Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 225
________________ देरेव तत्राऽभावात् । अवच्छेदकतया चैत्रादिविशिष्टत्वं हि तत्, न च तन्नित्यज्ञाने सम्भवतीति । * = = जयलता नित्यैकप्रत्यक्षे अभावात् । तत्र = I ननु चैत्रादिजीवात्मस्वेव नित्यैकप्रत्यक्षाङ्गीकारे कथं न तत्र चैत्रीयत्वादिकं, येन प्रतिबन्धकतावच्छेदकविशिष्टस्य विषयतया शुक्त्यादी विरहः स्यात् ? इत्याशङ्कायां प्रकरणकृदाह- अवच्छेदकतया स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतासम्बन्धेन, चैत्रादिविशिष्टत्वं चैत्रादिशरीरविशिष्टत्वं हि तत् प्रतिबन्धकीभूतबाधबुद्धिनिष्ठं चैत्रीयत्वादिकम् । न च तत् = निरुक्तसम्बन्धेन चैवादिशरीरवैशिष्ट्यं नित्यज्ञाने चैत्रादिजीवात्मवृत्तितयाऽभ्युपगम्यमाने, सम्भवाति । अयमन्त्राभिसन्धिः अनित्यज्ञानं विभावात्मनि शरीरावच्छेदेनोत्पद्यते इति नैयाधिकराद्धान्तः । अत एव सर्वेषामात्मनां विभुत्वेऽपि न शरीरेतरावच्छेदेन ज्ञानप्रतीति: । चैत्रीयबाधधीश्चैत्रीयशरीरावच्छेदेन चैत्रात्मनि वर्तते । स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतासंसर्गेण च चैत्रशरीरं तस्यां वर्तते, स्वस्मिन् चैत्रशरीरेनिष्ठया अवच्छेदकतया निरूपिताया अवच्छेद्यताया तद्वाधबुद्धी सत्त्वात् । निरुक्तसंसर्गेण चैत्रशरीरविशिष्टा बाधधीरेव चैत्रीय वाधबुद्धिरित्यनुच्यते । परमेवं नित्यज्ञाने वक्तुं न पार्यते, तस्य निरबच्छिनत्वेन शरीरस्य तदवच्छेदकत्वाऽसम्भवात् । नित्यैकप्रत्यक्षस्य चैत्रादिजीवात्मवृत्तित्येऽपि निरुक्तसम्बन्धेन चैत्रादिशरीरविशिष्टत्वविरहात् न तस्य भ्रमप्रतिबन्धकत्वम् । इत्थञ्च चैत्रादिजीवात्मनां भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदकविशिष्टशून्यत्वेन भ्रमोत्पादो निराबाधः । न च भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदककुक्षिप्रविष्टं चैत्रीयत्वादिकं नावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतया चैत्रादिशरीरविशिष्टत्वं गौरवात्, किन्तु स्वसमवेतत्वसम्बन्धेन चैत्राद्यात्मवत्त्वमेव । तच चैत्रादिजीवात्मवृत्तिनित्यैकप्रत्यक्षेऽपि सम्भवतीति रज्ज्वादौ सर्पादिभ्रमो ऽनुत्थानपराहत एव जीवात्मसु नित्यप्रत्यक्षाभ्युपगमे इति वाच्यम्, तर्हि नानाजीवात्मसु एव व्यासज्यवृत्ति नित्यैकप्रत्यक्षमभ्युपगम्यतां, स्वमात्रनिष्ठपर्याप्तिनिरूपकत्वसम्बन्धेन चैत्रवत्त्वादेरेव बाधबुद्धिनिष्ठप्रतिबन्धकतावच्छेदककुक्षौ निवेशोऽस्तु । न चोक्तसंसर्गेण चैत्रवत्त्वादेर्बाधबुद्ध निवेशोऽन्यत्राऽसम्भवीति नात्रैवं तत्प्रवेशी युक्तो गौरवादिति वाच्यम्, 'द्वित्वं द्वयोरेव पर्याप्तमितिप्रतीत्या पर्याप्तिसम्बन्धेन घटपदयोर्द्वित्ववत् 'देवदत्तज्ञानं देवदत्ते एवं पर्याप्तमित्यबाधितानुभवबलेन पर्याप्तिसम्बन्धेन लौकिकदेवदत्तीयबाधबुद्धेर्देवदत्तवृत्तित्वोपगमात् स्वमात्रनिष्ठपर्याप्तिनिरूपकत्वसंसर्गेण बाधबुद्धेर्देवदत्तविशिष्टत्वाद् देवदत्तीयभ्रमप्रतिबन्धकत्वसम्भवादित्यपि विभावनीयम् । 