Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 222
________________ ४१९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ कर. ५ * महेवप्रत्यक्षस्यासिद्धता प्रवृत्तिश्रवणात् । तथा चेश्वरप्रत्यक्षमप्यसिद्धमेव बोध्यम् । न च तस्यानुमित्यादिरूपत्वे परामर्शादिजन्यतावच्छेदककोटौ जन्यत्वनिवेशे गौरवमिति तद्भेदे सिदे पारिशेष्यात्प्रत्य * जयलता कार्यं कुर्वतामुपलक्षणम् । अनलपरमाण्वाद्यपरोक्षज्ञानविकलानामङ्गनादीनामपि तदनुमित्यादिना अनलादी शतशः प्रवृत्तेर्दर्शनात् अस्थिमज्जामांसाद्युपादानगोचरप्रत्यक्षज्ञानरहितानामपि गर्भस्थ बालादीनां नदपरोक्षज्ञानेन सहस्राशः तत्र प्रवृत्तेरुपलम्भात् नोपादानसाक्षात्कारत्वंन कारणत्वं कल्पनामर्हति । तथा च = उपादानप्रत्यक्षत्वेन कारणत्वासिद्ध्या च समवायेन चणुकादिकार्यं प्रति कारणविया ईश्वरप्रत्यक्षं परमाण्वादिगोचरेश्वरसमवेतप्रत्यक्षं कारणतावच्छेदकधर्मविधया च तत्र प्रत्यक्षत्वं, असिद्धमेव बोध्यम् । पराशङ्कां निराकर्तुमाह- न चेति । तस्य = द्व्यणुकाद्युपादानगोचरज्ञास्य, अनुमित्यादिरूपत्वे आदिपदेनोपमितिशाबोधग्रहणं, परामर्शादिजन्यतावच्छेदककोटी = परामर्श-सादृश्यज्ञानपदज्ञाननिष्ठकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदककुक्षी, जन्यत्वनिवेशे गौरवमिति । समवायेन जन्यसन्मात्रं प्रति उपादानज्ञानस्य हेतुत्वाऽभ्युपगमेन सिद्धं द्व्यणुकाद्युपादानज्ञानं यद्यनुमिर्तिस्वरूपं स्यात् तदा परामर्शजन्यतावच्छेदकमनुमितित्वं न स्यात् किन्तु जन्यानुमितित्वं स्यात्, अनतिरिक्तवृत्तित्वात् । यदि हि तदुमितिरूपं स्यात् तर्हि सादृश्यज्ञानकार्यतावच्छेदकमुपमितित्वं न स्यात्, ईश्वरीयोपमितेर्नित्यत्वेनोपमितित्वस्य सादृश्यज्ञाननिरूपितकार्यतातिरिक्तवृत्तित्वात् किन्तु जन्योपमितित्वमेव तथा स्यात् । यदि च तच्छाच्दबोधात्मकं स्यात्तर्हि पदज्ञानत्वाबच्छिन्नकारणतानिरूपितकार्यतावच्छेदकत्वं शाब्दबोधत्वस्य न भवेत् नित्यवृत्तिधर्मस्य कार्यतानवच्छेदकत्वनियमादिति जन्य - शाब्दबोधत्त्वस्यैव तत्त्वं वाच्यमिति गौरवभिया ईश्वरसमवेतस्य द्व्यणुकाद्युपादानगोचरज्ञानस्यानुमित्यादिभिन्नत्वं सिध्यति । ततः पारिशेषन्यायात्तस्य प्रत्यक्षत्वसिद्धिरित्याशयेन पर आह- तद्भेदे = अनुमित्यादिभेदे सिद्धे पारिशेष्यात् ईश्वरीयज्ञाने प्रसक्तानुमितित्वोपमितित्वशाब्दबोधत्वानामनुभवत्वसाक्षाद्रचाप्यानां प्रतिषेधात् शिष्यमाणे प्रत्यक्षत्वे सम्प्रत्ययात् तत्र प्रत्यक्षत्वसिद्धिः । न च तस्य स्मृतित्वमेवास्थिति वाच्यम्, अनुभवजन्यतावच्छेदककोटौ स्मृतित्वं विहाय जन्यस्मृतित्वोपगमे गौरवादिति तस्य प्रत्यक्षत्वमेव युक्तमिति शङ्काशयः । = हो सकता है । यह तो नैयायिक को भी अवश्य स्वीकार्य होगा, क्योंकि योगी पुरुष मनोवाहक नाडियों की अनुमिति