Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 218
________________ ४१५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ . का.५ *शरीरलायनापेक्षया सग्राहकलापवस्य न्याय्यत्वम् * श समवायेन जन्यसत्त्वावच्छिन्नं प्रति विशेष्यतयोपादानप्रत्यक्षस्य हेतुत्वादस्तु व्दद्य * जयललता * किंप्रयोज्य: ? इतिप्रश्ने तत्तत्कृत्यभावकूटप्रयोज्य इत्युत्तरकरणे गौरवभिया सामान्यतः कार्यकारणभावस्याऽवश्यमङ्गीकर्तव्यत्वात् । तथा च कार्याऽभावः किम्प्रयोज्यः ? इति प्रश्ने कृत्यभावप्रयोज्य इत्युत्तरकरणे लाघवम् । तच कृतित्वस्य कारणतावच्छेदकत्वमृते न सम्भवति, कारणतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नाभावस्यैव कार्यतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नाभावप्रयोजकत्वात् । तथा चैतल्लाघवमेव प्रकृतन्यायबीजमिति वाच्यम्, कारणतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नाभाव एव कार्याभावे प्रयोजक इति न नियमः, किन्तु स्वरूपसम्बन्धरूपप्रयोजकत्वं प्रतीत्यनुरोधेन लघ्यनतिप्रसक्तधर्मावच्छेदेन कल्प्यत इत्येव नियमः । तथा च लाघवादेव कारणतानवच्छेदककृतित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्य कार्याभावप्रयोजकत्वं कृतित्वेन कार्यत्वेन च हेतु-हेतुमद्भावं विनाऽपि सूपपादमेव । न च घटत्व-पटत्व-कुलालकृतित्व-कुविन्दकृतित्वाद्यवच्छिन्नानन्तकार्य-कारणभावे गौरवनिश्चयरूपचाधकसत्त्वात् कार्यत्व-कृतित्वाभ्यामेक एव कार्यकारणभावः कल्प्यत इति वक्तव्यम्, तन्तुवायकृतिसत्त्वे घटोत्पादवारणाय विशेषत्तोऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यां घटत्वकुलालकृतित्वादिना विडोषकार्य-कारणभावानामावश्यकत्वेन तादृशान्वयव्यतिरेकग्रहै। कार्यत्व-कृतित्वाभ्यां सामान्यकार्यकारणभावकल्पनेऽपि तादृशगौरवस्यावश्यमङ्गीकरणीयत्वात् । एतेन प्रवृत्ताविव घटादावपि ज्ञानादेरन्वय-व्यतिरेकाभ्यां हेतुत्वसिद्धेः तत्र घटत्व- पदत्वादीनामानन्त्यात्कार्थत्वमेव साधारण्यात कार्यतावच्छेदकम, शरीरलाघवापेक्षया सग्राहकलाघवस्य न्याय्यत्वात, कृतस्तु 'तद्विशेषयोरि ति न्यायात्सामान्यतोऽपि हेतुत्वमिति प्रत्युक्तम्, कार्यत्वस्य कालिकेन घटत्व-पटत्वादिमत्त्वरूपस नानात्वात, ध्वंसव्यावत्यर्थं देयस्य सत्त्वस्य विशेषण आवे विनिनानादिरहेगा निगरवार नियोशापावकटेनैव सामान्याभावो पपत्ती अतिरिक्तसामान्याभावे मानाभावेन 'यद्विशेषयोरि' त्यादिन्यायस्याऽत्यन्ताऽयुक्तत्वात्, अन्यथा करणस्याऽप्येकस्य सिद्ध्यापत्तेरित्यत्र प्रकरणकृतः तात्पर्यम् । नैयायिकी युक्त्यन्तरेणेश्वरं साधयति- अथेति । 'चेदि'त्यनेनाऽस्यान्वयः । समवायेन जन्यसत्त्वावच्छिन्नं प्रतीति । जन्यसत्वञ्च सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टसत्त्वं, विशिष्टस्य च न जातित्वमिति समवायसम्बन्धावच्छिन्न-जन्यसन्मा वैजात्यावच्छिन्न-कार्यताविशिष्टमात्रं प्रतीत्यर्थः । विशेष्यतया = स्वविशेष्यताऽऽख्यविषयतासम्बन्धेन उपादानप्रत्यक्षस्य = समवेतकार्यसमवायिकारणविशेष्यका परोक्षज्ञानस्य, हेतुत्वात् = हेतुत्वनिश्चयात् । यथा समवायेन घटादिकरणीभूते कपाले पर घट सामान्य और कपाल सामान्य के बीच कार्य-कारणभाव का निश्चय होता है। अथवा अवयविरूप और अवयवरूप, अवयविरस और अवयवरस, अवयविगन्ध और अवयवगन्ध, अवयविस्पर्श और अवयवस्पर्श के बीच विशेष कार्यकारणभाव का निश्चय होने पर अवयविगुण और अवयवगुण के बीच सामान्य कार्यकारणभाव का निश्चय होता है। इस तरह घट और घटपरिणाम, पट और पटपरिणाम के बीच विशेष कार्यकारणभाव का निणर्य होने पर भी कार्यसामान्य और परिणामसामान्य के बीच (सामान्य) कार्य-कारणभाव निश्चित किया जा सकता है। इसलिए कार्यत्वावच्छिन्न के प्रति परिणामात्मना कारणता का निर्णय मुमकिन होने से तादृश परिणाम सामान्य (-ताप्य सामान्य) के आश्रयविधया तो पार्वतिपति की सिद्धि हो सकती है । नादृश कार्यकारणभाव में लायब होने से कार्यत्व हेतु में शरीरजन्यत्वस्वरूप सन्दिग्ध उपाधि से प्रयुक्त व्यभिचारसंशय का प्रतिरोध होने से तादृश अनुमिति होने में कोई दोष नहीं है" <- तो यह नैयायिककथन नामुनासिब है, क्योंकि 'विशेष कार्य और . विशेष कारण के बीच कार्य-कारणभाव निश्रित होने पर सामान्य कार्य और सामान्य कारण के बीच कार्यकारणभार होता है। इस नियम में कोई प्रमाण नहीं होने से उसका स्वीकार नहीं हो सकता है। अप्रमाणिक नियम के आधार पर ईश्वर की सिद्धि कैसे की जा सकती ? यदि उक्त नियम को प्रामाणिक माना जाय तब तो द्रव्य और जन्यभाव के बीच ही हेतु-हेतुमद्भाव की सिद्धि होने से तन्तु और पट, कपाल और पट के बीच विशेष कार्य-कारणभाव का व्यवहार और बुद्धि || अप्रामाणिक बनने की आपत्ति आयेगी । ___ * ट्यणुगोपादानप्रत्यक्ष के आश्रयविधया ईश्वरसिदि जामुमकिन * अथ सम. इति । यहाँ नैयायिक की ओर से यह कहा जाता है कि -> "समवाय सम्बन्ध से जन्य सत्तावान् के प्रति विशेप्यतासम्बन्ध से उपादानविशेष्यक प्रत्यक्ष हेतु है, यह प्रसिद्ध कार्य-कारणभाव है। समवायसम्बन्ध से यद, जो कि जन्यसत्तावान् है, कपाल में उत्पन्न होता है, वहाँ कपालबिशेप्यक कुलालप्रत्यक्ष विशेप्यता सम्बन्ध से रहता है । यदि कुम्हार को कपाल का प्रत्यक्ष न हो तो वह घट को कैसे उत्पन्न कर सकता ? इस तरह द्वयणुक आदि कार्य भी जन्यसत्तावान् है।

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