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१३ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५
योगशाखसंवादः * || तत्वेनाऽऽद्रियतां किमतिरिक्तकृतिकल्पनया, किं वा धृतेः प्रतिबन्धकत्वकल्पनया ?
___ धृते: पतनप्रतिबन्धकत्वमन्यत्र क्लुप्तं नाऽदृष्टस्य, धृतित्वावच्छिनं प्रति च कृतित्वेन हेतुत्वमवधृतमिति जगत्पतनप्रतिबन्धकधृतिजनकैककृतिसिन्दिरिति चेत् ? त, एवं
* गयलता है नैयायिकेन, कि अतिरिक्तकृतिकल्पनया = अक्लृप्तनंदीश्वरप्रयत्नकल्पनया सृतम् । किं = अलं वा धृतेः प्रतिबन्धकत्वकल्पनया = द्यावापृधिन्योः पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनया । अयं समाधानाशयः समवायन पतनक्रियां प्रति समयायेन धृते: प्रतिबन्धकत्वकल्पनं, समवायेन धृति प्रति विदोष्यतया कृतेः कारणत्वकल्पनं तत्रापि घटादी धृत्यनुत्पत्तये दृष्टविशेषस्य कृतिसहकारिकारणत्वमित्यादिक्लिष्टकल्पनाऽपेक्षया बरमदृष्टविदोषस्यैव द्यावापृथिव्याः पतनप्रतिबन्धकत्वकल्पनं, लाघवात् । एतेन पतनाभावावच्छिन्नेश्वरप्रयत्नस्य धृतिजनकत्वमित्यपरास्तम् तादृशज्ञानेच्छाभ्यां विनिगमनाविरहात, क्लृप्तजातीयस्या दृष्टस्यैर ब्रह्मा
धारकत्वकल्पनाचित्यात् । तदुक्तं योगशास्त्र मूलकाररपि -> निरालम्बा निराधारा विश्वाधारा वसुन्धरा । यच्चावतिष्ठते तत्र धर्मादन्यन्न कारणम् ।। (यो.शा.४/९८) इति । न चाऽऽत्माऽविभुत्ववादिनः सम्बन्धानुपपत्तिरिति वक्तव्यम्, असम्बद्भस्यापि तत्कार्यजननशक्तस्य तत्कार्यकारित्वात, अयस्कान्तस्याऽसम्बद्भस्यापि लोहाडकर्षकत्वदर्शनात । अदृष्ट
। अदविशेषस्यानभ्युपगमे तु, जगदीशप्रयत्नस्य व्यापकत्वेन समरेऽपि झरपातानापत्तेः । ततश्च लाघवादृष्टविशेषस्यैव ब्रह्माण्डादिपतनप्रतिबन्धकत्वमभ्युपगन्तव्यम् । शिवऽदृष्टानभ्युपगमाज्जीवात्मनामेव तादृशाऽदृष्टविशेषाश्रयत्वेन नोमापतिसिद्धिलेशगन्धलेशोऽपि ।
परः शकते अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्याऽन्वयः । धृतेः पतनप्रतिवन्धकत्वं अन्यत्र = घटादिषतने क्लुप्त = प्रमाणसिद्धं, नादृष्टस्य । अरमदादिधृतौ सत्यां घटादेरपतनं तदसत्त्वे च तत्पननमित्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां धृतेः पतनप्रतिबन्धकलं सिद्धम् । न चैवमन्वयव्यतिरेकाभ्यामष्टस्य पतनप्रतिबन्धकत्वं सिद्धमिति माइष्टविशेषस्य द्यावापृथिव्योः पतनप्रतिबन्ध. कत्वकल्पनं युक्तम्, दृष्टहान्यदृश्कल्पनादोषप्रसङ्गात् । धृतित्वावच्छिन्नं = समवायेन विलक्षणसंयोगलक्षणधृतिमात्रं, प्रति च कृतित्वेन हेतुत्वं = विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्न-कृतित्वावच्छिन्नकारणत्वं अवधृतं = अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां निश्चितं इति नाs. निरिक्ककार्यकारणभावकल्पनागौरवम् । एतत्कार्य-कारणभावबलादेव लाघवसहकृतात जगत्पतनप्रतिबन्धककृतिजनकैककृतिसिद्धिरिति तादृशनित्यैककृत्याश्रयविषया चन्द्रशेखरसिद्धिः गौरवपरिहारश्चेति नैयायिकाशयः ।
प्रकरणकृत्तमपाकुरुते - नेति । एवं सति = अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां धृतिमात्रं प्रति कृतेः हेतुत्वाऽङ्गीकारे सति,
ही ब्रह्मांडादि के पतन का प्रतिबन्धक मानना उचित है, क्योंकि अदृष्टविशेष और ईश्वरीय कृति दोनों को ब्रह्माण्ड आदि की धृति का कारण मानना और धृति को ब्रह्माण्ड आदि के पतन में प्रतिवन्धक मानना- इस कुसृष्टि कल्पना की अपेक्षा मुनासिव तो यही है कि लाघव से अवश्यक्तृप्त अदृष्टविशेप को ही ब्रह्माण्ड आदि के पतन का प्रतिबन्धक माना जाप । अतिरिक्त | अप्रामाणिक ईश्वरीय प्रयत्न की और धृति में पतनप्रतिरन्धकता की कल्पना करने का कष्ट क्यों अपने शिर पर ऊठाना ?
# ईश्वर को शारीसी मानने की आपत्ति अथ धृ. इति । यहाँ यह नैयायिक कधन कि -> "ति पतन की प्रतिवन्धक है, यह तो अन्यत्र पद, पट आदि की धृति में प्रसिद्ध एवं आवश्यक है । जब तक चैत्रादि घट आदि को धारण करता है, तब तक उनका पतन नहीं होता है । अतः पतनप्रतिवन्धकना धृति में घटादि के पतनाभाव के अनुरोध से सिद्ध है । इसीलिए जब चैत्रादि घट आदि को पारण नहीं करता है, तब उनका शीघ्र ही पतन होता है । अन्वय-व्यतिरेक से धृति में पतनप्रतिबन्धकता सिद्ध है । मगर अदृष्ट में अन्चय-व्यतिरेक से धृति में पननप्रतिबन्धकता सिद्ध नहीं है । अदृष्ट होने पर घटादि का अपतन और अदृष्ट नहीं होने पर घटादि का पतन होता है, यह अन्वय-व्यतिरेक से मिद नहीं है । तब जीवों के अदृष्ट को ब्रह्माण्ड आदि के पतन का प्रतिबन्धक कैसे माना जा सकता है ? अतः धृति को ही ब्रह्माण्ड आदि के पतन का प्रतिवन्धक मानना मुनासिब है। एनं धृतिमात्र के प्रति कृति कारण है, यह भी अन्वय-व्यतिरेक से सिद्ध है। इस तरह कृति में भी धृतिकारणता कल्पनीय नहीं है, अवश्यक्लप्त है। इस परिस्थिति में हमारे मत में गौरख कहाँ ? प्रसिद्ध प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव और कार्य-कारणभाव ही लाघवसहकार से जगत् के पतन में प्रतिबन्धक धृति के जनक एक प्रयत्न को सिद्ध करता है, जिसका आश्रय होने का श्रेय ईश्वर को ही दिया जा सकता है । अतः ब्रह्माण्डपतनप्रतिबन्धक धृति के कर्ता के स्वरूप में महेश्वर का अंगीकार करना