Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 244
________________ ४४१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ५ का ५ पृथिव्यादिपतनप्रतिबन्धवलेन नेश्वरसिद्धिः वस्तुतः स्वभावाश्रयणस्यैव योग्यत्वाच्च । एतेन 'द्यावापृथिव्योः धृतिः कस्यचित् * जयलता भूतवैशिष्ट्यविवक्षणे तु पुनः बटादिपतनानापत्तेः । दैशिकविशेषणतया वैशिष्ट्योपगमेऽपि घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतायाः पतनप्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धत्वं यदुत स्वविशष्यताविशिष्टघटादिभेदस्येत्यय विनिगमनाविरहस्याऽनिराकार्यत्वात् । न च स्वविशेयता यदादिभेदो भयसंसर्गेण प्रतिबन्धकत्वाऽङ्गीकारे न क्षतिरिति वाच्यम्, प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धकुक्षिनिविष्टेन क्लुसेन घटादिभेदेनेव द्यावापृथिव्याद्यपतनोपपत्ती अक्लृप्तेश्वरीयधारणानुकूल प्रयत्ने गुरुतरोक्तसम्बन्धेन प्रतिबन्धकत्वकल्पनायां गौरवात्, घटादिभेदेनैव तदन्यथासिद्धेश्व । न च घटत्व पटत्वाद्यवच्छिन्नानन्तभेदानां तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवेण लाघवात्कृतिविशेषस्यैव तत्त्वमस्त्विति वाच्यम्, घटपटादिसमूहप्रतियोगिव भेन तदोषतादवस्थ्यं, घटेऽपि | तादृशभेदस्य सत्त्वात्, न हि घटी घटपटमठादिकूटात्मको भवतीति वाच्यम्, घटपदाद्यन्यतमत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन प्रतिबन्धकत्वविवक्षणात् । घटे घटपदाद्यन्यतमत्त्वस्य सत्त्वेन तदवच्छिन्नप्रतियोगिताकान्योन्याभावाऽसम्भवात्, भेदस्य स्वप्रतियोगिताबच्छेदकव्यधिकरणत्वनियमादिति न द्यावापृथिव्यादि - पतनप्रतिबन्धकाश्रयविवया शिवसिद्धिरित्यत्र प्रकरणकृतः तात्पर्यम् । प्रकृते तदन्यत्वे सति तदन्यत्वे सति तदन्याऽन्यत्वरूपस्याऽन्यतमत्वस्य प्रतिबन्धकतावच्छेदकधर्मकोटी प्रवेशेन गौरवमित्यस्वरसं हृदि निधाय प्राह वस्तुत इति । स्वभावाश्रयणस्यैव योग्यत्वाचेति । द्यावापृथिव्याद्यनुगतस्वभावस्यैव पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनाया योग्यत्वाचेत्यर्थः । एवकारेण धारणानुकूलकृत्यादेर्व्यवच्छेदः कृतः । स्वभावविशेषेणैव तत्पतनाभावोपपत्ती न नीलकण्ठसिद्धिरित्याकूतम् । एतेन स विश्वकृत् स हि सर्वस्य कर्ता' (बृ.उप. ४/५/१३), 'वैशान्तान् पुष्करिणी नवन्तीः सृजते स हि कर्ता' (बृ.उप.४ / ३ / १० ) इति बृहदारण्यकोपनिपवचने निरस्ते, 'न तस्य कार्य करणं च विद्यते' (श्वे. उप. ६/८) इति वेताश्वतरोपनिपवचनविरोधप्रसङ्गान् । से घटादि का भी पृथ्वीलोकादि की भाँति पतन नहीं होगा । पतनप्रतिबन्धक होने पर पतन कैसे हो सकता है ? यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि " केवल विशेष्यतासम्बन्ध से धारणानुकूल प्रयत्न को हम प्रतिबन्धक नहीं मानते हैं किन्तु घटादिभेदविशिष्टविशेप्यतासम्बन्ध से धारणानुकूल प्रयत्न को हम प्रतिबन्धक मानते हैं । पृथिवीलोक, सूर्य, चन्द्र आदि में घटादिभेद एवं प्रयत्नविशेष की विशेष्यता दोनों रहने से ईश्वरीय धारणानुकूल प्रयत्न घटादिभिन्नत्वविशिष्टविशेष्यतासम्बन्ध से पृथ्वीलोक, सूर्य आदि में रहेगा, जिनका पतन नहीं होता है । घटादि पदार्थ में यद्यपि तादृशप्रयत्न की विशेष्यता रहती है, मगर घटादिप्रतियोगिक भेद नहीं रहता है। अतः सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से घटादिभेदविशिष्टविशेष्यतासम्बन्ध से तादृशप्रयत्न पदादि में नहीं रहता है। अतः घटादि के पतन का कभी भी नहीं होने का अनिष्ट प्रसंग उपस्थित नहीं होगा । प्रतिबन्धकतावच्छेदक सम्बन्ध से प्रतिबन्धक न होने पर कार्योत्पाद का प्रतिबन्ध कैसे हो सकता है ?" - * स्वभावविशेष हो पतनाभाव में जियागक - स्याद्वादी तु लाथ इति । तो यह नैयायिककथन भी नामुनासिब ही है, क्योंकि ईश्वरीय धारणानुकूल प्रयत्न को पटादिभेदविशिष्ट विशेष्यतासम्बन्ध से पतन का प्रतिबन्धक मानने की अपेक्षा उचित यही है कि प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्धशरीर में प्रविष्ट घटादिभेद को ही पतन का प्रतिवन्धक माना जाय, क्योंकि ऐसा मानने में लाघव है । नैयायिकमत में गुरुतर प्रतिबन्धकतावच्छेदकसम्बन्ध की कल्पना का गौरव है, जो घटादिभेद को प्रतिबन्धक मानने पर अप्रसक्त है । युलोक आदि में पटादिभेद के रहने से उसका पतन नहीं होता है । घटादि में घटादिभेद नहीं रहने से उनका पतन हो सकता है । प्रतिबन्धक न होने पर उसके पतन का प्रतिरोध कौन करेगा ? इस तरह पतन और घटादिप्रतियोगिक भेद में प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव की उपपत्ति हो जाने से प्रतिबन्धकाश्रयविधया महेश्वर की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? वस्तुस्थिति तो यह है कि अत्यंत लाघव से गुलोक - पृथिवीलोक आदि में अनुगत स्वभाव को ही पतन का प्रतिबन्धक मानना मुनासिव है। सूर्य, चन्द्र आदि गुरुतर होने पर भी उनमें पतनप्रतिबन्धक स्वभावविशेष होने की वजह उनका पतन नहीं होता है । घट, पट आदि में पतनप्रतिबन्धक स्वभावविशेष नहीं होने से पतनसामग्री से घटादि का पतन हो सकता है । इस तरह प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव की संगति होने पर ईश्वर की सिद्धि कैसे हो सकती है ? क्योंकि उक्त प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव या कार्यकारणभाव के शरीर में कृति प्रयत्न का निवेश ही नहीं किया गया है, जिसके आश्रयविधया शिवजी की सिद्धि हो सके। एतेन इति । यहाँ नैयायिक मनीषी ईश्वर की सिद्धि करने के लिए यह अनुमान प्रयोग करते हैं कि "युलोक और

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