Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 219
________________ *यणुकादावुपादानप्रत्यक्षस्याऽकारणता * णुकादिजनकग्रत्यक्षाश्रयतयेश्वरसिन्दिरिति चेत् ? ल, अन्यस्योपादानप्रत्यक्षे सत्यप्यन्यस्य कार्यानुत्पत्तेश्चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्वादिना हेतुत्वे व्दयणुकादानुपादान प्रत्यक्षस्याऽहेतुत्वात् । -* जयलता. * विशेष्यतासम्बन्धेन दर्तमानस्योपादानभूतकपालसाक्षात्कारस्याश्रयत्वं कुलाले तथा समवायेन व्यणुकाधिकरणीभूते परमाणौ विशेष्यतया वर्तमान्सय परमाणुविशेष्यकसाक्षात्कारस्याश्रयविधयेश्वरसिद्धिरित्याशयेनाह-बचणुकादिजनकप्रत्यक्षाश्रयतया = व्यणुकत्र्यणुकजनकस्य परमाणु-द्वयणुकविशेष्यकप्रत्यक्षस्याश्रयविधया, ईश्वरसिद्धिः = अस्मदादिविलक्षणपुरुषविशेषसिद्भिः, परमाणवाद्यदर्शिनामस्मदादीनां द्वचणुकाद्युपादानप्रत्यक्षाश्रयत्वबाधेन पारिशेषन्यायादस्मदादिविलक्षणस्य पुरुषमुख्यस्येश्वरप्रतिपाद्यस्य तदाश्रयत्वेन सिद्धिरित्यत्र नैयायिकाकूमत् । स्याद्वादी तदपहस्तयति - नेति । अन्यस्य = मैत्रादेः, उपादानप्रत्यक्षे = घटाधुपादानविशेष्यकसाक्षात्कारे सत्यपि अन्यस्य = चैत्रादेः, कार्यानुत्पत्तेः = घटादिकार्यानुत्पादात् । समवायेन चैत्रीयघटाद्यधिकरणत्वेनाऽभिमते कपालादौ विशेष्यतासम्बन्धेन कपालादिविशेष्यकस्य मैत्रादिसमवेतस्य प्रत्यक्षस्य सत्त्वेऽपि चैत्रीयघटानुत्पादेनाऽन्वयव्यभिचारान्नायं कार्य-कारणभायो युक्तो येन तबलात्पारिदोषन्यायेनेश्वरसिद्भिः स्यादिति स्याद्वाद्यभिप्रायः । ननु जन्यसन्मात्रबैजात्य-समवायिकारणप्रत्यक्षत्वाभ्यां सामान्यतः कार्य-कारणभावाभ्युपगमेऽपि विशेष्यतया कुलालसमवेतोपादानप्रत्यक्षसत्त्वे पटोत्पत्तिवारणाय विशेषतोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां घटत्व-पटत्व-कपालगोचरकुलालप्रत्यक्षत्व-तन्तुविशेष्यक शेषकार्यकारणभावाऽभ्यपगमानोपदर्शितान्बयव्यभिचाराबकाशः, समवायेन चेत्रीयघट प्रति स्वविशेष्यता सम्बन्थेन कपालधर्मिकचैत्रीयप्रत्यक्षस्य हेतत्वादिति नैयायिकाऽशङ्कायामाह. चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्वादिना हेतत्वे = चैत्रीयघटादिकारणत्वे नैयायिकेनाऽभ्युपगम्यमाने इति गम्यते । अत्र दोषमाह- द्वयणुकादाविति । आदिपदेन त्र्यणुकादिग्रहणम् । उपादानप्रत्यक्षस्य = परमाण्वादिविशेष्यकसाक्षात्कारस्य, अहेतुत्वात् = हेतुत्वाऽसम्भवादिति । विशेष्यतासम्बन्धावच्छिन्नोपादानप्रत्यक्षत्वारच्छिन्नकारणतानिरूपितसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकधर्मत्वस्य परेण जन्यसन्मात्रवृत्तिवैजात्ये एव स्वीकारेण द्ववणुकत्वादेस्तदसम्भवान्न समवायेन द्ववणुकत्वाद्यवच्छिन्ने विशेष्यतया उपादानप्रत्यक्षसामान्यस्य कारणत्वं सम्भवति । न च समवायेन चणुकादौ विशेष्यतयेश्वरीयोपादानप्रत्यक्षस्य हेतुत्वसम्भवः; अन्योन्याश्रयकलङ्कस्य दुःप्रक्षालनीयत्वापत्तेः, ईश्वरसिद्धी सत्यां व्यणुकादावीश्वरीयोपादानप्रत्यक्षकारणत्वसिद्धेः, तत्सिद्धौ चेश्वरसिद्धेरिति । चैत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्वादिना तु व्यणुकादिकारणत्वा सम्भव एव, सम्भवे वा कृतमीश्वरेण । न चैवं चणुकादौ जन्यसन्मात्रवृत्तिवेजात्यस्योपादानप्रत्यक्षप्रयोज्यत्वेऽपि वह समवाय सम्बन्ध से परमाणु आदि में उत्पन होता है। अतः पणुकादि के कारण परमाणुआदिविशेप्यक प्रत्यक्ष भी विशेष्यतासम्बन्ध से परमाणु आदि में रहना चाहिए, क्योंकि कार्यतावच्छेदकसम्बन्ध से कार्याधिकरणविधया अभिमत में कारणताचच्छेदक-सम्बन्ध से कारण के रहने पर ही कार्य की उत्पत्ति हो सकती है। मगर परमाणु आदि विशेष्यक प्रत्यक्ष आमजनता को तो नहीं हो सकता । अतः आमजनता से विलक्षण पुरुषविशेष को ही परमाणुआदिविशेष्यक प्रत्यक्ष का आश्रय मानन || चाहिए । वह पुरुषविशेष ही ईश्वर है । अतः समवायसम्बन्धावच्छिन्न-व्यणुकत्वापच्छिम कार्पता से निरूपित विशेप्यतासंसर्गावच्छित्रपरमाणुप्रत्यक्षत्वावच्छिन्न कारणता के अधिकरणीभूत परमाणुप्रत्यक्ष के आश्रयविधया त्रिलोचन ईश्वर की सिद्धि हो सकती है" नान्य. इति । मगर यह नैयायिककथन भी ईश्वरसाधक नहीं हो सकता । इसका कारण यह है मैत्र को तन्तुविशेप्यक 'इमे तन्तवः' इत्याकारण प्रत्यक्ष होने पर भी चैत्र से पट की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः केवल उपादानप्रत्यक्षत्वरूप से जन्य भाव पदार्थ के प्रति कारणत्व की कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि उपर्युक्त अन्चय व्यभिचार तादृश कार्यकारणभाव के निश्चय का विघटक है । अत चेत्रीयोपादानप्रत्यक्षत्व आदि रूप से ही जन्य भाव की कारणता का स्वीकार करना होगा। अर्थात् समवायस म्बन्ध से चैत्रीय पट के प्रति विशेष्यता सम्बन्ध से चैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष (= तन्तुविशेप्यक साक्षात्कार) हेतु है, समवाय सम्बन्ध से मैत्रीय पट के प्रति विशेष्यता सम्बन्ध से मैत्रीय उपादानप्रत्यक्ष हेतु है.... इत्यादि रूप में कार्यकारणभाव का स्वीकार करना उचित है। तब अन्वय व्यभिचार का निवारण हो सकता है। मगर उपादानप्रत्यक्ष के विशेषणविधया चैत्र, मैत्र आदि प्रसिद्ध व्यक्तियों का ही निवेश हो सकता है, न कि अप्रसिद्ध ईश्वर का । अतः द्वयणुक आदि के उपादान परमाणु आदि का प्रत्यक्ष ईश्वरीयोपादानप्रत्यक्षत्वरूप से तो द्वयणुकादि जन्य भाव कार्य का कारण नहीं हो सकता । अप्रसिद्ध का विशेषणविधया निवेश अदृष्ट है । तथा अन्य व्यभिचार दोष की वजह इयणुक आदि जन्य भाव के प्रति उपादानप्रत्यक्षत्वरूप

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