Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 221
________________ * जन्यताविशेषप्रकाशनम् * ४१८ रण्यप्रत्यासत्या जन्यताया विवक्षितत्वात् । तथा चेश्वरप्रत्यक्षस्थाऽनेन सम्बन्धेन न हेतु- । त्वमिति नोक्तयुक्त्येश्वरसिन्दिः । अपि चोपादानप्रत्यक्षाचतेन न हेतुत्व, तदनुमित्यादिनापि योगिनां मनोवहनाडयादी == * गयलता * समवायघटितसामानाधिकरण्यसम्बन्धेनेत्यर्थः । तेन न कालिकादिना सामानाधिकरण्यमादाय पूर्वदोषतादवस्थ्यम् । जन्यातायाः = उपादानकृतिनिष्ठप्रयोज्यतायाः, विवक्षितत्वादिति । मैत्रीयोपादानप्रत्यक्षस्य समवायेन मैत्राधिकरणकत्वाच्चैत्रीयकृतेश्च चैत्रसमवेतत्वेन तद्व्यधिकरणत्वान्न सामानाधिकरण्यसंसर्गेण मैत्रीयोपादानप्रत्यक्षजन्यत्वम् । स्वजन्यकृतिविशेष्यतासम्बन्धेन कपालगोचरमैत्रसमवेतप्रत्यक्षस्य चैत्रीयपटोपादानेऽवर्तमानत्वेन नीपर्शितातिप्रसङ्गावकाश इति प्रकरणकृदाशयः । "अस्त्वयमेव कार्यकारणभावः तथापीश्वरः सेत्स्यत्येव, यणुकोपादानप्रत्यक्षस्य द्वयणुकजनकस्याऽस्मदादिष्वसम्भवात तदाश्रयतयेश्वरपदप्रतिपाद्यस्य सिद्भिः | सिद्धो धर्म एको नित्यश्चेत्तदा लाधवमिति न्यायसहकारेणेश्वरीयज्ञानादौ नित्यत्वमेकत्वश्च भासत' इति पराशङ्कायामाह- तथा चेति । लाघवसहकारेणोक्तकार्यकारणभावसिद्धी चेति । ईश्वरप्रत्यक्षस्य - उपादानगोचरेश्वरसमवेतसाक्षात्कारस्य, अनेन = स्वजन्य कृतिविशेष्यत्वलक्षणेन, सम्बन्धेन न हेतुत्वं सम्भवति, तत्कृत्यादेः नित्यत्वाऽभ्युपगमेन सामानाधिकरण्यसम्बन्धेनेश्वरीयोपादानप्रत्यक्षजन्यत्वविरहेण स्वजन्यकृत्यसिद्धी तद्घटितसम्बन्धेनेश्वरीयोपादानप्रत्यक्षस्य कारणत्वाऽसम्भवान, न उक्तयुक्त्या = समवायेन जन्यसन्मानं प्रति उपादानप्रत्यक्षस्य हेतुत्वमिति युक्त्या, यणुकोपादानप्रत्यक्षाश्रयविधया ईश्वरसिद्धिः सम्भवति ।। किञ्च यद्भर्मावच्छिने यदर्थिप्रवृत्तिः तद्धर्मावच्छिन्ने तत्यकारकज्ञानमात्रस्य हेतुत्वात्कथमीश्वरीयोपादानज्ञानस्य प्रत्यक्षत्वं ! सिद्धयेत ? इत्याशयेन प्रकरणकृदाह- अपि चेति । उपादानप्रत्यक्षत्वेन न हेतुत्वं = उपादानप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नत्वं समवायसम्बन्धावच्छिन्न-जन्यसन्मात्रवत्तिवेजात्यावच्छिन्नकार्यत्वनिरूपितकारणतायां नास्ति । हेतमाह - तदनमित्यादिनाऽपि = उपादानगोचरानुमित्यागमादिना:पि प्रणिधानाद्यर्थं योगिनां मनोवहनाडयादी प्रवृत्तिश्रवणादिति । योगिपदमुपादानानुमित्यादिना स्वजन्यकृतिविशेप्यतासम्बन्ध से जन्यभावोपादानविशप्यक प्रत्यक्ष को कारण मानने पर तो चेत्रीय कृति से जन्य घट के प्रति मैत्रीय कपालप्रत्यक्ष में भी कारणता के स्वीकार का अतिप्रसंग आयेगा, क्योंकि चैत्रीपप्रयत्न जन्य होने से काल की उपाधि बनता है और जन्यभावमात्र के प्रति