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*सर्गादिकल्पनाप्रामाणिकी *
गौरवादि'त्यपि मनाम, सदिरेवाऽसिन्दः । ___ > 'एतान्युपादानान्येतदघटस्येति प्रत्यक्षं घटजनकमन्वेषणीयं, तच्चेश्वरं विना न इति ईश्वरसिन्दिरपत्यूहा <- इति पुनतिमतदम्, एवं सत्यनीहशस्य कुम्भकारोपादानप्रत्यक्षस्य
==जयलता * जकतया ईश्वरसिद्धिः । न च मन्वादीनामेव सर्गारम्भे जायमानानां तत्तद्व्यवहारप्रवर्तकत्वमस्ति, अलं शशिधरकल्पनयेति वाच्यम्, प्रतिसर्ग अनन्तानां मन्वादीनां कल्पने गौरवात् । लाघवेनेकेश्वरस्य सर्गप्रथमव्यवहारप्रवर्तकतया सिद्धिरिति पराशयः ।
प्रकरणकार आह- इति वक्तव्यं मन्दम् । कुतः ? इत्याह- सईदेरेवासिद्धेरिति । सर्गस्य प्रारम्भस्यैवाऽसिद्धेः, इदानीमिव सर्वदा पूर्व-पूर्वव्यवहारेणैवोत्तरोत्तरव्यवहारोपपत्तेः । एतेन मास्तु कार्यत्वं कृतेः कार्यतावच्छेदकं तथापि घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति कृते: कारणतया सर्गाद्यकालीनघटादिकं पक्षीकृत्यं सकर्तृकत्वसाधने जीवानां बाधादीश्वरसिद्धिरित्यपि प्रत्युक्तम्, पक्षस्य पक्षतावच्छेदकशून्यत्वेनाऽऽश्रयासिद्धेः । एतेन 'घटादिव्यवहारः स्वतन्त्रपुरुषप्रयोज्यः व्यवहारत्वात्, आधुनिककल्पितलिप्यादिव्यवहारवदित्यनुमानादीश्वरसिद्धिरित्यपि प्रत्युक्तम्, पूर्वपूर्वकुलालादिनैवाऽन्यथासिद्धेः । न च प्रलयेन तद्विच्छेदानेवमिति वाच्यम्, प्रलयानभ्युपगमात् । एतेन ब्रह्माण्डनाशः प्रयत्नजन्यः नाशत्वात् पाट्यमानपरनाशवदित्यपि प्रत्युक्तम्, आश्रयासिद्धेः । न च ब्रह्माण्डं नाशप्रतियोगि जन्यभावत्वात् घटवदित्यनुमानेनैव तन्नाशसिद्धिरिति वाच्यम्, अहोरात्रस्याऽहोरात्र
वव्याप्यत्वेन तदसिद्धेरिति विभावनीयम् ।
खण्डनार्थमत्र प्रकारान्तरेणेश्वरसिद्धिमावेदयति- "एतानि उपादानानि एतद्धटस्य' इति प्रत्यक्ष घटजनकं अन्वेषणीय कर्तुः विशेषत उपादानोपकरणाद्यभिज्ञत्वात् । तच = दर्शितोपादानप्रत्यक्षञ्च, ईश्वरं विना न सम्भवति, तस्यैव कात्स्न्येनोपादानवेत्तृत्वादिति तदाश्रयविधया ईश्वरसिद्धिपत्यूहेति । एतान्युपादानानि तद् घटस्यैतटस्य वे'ति विशेषतोऽज्ञाने कर्तुरुपादानविशेषे प्रवृत्तिर्न सम्भवतीति तदाश्रयविधया महेशसिद्धिरिति तदाशयः ।
प्रकरणकारः स्वाभिप्रायमाह- इति = एवंविधं बक्तव्यं, पुनः अतिमन्दं, कुतः ? इत्याह- एवं सति = विशेषत उपादेयोपादानप्रत्यक्षस्य कार्यजनकत्वाऽङ्गीकारे सति, अनीदृशस्य = दर्शितप्रकारभिन्नस्य, कुम्भकारोपादानप्रत्यक्षस्य =
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___ सर्गादि अप्रामाणिक - स्यादादी * सांदी. इति । प्राचीन नैयायिक का यह कथन है कि --> "घट, पट आदि अर्थ में घर, पट आदि शन्दों के प्रयोगात्मक व्यवहार के प्रथम प्रवर्तकरूप में ईश्वर की सिद्धि होती है, क्योंकि सृष्टि होने के बाद आद्य व्यवहार का प्रवर्तक अन्य मनुप्य तो नहीं हो सकते । उन्हें तत् तत् पद की शक्ति का ज्ञान नहीं होने से वे कैसे सृष्टि के आय व्यवहार के प्रवर्तक हो सकते हैं ? यहाँ यह शंका हो कि - 'सभी सृष्टि में मनु आदि भिन्न भिन्न प्राज्ञ व्यक्तिओं का जन्म होता है । अतः वे ही सृष्टि के प्रथम व्यवहार के प्रवर्तक हो सकते हैं। उसके लिए अतिरिक्त ईश्वर की कल्पना अनावश्यक है' - यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि भिन्न भिन्न अनन्त सृष्टि में मनु आदि अनन्त व्यक्तिओं की कल्पना करने में गौरव है। इसकी अपेक्षा तो यही मुनासिब है कि सभी सृष्टि में एक मात्र ईश्वर को आद्य व्यवहार का प्रवर्तक माना जाय, क्योंकि ऐसा मानने में लाघव है" <
मन्दं. इति । मगर प्रकरणकार का यह कहना है कि उक्त रीति से ईश्वर की कल्पना उचित नहीं होती, क्योंकि सृष्टि का प्रारम्भ ही किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है। किन्तु यही कल्पना उचित प्रतीत होती है कि जैसे इस समय के व्यवहार अपने पूर्व पूर्व व्यवहारों से ही संपन्न होते हैं ठीक उसी प्रकार सम्पूर्ण समय के व्यवहार अपने पूर्व व्यवहारों से ही सम्पन्न होते हैं। ऐसा मानने पर कोई आद्य व्यवहार सिद्ध नहीं होने से आयव्यवहार के प्रवर्तक की कल्पना की संभावना ही समाप्त हो जायेगी।
एता. इति । ईश्वरवादी अन्य विद्वानों का यह अभिप्राय है कि -> "उपादान का प्रत्यक्ष उपादेय का जनक होता है। मगर उपादान में प्रवृत्ति के लिए विशेषतः उपादान-उपादेयभाव का ज्ञान कारण होता है, अन्यथा उपादानकारणविशेप में उपादेयविशेष के लिए प्रवृत्ति नहीं हो सकती। जैसे 'ये कपाल इस घट के उपादानकारण हैं' इत्याकारक प्रत्यक्ष घट का जनक होता है । मगर ऐसा प्रत्यक्ष ईश्वर के बिना अन्य किसीको नहीं हो सकता, क्योंकि तर घट अनुत्पन्न होने से 'इस घट के ये उपादान हैं। ऐसा प्रत्यक्ष प्राकृत जन को नहीं हो सकता । अतः घटजनक उपर्युक्त प्रत्यक्ष के आश्रयविधया