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४०९ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ • का,५ * भवानीपती मानाभावप्रदर्शनम् * || स्वस्याऽसाहाराणी भक्तिरातिश्चक्रे तत्रभवद्रिः । राग-न्देषाद्यविद्याबन्धकीसम्पर्ककलकि
तानांपरेषां वचसि प्रामाण्याऽभ्युपगमो हि महामोहगहनविजृम्भितम, राग-व्देषाभावं विनाऽवितथवचनस्य कार्यस्याऽसम्भवात् ।
ननु वेदकर्तुरेव पुरुषधौरेयस्य वच: प्रमाणं, तस्यैव सर्वज्ञत्वात् । मैवम्, तत्प्रणेतरि भवदभिमते भवानीपतावेव मानाऽभावात् । न च 'कार्य सकर्तृकं कार्यत्वादि'त्यनुमानमेव |
== =* गयलता *. ईरोडमण्डनं श्रीवासूपूज्यस्वामिनं नत्वा । भवानीपतिकर्तृले मानाभावः समर्थ्यते ।।१।। घुग्णाक्षरन्यायेनैकान्तवादिवचने क्वचिद्विसम्बादाऽदर्शनेऽपि न तत्रौत्सर्गिक प्रामाण्यम्, बचनबैतथ्यसम्पादकरागादिपरवशपुरुषनिसृतत्वादिति गिरी समाकर्ण्य सकर्णी नैयायिक: प्रत्यवतिष्ठते - नविति । वेदकर्तुः = प्रमाणत्वेन महाजनपरिगृहीतानां वेदानां कर्तुः, एव पुरुषधीरेयस्य बचः प्रमाणम्, हेतुमाह - तस्य = पुरुषधुरिणः एव सर्वज्ञत्वादिति । प्रथमैवकारेण द्वादशांगीकर्तुः द्वितीयैवकारेण च जिनेश्वरस्य व्यवच्छेदः कृतः ।
स्याद्वादी तत्प्रत्याचष्टे - मैचमिति । तत्प्रणेतरि = वेदरचयितरि, भवदभिमते = नैयायिकाभिमते, भवानीपती = त्रिलोचने, एव मानाभावादिति । बोधादिभिः वेदानामष्टकादिनिर्मितत्वाभ्युपगमाद् ‘भवदभिमत' इत्युक्तम् । तत्र मानाभावश्चैवम्, न तत्र बहिरिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षं प्रमाणं, अणुपिद्रव्यत्वेन बाह्यप्रत्यक्षाऽविषयत्वात् । नापि मानसं, परात्मनः परेण मनसा प्रत्यक्षवारणायात्ममानसं प्रति परात्मन्यावृत्तविजातीयमन:संयोगत्वेन कारणत्वाऽभ्युपगमात् । नाप्यनुमान प्रमाणम्, ईश्वरस्या प्रत्यक्षतया तस्य केनचिल्लिङ्गेन सहचारदर्शनाभावेन व्याप्तिग्रहाभावात् । न वोपमानं मानं, तुत्तुल्यास्या परस्या:भावेन सादृश्यज्ञानाऽसम्भवात्, अन्यथा ईश्वरत्वव्याहतेः । नापि शब्दः प्रमाणं, श्रुतीनामीश्वरोच्चरितत्वेनैव प्रामाण्यस्य बक्तव्यतया तत्रैश्वर एव सन्देहेन श्रुतिप्रामाण्यस्यापि सन्दिग्धत्वादिति भवदीष्टचतुर्विधप्रमाणाऽगोचर ईश्वरे कथं सर्वज्ञत्वाभ्युपगमस्य समीचीनत्वमिति स्याद्वाद्यभिसन्धिः ।
उदयनाचार्यसंदृश्धेश्वरसाधकप्रथमानुमानं प्रतिक्षेप्तमुपक्षिपति . न चेति । कार्य सकर्तृकं कार्यत्वात् घटवदिति गम्यते,
जाप काये
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वचन से महनीय श्रीकलिकालसर्वज्ञ आचार्यश्रीने जिनवचन में अप्रामाण्य की शंका के कलंक के अंश से भी रहितत्व की सूचना देकर जिनेश्वर के प्रति अपनी असाधारण भक्ति का आविर्भाव किया है। जिनक्चन के प्रति अप्रामाण्य के निश्चिय की बात तो दूर हो, लेश शंका भी कुमारपालप्रतिबोधक आचार्यश्री के दिल में नहीं है। यही सर्वोत्कृष्ट भक्ति है। पुरुषविश्वास से वचनविश्रास । यद्यपि कुतीथिको को भी अपने अपने दर्शन के प्रणेता के वचन में अट्ट विश्वास है मगर वह महामोह का महा विलास है, दूसरा कुछ नहीं, क्योंकि वह राग द्वेष-अविद्या आदि दोष की परम्परा से कलंकित एकान्तवादी पुरुष के वचन में, जिस में प्रामाण्य की गन्ध भी नहीं है, प्रामाण्य के स्वीकारात्मक है। भला ! जो स्वयं राग-द्वेष के विषचक्र में फँसा है, उसका वचन प्रामाणिक कैसे हो सकता है ? राग-द्वेष-अज्ञान के अभाव के बिना अविसंबादी वचनस्वरूप कार्य ही असंभवित है । धुणाक्षरन्याय के कुछ अविसंवादी पचन उनके मुँह से कदाचित् नीकल पड़े, वह एक अलग बात है। मगर उनके वचन के ऊपर प्रामाण्यमुद्रा नहीं लगाई जा सकती । क्या नकली घडी भी दिन में दो दफे सबा समय नहीं बताती है ? जिनेश्वर भगवान में तो असत्य वचन का कारण राग-द्वेष आदि ही नहीं है, फिर वे असत्य क्यों बोले ? अत: जिनवचन में अप्रामाण्य नामुमकिन है। चाहे चाँद से आग की वर्षा क्यों न हो, चाहे सूर्य पश्चिम दिशा में उदित क्यों न हो.? मगर तीन काल में जिनवचन में अप्रामाण्यलेश भी असम्भव है।
ॐ ईश्वरतण्डन ॐ ननु वे. इति । जिनेश्वर भगवंत का ही बचन प्रामाणिक है, यह सुन कर नैयायिक आग बबूला होकर बोलता है कि -- 'वेदकर्ता प्रधानपुरुष का ही वचन प्रामाणिक है, क्योंकि वही सर्वज्ञ है । वेदकर्ता शङ्कर भगवान के वेदवचन को ही प्रमाण मानना चाहिए' <- मगर यह कथन अप्रामाणिक है, क्योंकि वेदकर्ता के स्वरूप में आपको अभिमत भवानीपति शंकर में ही कोई प्रमाण नहीं है । शंकर की सत्ता का कोई प्रमाण ही नहीं होने से उसके वचन में प्रामाण्य की घोषणा करना बन्ध्यापुत्र के आभूषण की योषणा के समान है। यहाँ नैयायिक की ओर से इस अनुमान से ईश्वर की सिद्धि की जाय कि -> "कार्य सकर्तृकं कार्यत्वात्, यटक्त् - इस अनुमान से पर्वत आदि कार्य में सकर्तृकत्वरूप साध्य की सिद्धि