1 = ४५२ भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदकदेह में चेत्रीयत्व, मैत्रीयत्व आदि का निवेश करना आवश्यक है। मगर नित्य प्रत्यक्ष में भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदक चैत्रीयत्व आदि नहीं रहता है । इसका कारण यह है कि बाध बुद्धि में रहने वाले चैत्रीयत्वादि का मतलब है अवच्छेदकतासम्बन्ध से चैत्रादिविशिष्टत्व । नैयायिक के मतानुसार हमारा ज्ञान शरीरावच्छेदेन आत्मा में उत्पन्न होता है रहता है और प्रत्येक आत्मा नैयायिकमत में विभु द्रव्य है । अत: चैत्रीय ज्ञान का मतलब है अवच्छेदकता सम्बन्ध चैत्रविशिष्ट ज्ञान यानी स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपिताऽवच्छेद्यतासम्बन्ध से चैत्रवशरीरविशिष्ट ज्ञान । स्व = चैत्रशरीर, जो चैत्रात्मनिष्ठ चैत्रात्मसमवेत = ज्ञान का अवच्छेदक है। मैत्रसमवेत बाधज्ञान (= 'नेदं रजतं' इत्याकारक ज्ञान) में चैत्रशरीर स्वनिष्ठावच्छेद-कतानिरूपित अवच्छेद्यतासम्बन्ध से नहीं रहता है। अतः चैत्र को 'इदं रजतं' इत्याकारक भ्रम 'सकता है। इस तरह जब प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव सिद्ध होता है, तब नित्य प्रत्यक्ष 'इदं रजतं इत्यादि भ्रम का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता है । इसका कारण यह है कि नित्य ज्ञान नैयायिकमतानुसार शरीरावच्छेदेन आत्मा में नहीं रहता है । नित्य ज्ञान निरखच्छिन होता है, संपूर्ण आत्मा में वह रहता है। ईश्वर का नित्य प्रत्यक्ष नैयायिक के मतानुसार ईश्वर में शरीरावच्छेदेन नहीं रहता है, क्योंकि ईश्वर को शरीर ही नहीं होता है, किन्तु वह परमात्मा में निरवच्छिन्न होता है, संपूर्ण परमात्मा में रहता है। इसी सिद्धान्तानुसार चैत्र, मैत्र आदि जीवात्मा में रहने वाला नित्य प्रत्यक्ष भी निस्वच्छिन्नवृत्तिताक होगा, चैत्रादि का शरीर नित्य प्रत्यक्ष का अवच्छेदक नहीं हो सकता । अतः चैत्रादि जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष में स्वनिष्ठावच्छेदकतानिरूपितावच्छेद्यतासम्बन्ध से चैत्रादिशरीर नहीं रह सकते । इस तरह जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष भ्रमप्रतिबन्धकतावच्छेदकीभूत चैत्रादिशरीर से शून्य होने से 'इदं रजतं इत्यादि भ्रम का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । अतः चैत्रादि जीवात्मा में नित्य प्रत्यक्ष रहने पर भी जवात्मा को भ्रम होने में कोई हर्ज नहीं है । निष्कर्ष :- जीवात्मा में समवेत नित्य प्रत्यक्ष भ्रमप्रतिबन्धक नहीं है । * जीवात्मा में जित्य प्रत्यक्ष मानने में लाघव *

Loading...

Page Navigation
1 ... 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370