Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 224
________________ ४२१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ खण्डनवण्डखायसंवादः * भावे वा जीवात्मान एव तदाश्रया भवन्तु किं शिपिविष्टकल्पना-कष्टेन ? अध जीवात्मनां तदाश्रयत्वे शुक्त्यादौ रजतादिधमः कदापि न स्यात्, तत्र रुजताभावधियः सदा सत्वादिति चेत् ? ज, प्रतिबन्धकतावच्छेदककोटाववश्यनिवेशनीयस्य चैत्रीयत्वा -* गयलता 3-- ---- = ननु मास्तु जन्यगुणत्वस्य साश्रयकत्यव्याप्यत्वं व्यभिचारदर्शनात्, परं नित्यगुणत्वस्यैव साश्रयकत्वव्याप्यत्वमस्तु, जलीयपरमाणुरूपादो तथैव दर्शनादित्यतो नित्यप्रत्यक्षाश्रयविधयेश्वरसिद्धिः स्यादेवेति नैयायिका शङ्कायां प्रकरणकार आह- भावे वेति । तादृशव्याप्ती मानसत्तो नि । इदमाममा प्रष्टया, शिल्पस्यक्षरूपे पक्षे व्यभिचारशका निवर्तकानुकूलतर्कविरहेणाऽययोजकत्वान्नेयं व्याप्तिः प्रामाणिक । तदुक्तं खण्डनखण्डखाद्ये हर्षेणाऽपि -> "यावच्चाऽव्यतिरेकित्वं शतांशेनापि शङ्यते । विपक्षस्य कुतस्तावद्धेतोर्गभनिकाबलम् । (खं.सं.खा. ) इति ।। जीवात्मान एव तदाश्रयाः = नित्यैकप्रत्यक्षस्य आश्रयाः, भवन्तु । एक्कारफलमाह- किं शिपिविष्टकल्पनाकष्टेन = तदाश्रयविधया त्रिनेत्राभ्युपगमायासेन सृतम् । तादृशव्याप्तेः स्वीकारे पि 'कार्यस्वोपादानगोचराउपरोक्षज्ञानजन्य कार्यत्वादि'त्यनुमानेन लाघवसहकृतेन नित्यकप्रत्यक्षसिद्धावपि जीवात्मनामेव तदधिकरणत्वसम्भवान्न तदर्थमीश्वरकल्पना युक्तिमतीति प्रकरणकृदभिसन्धिः । नैयायिकः शङ्कते- अथेति । 'चेदि त्यनेना स्यान्वयः । जीवात्मनां चैत्रमैत्रायात्मनां, तदाश्रयत्वे = सकलकार्यजनकनित्यैकप्रत्यक्षाश्रयत्वे, चैत्रमैत्रादीनां शुक्त्यादी रजतादिभ्रमः कदापि न स्यात्, तत्र = शुक्त्यादी विषयतया रजता. भाववत्ताधियः = रजताद्यन्योन्याभावप्रकारिकाया बाधबः सदा सत्वादिति । तदभाववनाबद्रे तद्वत्ताधीप्रतिबन्धकत्वात शुक्त्यादी रजतत्वाद्यत्यन्ताभावधीसत्त्वे तत्र रजतत्वादिप्रकारकधीन भवेत । न चैवमस्तीति चैत्रादिजीवात्मस नित्यैकप्रत्यक्षकल्पना नौचितिमहतीति तदाश्रयत्वं पार्वतिपतावेवोपगन्तव्यमिति नैयायिकाशयः ।। नन विषयतासम्बन्धेन तद्वत्ताधियं प्रति विषयतया तदभाववत्ताबडे: प्रतिबन्धकत्वाऽभ्यपगमे त मैत्रस्य शरत्यादी रजतत्वाद्यभावप्रकारकज्ञाने सति चैत्रस्याऽपि तत्र विषयतासम्बन्धेन रजतादिभ्रमो न भवेत कार्याधिकरणीभतशक्त्यादी विषयतासंसर्गण मैत्रीयरजतत्वाद्यत्यन्ताभावप्रकारकधीसत्त्वात् । प्रतिबन्धकाभावमृतेऽपि कार्यो पलम्भेन व्यतिरेकव्यभिचारान्नैतादृशः प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमावो