Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 243
________________ * वृहदारण्यकवचनसमीक्षणम् प्रशासने गार्गी ! द्यावापृथिवी विधृते तिष्ठत' (बृहदा. ३/८/९ ) इति चेत् ? न, तत्प्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूतधारणानुकूलत्वस्य तत्कृताविव तज्ज्ञानादावपि सम्भवेन विनिगमनाविरहात् । तादृशकृतेर्घटादावपि सत्त्वेन घटादिपतनस्याऽप्यनापत्तेश्च । घटादिभेदविशिष्टविशेव्यतासम्बन्धेन प्रतिबन्धकतयाऽनतिप्रसङ्गे तु लाघवात् घटादिभेदस्यैव तत्त्वौचित्यात् । * जयलता सूर्याचन्द्रमसौ विद्युतौ तिष्ठतः, एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! द्यावापृथिव्यां विधृते तिष्ठतः, एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि : निमेषा मुहूर्त्ता अहोरात्राभ्यर्धमासा मासा ऋतवः संवत्सरा इति विधृताः तिष्ठन्ति एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! प्राच्योऽन्या नद्यः स्पन्दन्ते श्वेतेभ्यः पर्वतेभ्यः प्रतीच्योऽन्या यां यां च दिशमनु, एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि ! ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति यजमानं देवा दव पितरोऽन्वायत्ता: (बृ.उप. ३ / ९) इत्येवं सम्पूर्णः पाठः समुपलभ्यते । प्रकरणकृत्तदपास्यति नेति । तत्प्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूतधारणानुकूलत्वस्य = द्यावापृथिवीपतननिष्ठया प्रतिबध्यतया निरूपिताना. प्रतिबन्धकपूतस्य पारगुकूलत्वस्य तत्कृताविव ईश्वरसमवेत प्रयत्न इव तज्ज्ञानादावपि = त्रिलोचनसमवेतज्ञानचिकीर्षयोरपि सम्भवेन प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभावे विनिगमकाभावेन प्रतिबध्यलक्षणकार्य प्रतिबन्धका भावलक्षणक्रारणयोः फल-फलवद्भावेऽपि विनिगमनाविरहात् 'यदीयधारणानुकूलप्रयत्नेन द्यावापृथिव्योः पतनप्रतिबन्धः' इति नैयायिकोक्तिरसङ्गतेति भावः । दोषान्तरमाह - तादृशकृते: = द्यावापृथिवीपतननिष्ठप्रतिबध्यतानिरूपितप्रतिबन्धकतावच्छेदकी भूतधार'गानुकूलत्वविशिष्टेश्वरीयप्रयत्नस्य, स्वनिष्ठविशेष्पितानिरूपितविशेष्यतासम्बन्धेन पृथिव्यादाविव घटादावपि सत्त्वेन घटादिपतनस्याऽपि अनापत्तेः = असम्भवप्रसङ्गात् घटादौ समवायेन पतनक्रियाया अनुत्पत्तिप्रसङ्गादिति यावत् प्रतिबन्धकसत्त्वं साम|ग्रीवैकल्येन कार्योत्पादाऽयोगात् । एतेन धारणानुकूलज्ञानचिकीर्षाकृतीनां स्वातन्त्र्येणाऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां पतनप्रतिबन्धकल्पकल्प| नाऽपि प्रत्युक्ता, गौरवाच ॥ - ४४० = = = ननु तादृशकृतेः न स्वविशेष्यतासम्बन्धन प्रतिबन्धकत्वं किन्तु घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासंसर्गेण तत्त्वम् । चन्द्रादी घटादिभेदस्य धारणानुकूलेश्वरीयकृतिनिरूपित्तविशेष्यतायाश्च सत्त्वेन तादृशकृतेः घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन तत्र सत्त्वान्न तत्यतनम् | बटादेः तादृशकृतिविशेष्यत्वेऽपि घटादिभिन्नत्वविरहेण तत्र तादृशः घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेनाऽसत्त्वान्न तत्पतनानुपपत्तिः प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धेन प्रतिबन्धकस्य विरहादिति पराशङ्कायामाह - घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्धेन धारणानुकूलेश्वरीयकृतेः प्रतिबन्धकतया प्रतिबन्धकताकल्पनया, अनतिप्रसङ्गे घटादिपतनानुपपत्तिवारणे तु लाघवात् घटादिभेदस्यैव तत्त्वौचित्यात् = पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनाया न्याय्यत्वात् । कालिकेन प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धघटकीसे उनका धारण किया जा रहा है । धुलोकादि को मनुष्यादि तो अपने प्रयत्न से धारण नहीं कर सकते, क्योंकि वे असमर्थ है। जिसके प्रयत्न से ब्रह्माण्ड आदि का पत्तन नहीं होता है, वह ईश्वर से अन्य कोई नहीं हो सकता । अतः ब्रह्माण्डधारणानुकूल प्रयत्न के आश्रयविधया भगवान् भवानीपति शंकर सिद्ध होते हैं । वेद भी ईश्वर को ही युलोक पृथ्वीलोक आदि का भारक बताता है । जैसे 'एतस्य च अक्षरस्य प्रशासने गार्गी ! द्यावापृथिवी विद्युते तिष्ठत:' इस वेदवाक्य में गार्गी नामक महिला को सम्बोधित कर के यह कहा गया है कि कभी भी अपने स्वरूप से च्युत न होने वाले परमेश्वर के प्रशासन में युलोक और पृथ्वीलोक अपने स्थल में पतित न होते हुए स्थित है। अतः स्वर्गलोकादि के धारक महेश्वर ही है - यह वेदवाक्य से भी फलित होता है । ** पृथ्वीलोकादि के पतनाभाव से ईश्वरसिद्धि नामुमकिन- स्याद्वादी न तत्प्र इति । व्याख्याकार श्रीमद्जी महामहोपाध्यायजी उपर्युक्त नैयायिकमत को यह कह कर आयुक्त बताते हैं कि पृथ्वी आदि गुरुतम पदार्थ के पतन का प्रतिबन्धक केवल धारणानुकूल प्रयत्न नहीं हो सकता, मगर धारणानुकूल ज्ञान एवं धारणानुकूल चिकीर्षा भी पतनप्रतिबन्धक हो सकती है, क्योंकि पतनप्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूत धारणानुकूलत्व प्रयत्न की भाँति ज्ञानादि में भी मुमकिन है । अतः पृथ्वीलोक आदि के पतनाभाव में प्रयत्नविशेष को कारण = प्रयोजक मानना या ज्ञानविशेपादि को ? इस विषय में विनिगमनाविरह है । अतः पृथ्वीलोकादिपतनाभावनिमित्त कृतिविशेष के आश्रयविधया महेश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त दोष यह है कि यदि ब्रह्मांउपतनप्रतिबन्धकविधया कृतिविशेष की कल्पना करने पर तो तादृशकृति विशेष्यतासम्बन्ध से जैसे पृथ्वीलोक आदि में रहती है, ठीक वैसे ही घटादि पदार्थ में भी रहने

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