काल साधारण कारण होता है। अतः कालिक सम्बन्ध से मैत्रीय उपादनप्रत्यक्ष भी चैत्रीय प्रयत्न का कारण होगा । अत: चैत्रीय प्रयत्न में मैत्रीयउपादानप्रत्यक्ष से जन्यत्व रहने से क्षेत्रीय घटादि के प्रति स्वजन्यकृतिविशेष्यतासम्बन्ध से मैत्रीय कपालादिप्रत्यक्ष में कारणता के स्वीकार का अतिप्रसङ्ग होगा" <- तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जन्यता कालिकसम्बन्ध से नहीं अपितु समवायघटितसामानाधिकरण्यसम्बन्ध से विवक्षित है। क्षेत्रीय कृति समवाय सम्बन्ध से चैत्र में रहती है। अतः सामानाधिकरण्यसम्बन्य से वह क्षेत्रीय प्रत्यक्ष से जन्य है, न कि मैत्रीय प्रत्यक्ष से । समवाय सम्बन्ध से मैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष की अधिकरणता चैत्र में नहीं रहती है। इस तरह समवायचटिन सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से मैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष से चैत्रीय उपादानप्रयत्न जन्य ही नहीं होने से उपर्युक्त अतिप्रसंग की सम्भावना नहीं है। अतः समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति स्वजन्यकृतिविशेप्यतासम्बन्ध से जन्यभावोपादानप्रत्यक्ष को कारण माना जा सकता है। मगर यह सिद्ध होने पर ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, क्योंकि नैयायिक के अभिमत ईश्वरप्रत्यक्ष में स्वजन्यप्रयत्नविशेष्यतासम्बन्य के कारणता ही नामुमकिन है। नैयायिक के मतानुसार ईश्वर के प्रत्यक्ष की भाँति ईश्वरीय प्रयत्न भी नित्य ही है । जब कि ईश्वरसमवेतप्रत्यक्षजन्यत्व ही ईश्वरीय प्रयत्न में नहीं है, तब समवाय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति ईश्वरप्रत्यक्ष स्वजन्यप्रयत्नविशेप्यतासम्बन्ध से कारण कैसे हो सकेगा ? उपर्युक्त सम्बन्ध से ईश्वरप्रत्यक्ष में जन्यभाव की कारणता ही नामुमकिन होने से समवाय सम्बन्ध से इयणुक के प्रति स्वजन्यप्रयन्नविशेप्यतासम्बन्ध से कारणीभूत परमाणुप्रत्यक्ष की एवं उसके आश्रयविधया ईश्वर की सिद्धि भी उपयुक्त नैयायिकयुक्ति से नहीं हो सकती। अतः 'समवाय से जन्यसन्मात्र के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से जन्यसत्पदार्थ के उपादान का प्रत्यक्ष कारण है - यह नैयायिकीय युक्ति भी ईश्वरसाधक नहीं हो सकती है। उपादानप्रत्यक्षपेत कारणता हो असिन्द - स्थादादी अपि चा, इति । वस्तुस्थिति का विचार किया जाय तब तो समराय सम्बन्ध से जन्य भाव के प्रति उपादानप्रत्यक्ष | में कारणता ही असिद्ध है, क्योंकि उपादान की अनुमिनि आदि से भी उपादानप्रयत्न हो सकता है और उपादेय भी उत्पन्न %3 - -

Loading...

Page Navigation
1 ... 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370