Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 240
________________ ४३७ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः २ - का. * व्याप्यधर्मसन्चे व्यापकधर्मेण न हेतुता * गमनाविरहात् । विजातीयकृतिमत्वेनैव व्यापकधर्मेण कार्यमा सकर्तृकत्वनियमस्याऽप्रामाणिकत्वेन लाघवात्कृतित्वेनैव वा हेतुत्वौचित्याच्च । * जयलता * सम्बन्धत्वे विनिगमनाविरहादिति । अस्तु दण्डादेः स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगेन घटत्वाधवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वं परं समवायेन शेष्यत्वसम्बन्धेन कतिमत्त्वेन रूपेण कलालादेतत्त्वं स्वीकतं न यज्यते. तब स्वप्रत्यबविशेष्यत्वसंसर्गेणाss. त्मत्वेन रूपेण कुलालादेर्हेतुत्वभित्यस्यापि सुवचत्वात् । आत्मत्वेन कुलालः स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वसंसर्गेण कपाले वर्त्तते तत्रैव च समदायेन घटो जायत इत्युपदर्शितकार्य-कारणभावस्याऽपि सम्भवात् नैयायिकोक्तहेतु-हेतुमद्भावे विनिगमनाविरहः । न च तर्हि स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वसम्बन्धेनाऽऽत्मत्वेन रूपेण घदमात्रं प्रति हेतुताऽस्तु । एबमपीश्वरः खण्डघटाद्यनुरोधेन सेत्स्यत्तीति वक्तव्यम्, प्रकृतेऽपि समचायेन घटमात्र प्रति स्वप्रत्यक्षविशेष्यत्वसम्बन्धेनाऽऽत्मत्वेन रूपेण हेतुत्वं यदुत उपादानप्रत्यक्षवत्त्वरूपेण ? इति विनिगमनाविरहात् । एवं उपादानचिकीर्षामत्त्वेन रूपेण स्वचिकीर्षां विशेष्यत्वसंसर्गेण तद्धेतुत्वमाहोस्वित् जीवत्वरूपेण ? इत्यादिविनिगमनाविरहस्याऽपि प्रदर्शिताखिलफल-फलबद्भावविघटने बद्धकक्षल्वान्नेकोऽपि कार्य-कारणभावः सम्भवति, यद्रलेन खण्डघटायुत्पत्त्यनुरोधेनेश्वरः सिध्येत् । ननु ‘कार्य सकर्तृकं कार्यत्वादि'त्यनुमाने विजातीयकृतिमज्जन्यत्वमेव साध्यं, कार्यत्व-विजातीयकृतिमत्त्वाभ्यामेव कार्यकारणभावाभ्युपगमादिति पराऽऽशङ्कायां प्रकरणकृदाह-विजातीयकृतिमत्त्वेनैव व्यापकधर्मेण कार्यमात्रे = कार्यत्वावच्छिन्ने सकर्तृकत्वनियमस्य अप्रामाणिकत्वेनेति । व्याप्यधर्मेण कार्य-कारणभावसम्भवे व्यापकधर्मेण न कार्य-कारणभाव; कलप्यते, अन्यथासिद्धेः, अन्यथा घटत्वावच्छिन्नं प्रति दण्डत्वेनेव द्रव्यत्वादिना पि कारणत्वापत्तेः । तदुक्तं -> 'अगृहीतन्यभिचारकल याप्यधर्मान्तरसत्त्वे व्यापकरूपेण न कारणत्वं अन्यथासिद्धेः' -- । ततश्च सौवर्ण-खण्डघटादिव्यावृत्तघटत्वावच्छिन्नं प्रति कुलालकृतित्वेनैव कारणत्वमिति नोपदर्शित कार्य-कारणभावः प्रामाणिकः । यदि च लाघवगर्भितेन 'यो यद् विशेषयोः कार्यकारणभाव...' इत्यादिन्यायेन विजातीयकृतिमत्त्वलक्षणव्यापकधर्मेण कारणताऽभ्युपेयते तदा कृतित्वेनैव तदुपगम उचितः लाघवादित्याशयेन प्रकरणकृदाह- लाघवात् कृतित्वेनैव वा हेतुत्वौचित्याचेति । समवायेन कार्यत्वावच्छिन्नं प्रति कृतित्वेन कृतेः कारणत्वमिति सामान्यकार्य-कारणभावः स्वीकर्तृ युज्यते कारणतावच्छेदकधर्मलाघबादिति भावः । न चैवमपि खण्डघटाद्युत्पत्त्यनुरोधेन सज्जनककृत्याश्रयविधया भवसिद्धिरिति राच्यम्, गुणस्य साश्रयकत्वव्याप्ती मानाभावस्य पूर्वमुक्तत्वात् । न च वेदान्तिनयानुसारेण भवतामेवं वक्तुं न युज्यत इति वाच्यम्, तथाऽपि तत्र कुलालकृतेरेव स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन हेतुत्वसम्भवात्। त स्वविशेष्यतासम्बन्धेनैव कतेर्जनकत्वमस्त. स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन तथात्वेत गौरवमिति वक्तव्यम तथापि स्वप्रयोज्यसम्बन्धेनैव तद्धेतुत्वसम्भवात् । न च विशेष्यतात्वस्य कृतिनिष्ठकारणतावच्छेदकसम्बन्धतावच्छेदकत्वमाहोस्वित् में रहती है। ऐसा कार्य-कारणभाव भी मुमकिन है। इसमें कोई बाधक नहीं है। मगर इसके अंगीकार से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती है। खण्ड यट आदि के कर्ता के स्वरूप में आत्मा की सिद्धि होगी, न कि परमात्मा की । मतलब कि || रिनिममनाविरह दोष की वजह प्रतिवादी से प्रतिपादित उपर्युक्त कार्य-कारणभाव मान्य नहीं हो सकता, जिसके फलस्वरूप में प्रतिवादिसम्मत महेश्वर की प्रसिद्धि हो सके । विजा. इति । इसके अतिरिक्त दूसरी बात यह भी ज्ञातव्य है कि विजातीयकृतिमत्त्व धर्म व्यापक है = सामान्य है। व्यापक धर्म से कारणता का अंगीकार करने पर अकारण में भी स्वरूपयोग्यता के स्वीकार का निप्प्रामाणिक गौरव उपस्थित होता है। अतः कार्यमात्र के प्रति विजातीयकृतिमत्त्व से सकर्तकत्व = कर्तजन्यत्व का नियम अप्रामाणिक है । इसकी अपेक्षा तो यही मुनासिब है कि कृतित्वस्वरूप लघु धर्म को ही कार्यमात्र का कारणतावच्छेदक माना जाय । मतलब कि 'कृति स्वविशेष्यतासम्बन्ध से कार्यमात्र का कारण है' - इत्याकारक लघु कार्यकारणभाव समुचित होने से खण्ड घटादि के कारणविधया कृति की सिद्धि होगी, न कि ईश्वर की, ज्योंकि उक्त कार्य-कारणभाव में किसी भी घटक के द्वारा ईश्वर का तो क्या आत्ममात्र या गया है। तथा 'गुणमात्र साश्रयक ही होता है। यह नियम भी पूर्वोक्त युक्ति से अप्रामाणिक होने से खण्ड घटादि के जनक प्रयत्न के आश्रयविधया भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि तादृशनियम को प्रामाणिक मान भी लिया जाय तो भी जीवात्मा में ही तथाविधप्रयत्नाधिकरणता संभावित होने से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती - यह तात्पर्य है। --- -..---.--.-....----...... .-:

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