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४३५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड २ - का.५ * रामरुद्रभट्टमतापाकरणम् *
तेल - खण्डपटादादेव कुम्भकारादिकृतेरभावात् खण्डघटाधुत्पादकत्वे नैवेश्वरसिन्दिरिति - शितिकृतमतमपासतम्, एवं सति घटत्वावच्छिन्नं प्रति कुम्भकारत्वादिनाऽपि हेतुत्वविलयापतेः, विजातीयकृतिमत्त्वेन तथात्वे पुनरीश्वरासिन्दः ।
--* जयलता *दृष्टान्तानुसारेण भावनीयमिदं तत्त्वं निश्चयनयानुसारिभिरित्यादिसूचनार्धं ध्येयमित्युक्तम् ।
एतेनेति । कुलालकृतिदण्डादिजन्यतावच्छेदकीभूतघटत्वस्य खण्डघटादिव्यावृत्तत्वेनेति । अस्य 'अपास्तमि'त्यनेनाऽन्वयः । खण्डघटादावेवेति ! गायबच्छेनार्गक अनारहिापूर: बन्धेन कुम्भकारादिकृतेरभावात्, खण्डघटाग्रुत्पादकत्वेन एव इश्वरसिद्धिरिति । यो विशेषयोः कार्य-कारणभावोऽसति बाधके स तत्सामान्ययोरपी तिन्याये मानाभावेन कार्यत्वावच्छिन्नं प्रति न कृतेर्हेतुत्वम् । घटत्वाद्यबच्छिन्ने कुलालादिकृतित्वेन वाऽपि न हेतुत्वं, खण्डघटायुत्पत्तिकाले कुलालादिकृतेरसत्त्वात् । किन्तु घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति कृतेहेतुत्वम् । अतः खण्डघटाद्युत्पत्तिकालपूर्व कृतेरावश्यकत्वे कुलालादिकृतेरसत्त्वेन तदाश्रयतया लाघवसहकृतपारिशेषन्यायादतिरिक्तकेश्वरसिद्धिरिति दीधितिकृन्मतं = रघुनाथशिरोमणिमतम् ।
प्रकरणकारः तन्निरासे हेत्वन्तरमाह- एवं सति = घटत्वाद्यबच्छिन्नं प्रति कृतित्वेन हेतुत्वाभ्युपगमे सति, घटत्वावच्छिन्नं = घटमात्र, प्रति कुम्भकारत्वादिनाऽपि हेतुत्वविलयापनेः = कारणतोच्छेदप्रसङ्गात्, कृतित एव घटोत्पादे कुलालादेस्न्यथासिद्धत्वेनाऽकर्तृत्वप्रसङ्गादिति यावत् । विजातीयकृतिमत्त्वेन = घटानुकूलकृतिमत्त्वेन रूपेण तथात्वे = घटत्वाद्यवच्छिन्नं प्रति हेतुत्वाऽभ्युपगमे, कुलालादिव्यक्तेः कर्तृत्वसम्भवेऽपि, पुनः ईश्वरासिद्धेः, कुलालादेः स्वप्रयोज्यविजातीयसंयोगसम्बन्धेन खण्डघटात्पत्तिकालऽपि सत्त्वात् । एतेन -> 'खण्डघटं पक्षीकृत्य कुलालादिकृतिजन्यत्त्वसाधने जीवरूपलालकृतेबांधादीश्वर
मर्थस्यैव कलालल्वेन तादशकलालत्वस्येश्वरेऽपि स्वीकारसम्भवात् । अत एव 'नमः कलालेभ्य' इति श्रुतिरपि सङ्गच्छते' <- (मु.रा.रू.पृ.४६) इति रामरुद्रभट्टवचनं प्रत्युक्तम् ।
यह भी ध्यातव्य है।
* दीधितिकारमनिरास * एतेन ख, इति । ईश्वर की सिद्धि के लिए दीधितिकार रघुनाथशिरोमणि का यह मन्तव्य है कि -> "घटसामान्य के प्रति कुलाल की कृति, पटसामान्य के प्रति कुविन्द की कृति = यत्न कारण है। मगर खण्ड घट की उत्पत्ति कुलालकृति के बिना और खण्ड पट की उत्पत्ति कुविन्दकृति के बिना ही होती है। मगर उपर्युक्त कार्य-कारणभाव तो प्रामाणिक ही है। अतः उक्त कार्य-कारणभाव के अनुरोध से खण्ड घटादि के कारणविधया ईश्वरीय प्रयत्न की सिद्धि होती है । मतलब कि खण्ड घटादि का कर्ता ईश्वर है । इस तरह खण्डघटादिकर्ता के स्वरूप में ईश्वर की सिद्धि होती है" - मगर इसका निराकरण तो -> 'कुलालादि की कृति का जन्यतावच्छेदकीभूत घटत्वादि सौवर्ण घट आदि की भाँति खण्ड घट आदि से भी ब्यावृत्त है' <- इस पूर्वोक्त कथन से ही हो जाता है। दूसरी बात यह है कि खण्ड घटादि के कर्ता के स्वरूप में ईश्वर का स्वीकार करने पर तो घटत्वावच्छिन = यावत् घट के प्रति कुम्भकारत्व रूप से हेतुता का भी विलय हो जायेगा। जिस नियम के आधार पर दीधितिकार ईश्वर की सिद्धि कर रहे हैं, उसी नियम का भंग ईश्वर की कल्पना से हो जाता है। अतः खण्ड घटादि के कर्तृविधया ईश्वर की कल्पना अप्रामाणिक है। यहाँ दीधितिकार की ओर से यह कहा जाय कि -> "घटत्वावचिन के प्रति कुम्भकारत्वेन हेतुता नहीं है, किन्तु विजातीयकृतिमत्त्वसम्बन्ध से हेतुता है। मतलब कि घटनिष्ट घटत्वावच्छिन्न कार्यता से निरूपित कारणता का अवच्छेदक धर्म कुलालच नहीं, अपितु विजातीयकृतिमत्त्व है । कुविन्दादि | में असमवेत ऐसी घटजनक कृति = यत्न का सूचन करने के लिए विजातीयत्व का कृति के विशेषणविधया ग्रहण किया है। तादृश विजातीयकृतिमत्त्व का आश्रय खण्ड घटोत्पत्तिस्थल में कुलाल नहीं हो सकता है, क्योंकि बिना कुलाल के खण्ड घट की उत्पत्ति होती है। अतः तादृश विजातीयकृतिमत्त्व के अधिकरणविधया ईश्वर की सिद्धि हो जायेगी और विजातीयकृतिमत्त्व में घटत्वावच्छिन्न कार्यता से निरूपित कारणता की अवच्छेदकता का राध = भंग भी नहीं होगा। इस तरह सौंप भी न मरे और लाठी भी नहीं टूटे" - तो यह कथन भी अप्रामाणिक है, क्योंकि विजातीयकृतिमत्त्व को घटकारणतावच्छेदक मानने । पर भी ईश्रर की सिद्धि नहीं हो सकती है। खण्ड घट के कारणतावच्छेदक विजातीयकृतिमत्त्व का अधिकरण चैत्र आदि । भी हो सकता है, जो घट को गिराता है। अतः विजातीयकृतिमत्त्व के आश्रयविषया ईश्वर की कल्पना नहीं की जा सकती।