Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 213
________________ * शरीरजन्यत्तस्योपाधिकत्वविचारः* तत्र मानं, शरीरजन्यत्वरूपसन्दिग्धोपाधिनस्तत्वात् । ==..---..---- जगलता * इत्तयनुमानमेव । एवकारोऽयोगव्यवच्छेदार्थः । तत्र = महेशे, मानं = प्रमाणम् । यत् यत् कार्य तत् तत् सकर्तृकं यथा घटः । यत्सकर्तृकं न भवति, न तत्कार्यमपि भवति गगनवत् । न तावदयं हेतुरुद्धताऽसिद्धातासिद्धसीकोत्तरीगरीयस्तरदुस्तरकटाक्षलक्षविक्षेपविक्षेपितः, सद्भूतानुभवसिद्धाविनाभावित्वसिद्धधर्माधिकरणविद्यासिद्धत्वात् । नापि दुर्धरविरुद्धतोद्भूततर्कवितर्केन्धनकार्कझ्यावरुद्धता, विचक्षणाक्षीणक्षोदक्षमाध्यक्षनिर्णीतविपक्षव्यावृत्तिव्याप्तिशक्तिप्रकोपपावकाहुतीभूतप्रत्यर्थिपक्षत्वात् । नाष्यनैकान्तिकाक्रान्तविषमविषधरीविषावेगविधुरीभूतताऽप्याशङ्कनीया, विपक्षनिर्णीतव्यावृत्तिम लक्षितिरुहायतच्छायासु सुखनिषण्णत्वात् । नापि कालात्ययावदिष्टतादुष्टदोषदन्दशूकदष्टत्वं निष्टकनीयम्, अवाधितपक्षप्रयोगपक्षाधिराजपक्षान्तरविश्रान्तत्वात् । नाप्यस्य हेतुनरेश्वरस्प ! प्रकरणसमतातङ्काकान्तत्वमुद्भावनीयं, एतत्प्रतिपन्धिसमर्धानुमानाभावातपत्रपवित्रप्रभुताप्राप्तसाम्राज्यसुगभत्वात् । न च शरीरा- : जन्यत्वेन कजन्यत्वसाधकेन सातिपक्षतोद्भावनीया, शरीरपदनिवेशानावश्यकत्वात् अप्रयोजकत्वाञ्चेति नैयायिकाशयः । तदपक्षेपार्थं प्रकरणकृदाह - शरीरजन्यत्वरूपसन्दिग्धोपाधिग्रस्तत्वादिति । अन्यत्र गतो धर्मोऽन्यत्रोपचर्यमाण उपाधिरभिधीयते यथा जपाकुसुमसंसर्गादारुण्यशून्ये स्फटिकशकले रुणत्वं प्रतीयते तधौपाधौ वर्तमानं व्याप्यत्वं तच्छ्न्ये हेतो विज्ञायते । इति स्वाऽभावानुमापितसाध्याभाववद्वृत्तित्वमुद्भाच्य हेतौ त्र्यप्तिदूरीकरणेनोपार्दूषणत्वम् । तल्लक्षणञ्चेदम्, साध्यव्यापकत्वे सति साधनाज्यापकत्वमिति । प्रकृतानुमाने शरीरजन्यत्वमुपाधिः, तस्य घटीदी साध्यव्यापकत्वात्, अङ्कुरादौ साधनाव्यापकत्वाचा | न चाङ्कुरादौ सकर्तृकत्वरूपसाध्यसन्देहेन उपाधेः साध्यव्यापकत्वसंशयान्नोपाधित्वनिश्चय इति वक्तव्यम्, तथापि सन्दिग्धोपाधित्वस्य दुर्वारत्वात् । न चोपाधिनिश्चये सत्यतेब हेतौ सोपाधिकत्वहेतुना व्यभिचारनिश्चयः सम्भवति । ततः वानुमितिग्रतिबन्धः । उपाधिसन्देहे तु व्यभिचारसन्देह एव भवति । न च तेन व्याप्तिज्ञानप्रातिरोधः सम्भवति, व्यभिचारनिश्चयत्वस्यैव व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकत्वादिति वाच्यम्, उपाधिसन्देहे व्यभिचारसन्देहस्याऽऽवश्यकत्वात्, व्याप्यत्वज्ञानं प्रति लाघवेन व्यभिचारज्ञानसामान्यस्य प्रतिबन्धकत्वात, व्याप्यसंशयेन व्यापकन्देहस्याऽऽवश्यकत्वात्सन्दिग्धोपाधित न चोपाधिसन्देहाऽऽहितो व्यभिचारसन्देहः पक्षातर्भावनैवाङ्गीकरणीयः, घटादी साध्यनिश्चयेन साध्यसन्देहासम्भवात् । स च न