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* सम्भतितर्कवृत्तिसंवाद*
क्षत्वसिद्धिः, एवमपीन्द्रियादिजन्यतावच्छेदककोटौ जन्यत्वप्रवेशे गौरवस्य तुल्यत्वात् । किञ्च सकलकार्यजनक नित्यैकप्रत्यक्षसिद्धावपि नेश्वरसिद्धिः, गुणस्य साश्रयकत्वव्याप्तौ मानाभावात्,
* जयलता *
प्रकरणकारोऽभ्युपगमवादेन तन्निराकरोति एवमपीति । द्र्यणुकाद्युपादानगोचरेश्वरीयज्ञाने प्रत्यक्षत्वाऽभ्युपगमेऽपि इन्द्रयादिजन्यतावच्छेदककोटी इन्द्रिय- वासविकर्ष-वादिनिका निरूपितायाः कार्यताया अवच्छेदकत्वकुक्षौ जन्यत्वप्रवेशे गौरवस्य तुल्यत्वादिति । न ही वरीयोपादानज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वे इन्द्रियादिजन्यतावच्छेदकं प्रत्यक्षत्वं सम्भवति नित्यानित्यवृत्तितथा तस्य कार्यतानवच्छेदकत्वात् किन्तु जन्यप्रत्यक्षत्वस्यैव तत्त्वं परेण वाच्यम् । तथा च कार्यतावच्छेदकशरीरे जन्यत्वनिवेशस्तु | सम एव । न च मया जन्य प्रत्यक्षमात्रवृत्तिवैजात्यस्यैवेन्द्रियादिकार्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमान्न दोषः जन्यत्वादेः तत्परिचायकत्वादिति वाच्यम्, अतिरिक्त बैजात्यकल्पने गौरवात् मम जन्यानुमित्यादिमात्रवृत्तिवैजात्येऽपि परामर्शादिजन्यतावच्छेदकत्वस्य सुवचत्वात् । ततश्चानुमितित्वादिना विनिगमनाविरहान तस्य प्रत्यक्षत्वसिद्धिरिति स्याद्वाद्याशयः ।
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किञ्च, उपादानप्रत्यक्षस्य लौकिकस्य हेतुत्वात्कथमीश्वरे तत्सिद्धिः ? अस्तु वा तस्य प्रत्यक्षत्वं तथापि निराश्रयमेव | तदस्तु । दृष्टविपरीतकल्पनभिया तु नित्यज्ञानादिकमपि कथं कल्पनीयम् ? अभिहित श्रायमेवाऽर्थः →>> 'बुद्धिश्वेश्वरस्य यदि नित्या व्यापिकेवाऽभ्युपगम्यते, तदा संवाऽचेतनपदार्थाधिष्ठात्री भविष्यति इति किमपरतदाधारेश्वरपरिकल्पनया ?' <- इतनादिना सम्मतिटीकायामपीत्याशयेन प्रकरणकारो महेश्वरमुन्मिलयितुमभ्युपगमवादेन प्राह- किश्वेति । कार्य स्वोपादानप्रत्यक्षजन्यं कार्यत्वादित्यनुमानेन प्रकृते सकलकार्यजनकनित्यैकप्रत्यक्षसिद्धावपि नेश्वरसिद्धिः ।
ननु नित्यैकप्रत्यक्षसिद्ध सत्यामस्मदादिषु तद्वाधेन तदाश्रयविधयेश्वरसिद्धिरवश्यम्भाविनी, गुणत्वस्य साश्रयकत्वव्याप्यत्त्वात् । प्रयोगश्चैवं विवादास्पदीभूतं प्रत्यक्षं सायकं गुणत्वात्, घटनीलरूपवदित्याशङ्कायां प्रकरणकार : प्राह- गुणस्य 'साश्रयकत्वव्याप्तौ मानाभावादिति । स्वसमवायिकारणनाशानन्तरमेव गुण्णानां नाशाभ्युपगमात् क्षणमेकमनन्तानां गुणानां निर. धिकरणत्वात्तादृशव्याप्ती व्यभिचारेण मानाभावः । अनन्तानां गुणानां क्षणमेकमिव नित्यस्यैकस्य प्रत्यक्षस्यानन्तक्षणं निराश्रयत्वे बाधकाभावान्नेश्वरसिद्धिः ।
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पहले परामर्शादि की कार्यतावच्छेदक कोटि में जन्यत्र के निवेश का गौरव होता था, अब वह इन्द्रियादि की कार्यतावच्छेदक कोटि में प्रसक्त होता है; मगर कार्यतावच्छेदककोटि में जन्यत्व के प्रवेश का गौरव तो ज्यों का त्यों ही बना रहता है । अतः ईश्वरी परमाणु आदिगोचर ज्ञान भी प्रत्यक्षात्मक माना जाय या अनुमिति आदिस्वरूप ? इस समस्या का समाधान नैयायिक की ओर से नहीं दिखाया जा सकता । अत: परमाणु आदिस्वरूप उपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर की सिदिध नहीं हो सकती है - यह उपर्युक्त विचार से फलित होता है ।
* गुण में साश्रयकत्वव्याप्ति अप्रामाणिक *
कि इति । दूसरी बात यह है कि सकल कार्य के जनक एक नित्य प्रत्यक्ष को नैयायिक येन केन प्रकारेण सिद्ध करे तो भी उसके बल से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती है। यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि "नित्य प्रत्यक्ष की सिद्धि होने पर तो ईश्वर की सिद्धि उसके आश्रय के रूप में हो ही जायेगी, क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्ष गुण है और गुणमात्र आश्रित ही होता है - यह व्याप्ति है । जैसे उष्णस्पर्श गुण का आश्रय वह्नि होता है वैसे नित्य प्रत्यक्षात्मक गुण का आश्रय कोई न कोई तो होना ही चाहिए। उसका आश्रय जो होगा उसीको हम ईश्वर कहते हैं" तो यह नैयायिक उक्ति भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'जो जो गुण होता है वह साश्रयक = पराश्रित ही होता है' इस व्याप्ति में ही कोई प्रमाण नहीं है। घटना के बाद घटगुण का नाश होता है यह तो नैयायिक का ही सिद्धान्त है । अतः उस नियम
के अनुसार ही, विना घट के, घटगुण एक क्षण तो रहता ही है । उसमें गुणत्व होने पर भी साश्रयकत्व = घटाश्रितत्व नहीं है । अतः गुणत्व साश्रयकत्व का व्याप्य नहीं हो सकता है । आश्रय के बिना भी जैसे अनंत गुण एक क्षण रहते हैं, वैसे एक नित्य प्रत्यक्ष सदा के लिए = अनंत क्षण तक निराश्रित रह सकता है । उसमें कोई हर्ज नहीं है । अतः नित्य प्रत्यक्ष की सिद्धि होने पर भी ईश्वर की तो सिद्धि कथमपि नहीं हो सकती ।
ऋगीवात्मा में ही नित्यज्ञानाश्रयता मुमकिन- स्याद्वादी
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