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४४७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड:-२ का.
विधिविकसंवादः *
घटहेतुताऽनापत्तेः ।
किश्वेश्वरस्य सर्वज्ञत्वेऽपि मानाभावः, उपादानप्रत्यक्षस्य कार्यमा प्रति हेतुतया तज्ज्ञाने द्रव्यविषयकत्वमाप्रस्यैव सिब्दः । न च 'य: सर्वज्ञः स सर्वविदित्यादिश्रुतिरेव तस्य सर्व
=* जयलता * कुलालसमवेतस्योपादानसाक्षात्कारस्य, घटहेतुताऽनापत्तेरिति । एतानि उपादानानि घटस्ये' तिप्रत्यक्षस्य कुलाले सम्भवेऽपि 'एतान्युपादानानि एतद्रटस्ये स्येवम्बिधस्य प्रत्यक्षस्य कुलाले सम्भवः अर्थसमाजग्रस्तस्यैतद्रदत्वयं कार्योत्पादानन्तरमुपलब्धेः तत्पूर्व ज्ञातुमशक्यत्वात्, तदुत्तरं तज्ज्ञाने सत्यपि तस्याऽकिश्चित्करत्वात, कार्यस्योत्पन्नत्वात्तदानीमिति कुलालस्याऽपि घटकर्तुत्वमुच्छिद्येतेति नैतन्मतस्य युक्तत्वमिति भावः ।
ईशमभ्युपगम्य महादेववादिमते दोषान्तरमाह- किश्चेति । ईश्वरस्य सर्वज्ञत्वेऽपि मानाभाव इति । कुतः ? इत्याहउपादानप्रत्यक्षस्य कार्यमानं = केवलं कार्यं प्रति हेतुतया तज्ज्ञाने = ईश्वरीयप्रत्यक्षे, द्रव्यविषयकत्वमात्रस्यैव सिद्धेरिति । द्रव्यस्यैव कार्यमा प्रति समवायिकाणाहन् । सामानवासियतिरिससिद्धेः, कारणाभावात्, मानाभावाच । विधिविवेके मण्डनमिश्रेणाऽपि -> "किमेते (= कलालादयः) स्वकार्यस्य निरवशेषोपकरणवेदिनः ? क वा ? न ताबदशेषोपकरणवेदिनः ते, अदष्टस्यापरिज्ञानात । नाऽपि सम्प्रदानप्रयोजनविशेषवेदिनः. तस्याऽनेकस्यापि सम्म वात् तन्मात्रज्ञाने न सर्वज्ञतासिद्भिः । बालोन्मत्तादयश्च सर्वकार्याणां न प्रयोजनादिवेदिनः । साध्यं चेत् कर्तृत्वं, कथमनन्तर्भावितसर्वज्ञत्वं हेतुमन्तरेण सेद्भुमर्हन्ति ?' <- (वि.वि.पृ.१५०) इत्युक्तम् । कुलालादिनिदर्शनेनेश्वरस्य तदुपकरणादिमात्रज्ञानं स्यात् । न व तन्मात्रज्ञाने सर्वज्ञतासिद्धिः, कतिपयज्ञो हि तथा सतीश्वरः स्यादिति भावः ।
श्रुतिप्रमाणस्य खण्डनार्थमाह- न चेति । 'मानमि' त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । 'यः सर्वज्ञ' इति । सामान्यरूपेण सर्वविषयकज्ञाननित्यर्थः । सामान्यरूपेण सर्वविषयकज्ञानवत्त्वं जीवानामपीत्यत आह- स सर्वविदिति । विशेषरूपेणाऽपि सर्व| विषयकज्ञानवानित्यर्थः । श्लोकश्चैवं मुण्डकोपनिषदि 'यः सर्वज्ञः स सर्वविद् यस्य ज्ञानमयं तपः । तस्मादेतद् ब्रह्म नाम रूपमन्नं
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ईश्वर की सिद्धि हो सकती है" <
अतिमंदं. इति । प्रकरणकार श्रीमद्जी उपर्युक्त मन्तव्य को यह कह कर अत्यन्त तुच्छ बताते हैं कि ऐसा मानने घर तो कुलाल आदि भी घट आदि के कर्ता नहीं हो सकते, क्योंकि कुलालादि का जो प्रत्यक्ष है वह 'ये कपाल घट का उपादानकारण हैं।' इत्याकारक होता है, न कि 'ये कपाल इस घद का उपादानकारण हैं' इत्याकारक । अतः उक्त कार्यकारणभाव को मान्यता देने पर तो कुलालादि भी घट आदि के कर्ता नहीं हो सकते, कुम्हारादि का प्रत्यक्ष भी घटादि का हेतु नहीं हो सकेगा। मगर कुलालादि घटादि के कर्ता के रूप में प्रसिद्ध होने से उपर्युक्त जन्य-जनकभाव को मान्य नहीं किया जा सकता । इस तरह जन उपदर्शित कार्य-कारणभाव ही अप्रामाणिक- असिद्ध है, तब उस पर आधारित ईश्वरसिद्धि कैसे हो सकेगी ? न रहेगा गाँस, न बजेगी बांसुरी !
ईश्वर में सर्वज्ञता असिद्ध - स्यादादी किचे. इति । ययपि विचार करने पर उपर्युक्त रीति से किसी भी प्रकार से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती है, फिर भी यदि इयणुकादि के उपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर का अंगीकार अभ्युपगमवाद से किया जाय तो भी ईश्वर सर्वज्ञ नहीं हो सकता, क्योंकि उसे जगत्कर्ता मानने के लिए उपादानस्वरूप तव्य के प्रत्यक्ष का आश्रय मानना आवश्यक है, क्योंकि कार्य मात्र के प्रति द्रव्य ही उपादान कारण होता है । ईश्वर को द्रव्यविषयक प्रत्यक्ष का अधिकरण मानने पर भी उसमें जगत्कर्तृत्व की उपपत्ति हो सकती है तब क्यों उसके प्रत्यक्ष को गुणादिविषयक भी माना जाय ? अनावश्य कल्पना करने में केवल गौरव है, फायदा कुछ भी नहीं । इस परिस्थिति में ईश्वर द्रव्यज्ञाता हो सकेगा, न कि सर्वज्ञ । यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि -> " ईश्वर में सर्वकता की सिद्धि 'यः सर्वज्ञः स सर्ववित्' इत्यादि श्रुति से ही होती है"<क्योंकि वेदवचन से प्रतिपाय पदार्थ की जब तक तर्क, अनुमान आदि से सिद्धि नहीं होती तब तक हजारों वेदवचन भी वाद में वस्तुसिद्धि के लिए असमर्थ है । युक्ति आदि का सहारा मिलने पर ही श्रुति = वेदवचन को स्वीकृति दी जाती है, अन्यथा सभी वादी अपने अपने आगमों के अनुसार अपने मन-पसंद पदार्थ की सिद्धि करने में समर्थ हो जायेगे । तब तो भारी गरबड़ हो जायेगी ।