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५३३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * आरभ्याऽऽम्भवादस्य स्वीकर्तव्यत्त्वम् * वात् । चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्तमेव पटानुत्पत्तौ पूर्व-पूर्वीक्रयाया वैय_प्रसगेनाऽऽरभ्यारम्भवादस्यैव युक्तत्वात् । एवं सति 'पदे पट' इतिप्रतीति: स्यादिति चेत् ? तर्हि पटत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपक
* जयलता * द्विकपालघटे समवायेन कपालत्वस्याऽभ्युपगमे किञ्चिद्बाधकमास्त, सति बटे सर्वदा 'कपालमयो घट' इतिप्रतीतेः जायमानत्वात् । साक्षात्सम्बन्धसम्भवे परम्परासम्बन्धकल्पनाया अन्याय्यत्त्वात्, गौरवात् ।
___ वस्तुतः स्वनये 'एतानि कपालान्येव घटतया परिणतानी तिप्रतीत्याऽवयवावयविनोः स्यादभेदसंसर्गो यथा सिध्यति तथैव 'वह्निपरिणतोऽयोगीलक' इतिप्रतीत्या तदानीं तयोरपि कथञ्चिदभेद इष्ट एव । तदुक्तं प्रवचनसारे ‘परिणमदि जेण दव्वं तत्काल तम्मयत्ति पणत्तं' (प्र.सा.१/८) इति । इयांस्तु विशेषो यत् - स्वावयवावयविनोरेकप्रदेशभावेनाऽभेदोऽनयोस्त्वेकावगाहताभावेनेति पूर्वमुक्तमेव ।
ननु कथञ्चित्कालत्वस्य घटवृत्तित्वे तु तयोः स्यादभेदः प्राप्तः । न चेष्टापत्तिरिति वक्तव्यम्, कपालोत्पत्तिसमये एव घटोत्पत्त्यापनेरिति चेत् ? मैवम्, तदानीं कपालाऽभिन्नत्वेन रूपेण घटस्पोत्पादे बाधकाभावात् । न चान्त्यसमये एव घट | उत्पद्यते न च त्वचरमसमयेऽपीति वाच्यम्, तथा सति मृदानयन-मर्दन-पिण्डविधान- चक्रारोपण-भ्रमणादिपूर्वपूर्वक्रियाया वैयर्थ्यांपत्तेः । न चोत्पन्नस्य पुनरुत्पत्तिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, स्यात्कपालाभिन्नत्वेन रूपेण घटस्य तदानीमुत्पन्नत्वेऽपि घटत्वेनाऽनुत्पन्नत्वात् । एवमेव पटस्थलेऽपि वक्तव्यमित्याशयेन प्रकरणकृदाह- चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्तमेवेति । एवकारेणाञ्चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्तक्षणव्यवच्छेदः कृतः । पटानुत्पत्ती = अचरमतन्तुकत्वेन रूपेण पटस्याऽनुत्पत्ती, पूर्व-पूर्व क्रियायाः = द्विचरम-विचरमादितन्त्वातान-वितानादिक्रियायाः, वैयर्थ्यप्रसङ्गेन आरभ्यारम्भवादस्य = आरभ्यत्वेनाऽभिमतस्य प्रतिकर्म प्रतिक्षणं च कथश्चिदारम्भ इति बादस्य एव युक्तत्त्वादिति । एतेन द्वितन्तुकपटात् तन्त्वन्तरसंयोगेन त्रितन्तुकपटोत्पत्तिरपि व्याख्याता ।
परः शकते- एवं सतीति । द्वितन्तुकपटादेव तन्त्वन्तरसंयोगेन वितन्तुकपटोत्पादाभ्युपगमे सति, त्रितन्तुकपटस्य द्वित| न्तुकपटजन्यत्वेन 'पटे पट' इतिप्रतीतिः स्यात्, समवायिकारणस्यैव स्वकार्याधिकरणत्वादिति शङ्काशयः । प्रकरणकृत् समाधत्ते i - तीति । पटत्वावच्छिन्नाधेयतानिरूपकतावच्छेदकत्वं = पटत्वेनाऽवच्छिन्नाया आधेयताया यो निरूपको धर्मी तनिष्ठाया
| होने से ही उसमें तीनकपालवाले घट का जनक विजातीय संयोग भी उत्पन्न हो सकता है । इस तरह कुलाल, दण्ड, चक्र, चीवर आदि के बिना भी घट की उत्पत्ति मुमकिन होने से कुलालादि को भी घटत्वावच्छिब का कारण न मान कर घर का प्रयोजक मानना ही उचित है । इस तरह घटादि कार्य स्वइन्य से जन्य होने के सबब उपादानविशेप्यक प्रत्यक्ष आदि से साध्य नहीं है . यह सिद्ध होने से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती है, यह उपर्युक्त विचारधारा का निष्कर्ष है।
ॐ यमाणे कडे' सिद्दान्त से ज्यारम्भताद चरम. इति । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अवयवविजातीयसंयोग को कार्यजनक मानने वाले नैयायिक विद्वानों के मतानुसार चरमतन्तुप्रवेशपर्यन्त पटात्मक कार्य उत्पत्र नहीं होता है। मगर ऐसा मानने पर पूर्व-पूर्व क्रिया व्यर्थ होने का प्रसंग उपस्थित होता है, क्योंकि पूर्वकालीन क्रिया बीत जाने पर भी पट अनुत्पन्न ही है। पूर्वकालीन क्रिया में निरर्थकता की आपत्ति को दूर करने के लिए यही मानना उचित है कि तत् तत् क्षण में जो आरभ्यमाण है, वह उसी क्षण में उत्पन्न हो जाता है । जैसे सप्ततन्तुप्रवेश के समय सप्ततन्तुक पर आरभ्यमाण है और वह उसी समय उत्पन्न हो जाता है । अष्टतन्तुप्रवेश के समय अष्टतन्तुक पट आरभ्यमाण है और वह उसी समय उत्पत्र हो जाता है। ऐसा मानने पर पूर्व-पूर्व क्रिया के वैफल्य का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित नहीं होता । अतः चरमनन्तुप्रवेश के समय तत्संख्याकतन्तुक पट आरभ्यमाण है और वह उसी क्षण में उत्पन्न हो जाता है । उस क्षण के पूर्व वह आरभ्यमाण ही नहीं होने से पूर्व-पूर्व क्रिया के होने पर भी उसकी उत्पत्ति नहीं होती है एवं पूर्व-पूर्व क्रिया के नैफल्य का दोष भी प्रसक्त नहीं होता है, क्योंकि पूर्व-पूर्व क्रिया से आरभ्य | तत् तत् पट की उत्पत्ति तत् तत् क्षण में हो चुकी है। अतः आरभ्य आरम्भबाद ही युक्त है । यहाँ यह शंका हो कि
-> "पटात्मक कार्य का अपने कारण तन्तु से अभेद मानने पर तो जैसे 'तन्तौ पट:' यह प्रतीति प्रामाणिक होती है ठीक वैसे ही 'पटे पटः' यह प्रतीति भी प्रामाणिक हो जायेगी, क्योंकि अधिकरणविधया प्रतीयमान तन्तु से अभित्र पट का तन्तु के स्थान में उल्लेख या प्रवेवा निरावाध रूप से हो सकता है। अतः 'पटे पटः' यह प्रतीति प्रामाणिक होने लगेगी"
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