व्याप्तिज्ञानप्रतिबन्धकः, पक्षान्तविन व्यभिचारसन्देहस्य तदप्रतिबन्धकत्वात्, अन्यथाऽनुमितेः पूर्वं सर्वत्रैव पक्षे साध्यन्देहसम्भवेन तत्र च हेतोर्निश्वयादनुमानमात्रोच्छेदप्रसङ्गात् । तस्मात्साध्याभावांशे निश्चयात्मकं वृत्तित्वांशे च संशयनिश्चयसाधारणं व्यभिचारज्ञानं प्रतिबन्धकमित्यास्थेयम् । प्रकृते च तादृाव्यभिचारसन्देहासम्भवात्कथं सन्दिग्धोपाधेर्दूषकत्वमिति वक्तव्यम्, पक्षतत्समयोरपि व्यभिचारसंशयस्य प्रतिबन्धत्वात् । पक्ष उद्देश्यतावच्छेदकावच्छिन्नः तत्समस्तु तद्भिन्नत्वे सति साध्यसन्देहाक्रान्तः । न चैवमुक्तरीत्याऽनुमानमात्रोच्छेदापत्तिरिति वाच्यम्. धूमो यदि वहिव्यभिचारी स्यात् तर्हि बह्निजन्यो न स्यादित्यनु होगी। मगर पर्वत आदि के कर्ता के स्वरूप में आमजनता का स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतः अन्ततो गत्वा पर्वतादि के कर्ता के रूप में ईश्वर की सिद्धि होगी" <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त अनुमान का कार्यत्वस्वरूप हेतु शरीरजन्यत्वस्वरूप संदिग्ध उपाधि से ग्रस्त है। जो साध्य का व्यापक हो और हेतु का अव्यापक हो उसे उपादि कहते हैं । यहाँ साध्य है सकर्तृकत्व = कर्तृजन्यत्व और हेतु है कार्यत्व । जहाँ जहाँ कर्तृजन्यत्व रहता है, वहाँ वहाँ शरीरजन्यत्व रहता है यह घट, पट आदि में देखा गया है । अतः शरीरजन्यत्व सकर्तृकत्वरूप साध्य का व्यापक है । एवं कार्यत्व के आश्रय अंकुरादि में शरीरजन्यत्व का अभाव होने से वह कार्यत्वरूप साधन का अव्यापक भी है। अतः उपाधिग्रस्त होने के कारण प्रस्तुत अनुमान से वादी के अभिमत की सिद्धि नहीं हो सकती । यदि यह कहा जाय कि -> 'अंकुरादि में सकर्तृकल का संदेह है किन्तु शरीरजन्यत्व का अभाव निश्चित है । अतः शरीरजन्यत्व में सकर्तृकत्वरूप साध्य की व्यापकता का निश्चय नहीं हो सकने से शरीरजन्यत्व उपाधि नहीं हो सकता' <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि निश्चित उपाधि न होने पर भी अंकुरादि द्वारा शरीरजन्यत्व में साध्यव्यापकता का संदेह होने से संदिग्धोपाधि का होना आवश्यक है। यहाँ यह कहना कि <- 'संदिग्धोपाधि के व्यभिचार के सन्देह से हेतु में साध्यव्यभिचार का सन्देह ही हो सकता है, न कि निश्चय तथा व्यभिचारसंशय व्याप्तिज्ञान का विरोधी नहीं होने से हेतु में साध्यनिरूपित व्याप्ति का निश्चय हो कर अनुमिति के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती' <- भी ठीक नहीं है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान के प्रति व्यभिचारनिश्चयत्वरूप से व्यभिचारज्ञान को प्रतिबन्धक मानने में गौरव है । लायव की दृष्टि से व्यभिचारज्ञानत्वरूप से ही व्यभिचारज्ञानत्व-रूप से ही न्यासिज्ञान का

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