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४३९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: २ का ५
* रामरुद्रभट्टमतनिरासः
कालिकादिसम्बन्धेन तथात्वे तु मानाभाव इत्यप्याहुः ।
अथ द्यावापृथिव्योर्गुरुत्वादिपतन सामय्यां सत्यामपि यदीयधारणानुकूलप्रयत्नेन पतनप्रतिबन्ध: स एव भगवान् भवानीपतिः सिध्यति । तथा च श्रुतिरपि 'एतस्य चाक्षरस्य * जयलता
स्यैव कार्यतावच्छेदकसम्बन्धत्वमस्तु तस्य जन्यभावाभावसाधारणत्वादिति न नाना कार्य कारणभावगौरवमित्याशङ्कायामाहकालिकादिसम्बन्धेन तथान्ये === जन्यजनकभावाऽभ्युपगमे तु मानाभाव इति । एतेन विशेष्यतया कृतेरधिकरणे कपाले कालिकेन घटो घटध्वंसचोपजायतेति न समवाय विशेषणतान्यतरसम्बन्धस्य कार्यतावच्छेदकत्वमिति निरस्तम्, द्व्यणुकपार्थिब-परमाणुपाकजरूपादेः कृतिजन्यत्वाऽभावप्रसङ्गात् विशेष्यतया कृत्यधिकरणे परमाण्वादी कालिकेन द्वयणुकादेरवर्तमानत्वात् । एतेन 'कालनिष्ठप्रत्यासत्त्यैव कार्यमा प्रति कृतः कारणत्वस्योपगन्तव्यत्वादिति' (मु.रा.रु. पू. ४१ ) इति रामरुद्रभट्टवचनमपि प्रत्याख्यातम् शब्दादेः कालिकेन गगनादाववर्त्तमानत्वेन कार्यत्वस्य कृतिजन्यतानवच्छेदकत्वात्, महेश्वरे शब्दादिकर्तृत्वबाधेन जगत्कर्तृत्वाऽसिद्धेः । न च द्वणुकादेः कालिकेन स्वस्मित्रेवोत्पत्तिरित्युद्गीरणीयम्, तदुत्यादपूर्वं विशेष्यतया कृतेः तत्राऽसस्भवेनाऽऽकस्मिकोत्पादप्रसङ्गात् । यत्र तत्र वा कालिकेन कार्योत्पादे देशनैयत्यमङ्गप्रसङ्गः इति न कालिकविशेषणतयाः कृतिनिष्ठविशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नजनकतानिरूपितजन्यताय अवच्छेदकसम्बन्धत्वं सम्भवति । न च दैशिकविशेषणताप्रत्यासत्त्या कार्यमात्रं प्रति कृतेर्विशेष्यतासम्बन्धेन हेतुत्वमिति वाच्यम्, ध्वंसस्योपादानविरहेण तं प्रति उपादानत्वाभिधानविशेष्यतासंसर्गेण कृतेः कारणत्वाऽसम्भवादित्युक्तत्वादिति विभावनीयम् ।
ननु यदि महेश्वरो न स्यात् तर्हि गुर्योः स्वर्गलोक - मनुष्यलोकयोः पतनं स्यात् । न च तद्भवतीति तत्र प्रतिबन्धकत्वकल्पनाया आवश्यकत्वात् तत्पतनप्रतिबन्धकीभूतधारणानुकूलप्रयत्नाश्रयविधयैव त्रिपुरारिसिद्धिरित्याशयेना उदयनानुसारी परः शङ्कते - अधेति । 'चेदित्यनेनाऽस्यान्त्रयः । द्यावापृथिव्योरिति । यथा पतत्रिसमवेतस्य धारणानुकूल प्रयत्नस्य पतनप्रतिबन्धकीभूतस्य सत्त्वात् वे डयमानपक्षिशारीरस्य तत्संयुक्तफलादेश्व गुरुत्वेऽपि पतनं न भवति तथा द्यावापृथिव्योः गुरुत्वेऽपि पतनं न भवति, तत्र कस्यचित् धारणानुकूलप्रयत्नेन भवितव्यम् । स च प्रयत्नोऽस्मदीयो न भवितुमर्हतीति पारिशेषन्यायादीश्वरस्य सिद्धिरिति निर्गलितार्थः । अत्रैव बृहदारण्यकवचनं प्रमाणयति - एतस्येति । साम्प्रतं तत्र 'एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गाि
क्योंकि अवच्छेय और अवच्छेदक में अभेद होने से आत्माश्रय दोष होगा । दूसरी बात यह है कि कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध भी एक नहीं हो सकता है । कपाल में घटात्मक कार्य समवाय सम्बन्ध से रहता है और पटध्वंसस्वरूप कार्य स्वरूप सम्बन्ध से रहता है। कार्यतावच्छेदक सम्बन्ध के भिन्न होने से उससे घटित कार्य कारणभाव भी भिन्न हो जायेगा । फलतः अनेक कार्य कारणभाव के अंगीकार का गौरव होगा। एक कार्य-कारणभाव की सिद्धि के लिए ईश्वरवादी की ओर से यह कहा जाय कि "हम कालिक सम्बन्ध को ही प्रयत्ननिष्ठ कारणता से निरूपित कार्यता का अवच्छेदक सम्बन्ध मानते हैं । कालिक सम्बन्ध से तो घटात्मक कार्य और ध्वंसस्वरूप कार्य कपाल में रह सकता है । अतः कार्य कारणभाव में लाघव होगा" तो यह वक्तव्य भी अप्रामाणिक है, क्योंकि कालिक सम्बन्ध को कार्यतावच्छेदक मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अतः उपर्युक्त कार्य कारणभाव को मान्य नहीं किया जा सकता, जिसके फलस्वरूप में ईश्वर में जगत्कर्तृत्व की सिद्धि हो सके
ऐसा भी अमुक विद्वानों का कथन है ।
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नैयायिक
अथ द्या. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि “ जिस द्रव्य में गुरुत्व होता है, उसका पतन पानी नीचे की ओर गमन अवश्य होता है, यदि स्थानविशेप में उसको रोक रखनेवाला कोई पदार्थ न हो । रोकनेवाले पदार्थ को ही पतन का प्रतिबन्धक कहा जाता है । जैसे कोई पक्षी आकाश में उड़ता है और अपनी चोंच में काष्टखण्ड, तृण, फल आदि को रखता है । उनमें गुरुत्व होता है, पक्षी के शरीर में भी गुरुत्व होता है, फिर भी उनका पतन नहीं होता है । इसका कारण यह है कि पक्षी का गुरुतर शरीर पक्षी की आत्मा में विद्यमान प्रयत्नविशेष से धारित रहता है एवं पक्षी के चोंच में रहे हु गुरुत्वविशिष्ट फलादि का भी पक्षी के प्रयत्नविशेष से पतन नहीं होता है । ठीक इसी तरह चुलोक और पृथ्वीलोक भी गुरुतम होने पर भी नीचे नहीं गीरते हैं । यदि पतनप्रतिबन्धक कोई पदार्थ नहीं होना, तब तो गुरुत्वरूप पतनकारण होने से अवश्य उसका अधोगमन होना चाहिए । अतः मानना चाहिए कि किसी के प्रयत्नविशेष
* लोकपतनाभाव से ईश्वरसिद्धि