कर के उनमें प्रवृत्ति करते हैं, समाधि लगाते हैं - यह नैयायिकसम्प्रदाय में भी सुना गया है। जादूगर भी पेंडा, बरफी आदि के उपादान का प्रत्यक्ष किये बिना ही अपने मंत्र के बल से पेंडा आदि का निर्माण करता है । अरे 1 पामर लोग भी अनि के परमाणु आदि उपादान का प्रत्यक्ष किये बिना ही अग्नि को उत्पन्न करते हैं । अतः परमाणु आदि का ईश्वरप्रत्यक्ष भी असिद्ध ही है । अतः परमाणुप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर की सिद्धि नहीं की जा सकती । न त इति । यहाँ नैयायिक की ओर से कहा जाय कि “योगी की भाँति ईश्वर का भी परमाणुविषयक ज्ञान अनुमितिस्वरूप माना जाय तब तो परामर्श की कार्यतावच्छेदक कोटि में जन्यत्व का भी निवेश करने का गौरव होगा, क्योंकि अनुमितित्व को ईश्वरीय अनुमिति में भी रहेगा, जहाँ परामर्श की कार्यता नहीं रहती है। कार्यता की अतिरिक्तवृत्ति धर्म कार्यता अवच्छेदक कार्यता का नियामक कैसे हो सकता है ? अतः परामर्शजन्यतावच्छेदक जन्यानुमितित्व मानना होगा । इस तरह ईश्वर का परमाणु आदिविषयक ज्ञान उपमिति आदिस्वरूप होगा, तो सादृश्यज्ञानादि का जन्यता अवच्छेदक उपमितित्व आदि न हो कर जन्योपमितित्व आदि धर्म मानना होगा । ईश्वरज्ञान को प्रत्यक्षात्मक न मानने पर परामर्शादि की कार्यतावच्छेदककोटि में जन्यत्व का निवेश करने का गौरव उपस्थित होता है, क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान तो नित्य होता है। इस गौरव दोप के सबब ही नित्य ईश्वरीय परमाणु आदिविषयक ज्ञान अनुमिति, उपमिति, शाब्दबोधस्वरूप नहीं माना जा सकता । प्रसक्त का प्रतिषेध होने से तथा वह ज्ञान होने से पारिशेष न्याय से ईश्वरीय ज्ञान में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि होती है । अतः ईश्वर के ज्ञान को प्रत्यक्षस्वरूप ही मानना उचित है । अतः परमाणुआदि के प्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वर की सिद्धि हो जायेगी" - तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि ईश्वरज्ञान को प्रत्यक्षात्मक मानने पर भी इन्द्रियादि की जन्यतावच्छेदक कोटि में जन्यत्व के निवेश का गौरव तो अव्याहत ही है । इन्द्रिय का जन्यतावच्छेदक केवल प्रत्यक्षत्व नहीं हो सकता, क्योंकि कार्यताशून्य नित्य ईश्वरप्रत्यक्ष में भी वह रहता है । इन्द्रियकार्यता से अतिरिक्तवृत्ति होने की वजह प्रत्यक्षत्व इन्द्रिय का कार्यतावच्छेदक नहीं हो सकता । अतः जन्यप्रत्यक्षत्व को ही इन्द्रिय का कार्यतावच्छेदक मानना होगा । अतः ईश्वर के ज्ञान को प्रत्यक्षस्वरूप मानने पर भी कार्यतावच्छेदककोटि में जन्यत्व के निवेश का गौरव तो अपरिहार्य ही बनता है। हाँ, =

Loading...

Page Navigation
1 ... 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370