञानावरणक्षयोपशम को ही ज्ञान का कारण मानना उचित है, न कि अदृष्टविशेष को - यह सिद्ध होता है । इस तरह जब ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम में ज्ञानकारणता सिद्ध होती है तब पुरुषविशेष में ज्ञानावरण कर्म के क्षय का भी अनुमान हो सकता है । तथाहि - ज्ञानावरण कर्म की संपूर्ण हानि हो सकती है, क्योंकि उसमें तरतमता होती है। जिस हानि में तरलमता होती है वह संपूर्ण भी हो सकती है, जैसे सुवर्ण में मल आदि की आंशिक = तरतमभाववाली हानि होती है, तो कभी संपूर्ण हानि भी होती है । ठीक वैसे ही हमारी आत्मा में ज्ञानावरण कर्म की आंशिक तरतमभाववाली हानि होती है, तो किसी पुरुषविशेष में उसकी संपूर्ण हानि होनी चाहिए । मतलब कि ज्ञानावरण कर्म का संपूर्ण क्षय भी सिद्ध होता है । जिस पुरुषविशेष में ज्ञानावरण का संपूर्ण ड्रास