घटामञ्चति । किन्तु विषयतया चैत्रीयतद्वत्ताज्ञान प्रति विषयतया चैत्रीयबाधबोधस्य प्रतिबन्धकत्वं वाच्यम् । शुक्त्यादी विषयतया मैत्रीयबाधीसत्त्वेऽपि चैत्रीयबाधज्ञानविरहात्तत्र चैत्रीयरजतत्वादिप्रकारकज्ञानोत्पाद व्यभिचाराऽयोगात् । परन्त्येवं प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमावाङ्गीकारे जीवात्मसु नित्यैकप्रत्यक्षस्य सकलकार्यजनकस्य सत्त्वेऽपि तेषां शुक्त्यादौ रजतत्वादिभ्रमः सम्भवत्येय, चैत्रीयादिबाधबुद्धेस्तेषु विरहादित्याशयेन प्रकरणकृत्तन्मतमतङ्गजं विदारयति - नेति । प्रतिवन्धकतावच्छेदककोटी = बाधधीनिष्ठप्रतिबन्धकताया अवच्छेदककोटी उपदर्शितरीत्या अवश्यनिवेशनीयस्य = अवश्यक्लृप्तस्य चेत्रीयत्वादेरेव भाव वा, इति । यदि गुणत्व में पराश्रितत्व की व्याप्ति को नयायिक मनीषी कथमपि सिद्ध करे तो भी ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नित्य प्रत्यक्ष (केवलज्ञान) का आश्रय जीवात्माएँ ही बन सकती है, परमात्मा की तदाश्रयविधया कल्पना करने का कष्ट हम क्यों उठायें ? जीवात्मा ने क्या अपराध किया है कि उनमें नित्य ज्ञान की कल्पना करने से आप नैयायिक महाशय हिचकिचाहट महसूस करते हैं ? यदि नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि → “जीवात्मा को ही नित्य प्रत्यक्ष का आश्रय माना जाय, तो फिर सीप आदि में चाकचिक्यादि की बदौलत रजतादि का भ्रम जीवात्मा को कदापि नहीं हो सकेगा, क्योंकि नित्य प्रत्यक्ष के आश्रय जीवात्मा में सीप आदि पुरोवर्तिपदार्थ में रजताभावप्रकारक बुद्धि सदा के लिए रहती ही है । 'नेदं रजतं' ऐसी रजतान्योन्याभाषप्रकारक बुद्धि-प्रत्यक्ष होने पर 'इदं रजतं' ऐसा भ्रम कैसे हो सकता ? मगर जीवात्मा को ऐसे भ्रम अरों की संख्या में होते हैं - यह तो सर्वजनविदित ही है। अतः जीवात्मा को नित्य प्रत्यक्ष का आश्रय नहीं माना जा सकता, किन्तु ईश्वर को ही" <- तो यह नैयायिकोक्ति भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि केवल रजतत्वाभाव या रजतान्योन्याभाव की बुद्धि रजतभ्रम की प्रतिबन्धक नहीं हो सकती । मैत्र को सीप में रजतत्वात्यन्ताभाव की बुद्धि होने पर भी चैत्र को 'इदं रजतं' इत्याकारक भ्रम होता है। अतः चेत्रीय रजतभ्रम की प्रतिबन्धकतावच्छेदककुक्षि में चेत्रीयत्व का निवेश करना आवश्यक है । तब प्रतिबध्यप्रतिरन्यकभाव इस तरह होगा - क्षेत्रीय रजतभ्रम के प्रति चैत्रीय रजताभावबुद्धि प्रतिबन्धक है, मैत्रीय भ्रम के प्रति मैत्रीय शधबुद्धि प्रतिबन्धक है इत्यादि । इस तरह

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