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४०५ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * तमस्त्वस्य जातिलसमर्थनम् *
__ 'अभावचाक्षुषमात्रं प्रति आलोकाधिकरणसन्निकर्षस्य हेतुत्वादालोकं विना वीक्ष्यमाणस्य | तमसो नाऽभावत्वमिति वचनीयं तु न वचनीयम्, आलोकसत्वे प्रतियागिसत्वविराधिन्या
आलोकाभावग्राहकानुपलब्धैरवाभावात, आलोकाधिकरणसन्निकर्षस्य प्रत्युत तदाहपरिपन्धित्वात् ।
== ==* गयलता. * = 'संयोगाद्यन्यतमसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक तादृशालीकाभाव एक एव, अन्धकारत्वञ्च भाववृत्तित्वविशिष्टालोकाभावत्वम्, तेन न 'अन्धकारेऽन्धकार' इति प्रयोगापत्तिः, न वा 'अन्धकारे नान्धकार' इतिप्रतीतर्भमत्वम्' इत्यपि प्रत्युक्तम् । न च कदाचिदालोकसंसर्गववृतित्वविशिष्टः स तधेति वक्तव्यम्, यत्र कदाप्यालोकसंयोगो नास्ति तत्रापि घोरनरकादादे तच्छ्रवणात्, अवतमसे यावदालोकाभावविरहाच । किञ्चैतादृशघटकाप्रतिसन्धानेऽपि तमस्त्वप्रतिसन्धानात घटत्वयत् जातिरूपमेवैतद् न्याय्यमिति तात्पर्यम् ।
____ अभावचाक्षुषमात्रं - अभावविषयकचाक्षुषप्रत्यक्षल्यावच्छिन्नं प्रति आलोकाधिकरणसन्निकर्पस्य = आलोकेन सहाभावाधिकरणसंसर्गास्य, हेतुत्वात्, आलोक बिना वीक्ष्यमाणस्य तमसो नाभावत्वमिति । अन्धकारस्यालोकाभावत्वे आलोकसंयोगावच्छेदकावच्छिन्नान्धकाराधिकरणचक्षुःसन्त्रिकर्षमृते तच्चाक्षुषं न स्यात् । न चैवमस्तीति तमसो नालोकाभावात्मकत्वं सम्भवतीति वचनीयं = गर्हणीयं तु न वचनीयं = वक्तव्यम् । अब हेतुमाह - आलोकसत्त्वे = अन्धकारप्रतियोगिसत्त्वे, प्रतियोगिसत्त्वविरोधिन्या = प्रतियोगिनः सत्त्वं विरोधि यस्याः सा तस्याः, कस्याः ? इत्याह - आलोकाभावग्राहकानुपलब्धेः = आलोकाभारस्वरूपाऽन्धकारविषयकग्रहजनिकाया योग्यानुपलब्धः, एव अभावात् = विरहात् । प्रतियोगिसत्त्वप्रसञ्जनप्रसञ्जितप्रतियोगित्वरूपाया योग्यानुपलब्धेः अभावग्राहकत्वात्, प्रतियोगिसत्त्वे तस्या एव विरहान नालोकसत्त्वेऽन्धकारस्याऽऽलोकाभावात्मकस्य चाक्षुषं सम्भवति, विषयस्यापि स्वगोचरचाक्षुषे हेतुत्वात्, सामान्यसामग्रीसमरहिताया एव विशेषसामग्र्याः कार्यजनकत्वनियमात् । यदुक्तं 'अभावचाक्षुषमात्र प्रत्यालोकाधिकरणसन्निकर्षस्य हेतुत्वादिति तत्राह - आलोकाधिकरणसन्निकर्पस्येति । प्रकृते आलोकाभावाधिकरणेन सहालोकसत्रिकर्षस्य, प्रत्युत्त तद्ग्रहपरिपन्थित्वात् = आलोकासे आलोकाभावाभाव आलोकात्मक फलित होता है। अतः 'अन्यकारे नान्धकारः' इस वाक्य से होने वाली प्रतीति का आकार नैयायिक के मतानुसार 'लोकाभाववृत्तिः आलोकः' ऐसा होगा । अभाव में संयोगसम्बन्ध से वस्तुतः द्रव्यमात्र नहीं रहता है । अतः आलोकशून्य आलोकाभाव में आलोक का अवगाहन करने से उक्त प्रतीति भ्रमात्मक हो जायेगी । मगर शिष्ट लोक में तादृश प्रतीति का प्रमात्वेन व्यवहार होता है। अतः नैयायिक के माथे पर उपर्युक्त प्रतीति के प्रमत्व का कलंक | कथमपि दूर नहीं हो सकेगा ।
* आलोकसता आलोकाभावज्ञान की विरोधी है * अभावचा. इति । नैयायिक के खिलाफ कतिपय अन्य विद्वानों का यह पर्युनुयोग है कि - "अभावविषयक सभी चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति आलोक और अभााधिकरण का सन्निकर्ष हेतु है । भूतल में घटाभाव का चाक्षुष प्रत्यक्ष तभी हो सकता है, यदि घटाभावाधिकरणीभूत भूतल के साथ आलोक का सम्बन्ध (संयोग) हो । घने अंधेरे में भूतल में घटाभाव का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है। अतः अन्धकार भी यदि अभायात्मक है, तब तो अन्धकार का चाक्षुष प्रत्यक्ष भी आलोकाभावात्मक अन्धकार के अधिकरणीभूत भूतल के साथ आलोक का संसर्ग नहीं होने पर नहीं हो सकता । बिना कारण के कार्योत्पाद कैसे मुमकिन हो सकता है ? मगर वस्तुस्थिति यह है कि अन्धकार का जब जब चाक्षुप साक्षात्कार होता है, तब तर अन्धकार के अधिकरण में आलोक का सम्बन्ध नहीं होता है। आलोक के बिना ही अन्धकार का चाक्षुष प्रत्यक्ष होने से अन्धकार को अभावात्मक कैसे माना जा सकता है ?" <- मगर यह प्रश्न नामुनासिब है । इसका कारण यह कि अभाव के ज्ञान की जनक योग्यानुपलब्धि है। योग्यानलब्धि का अर्थ यह है कि 'यदि यहाँ प्रतियोगी होता, तो जरूर उपलब्ध = ज्ञात होता' ऐसा आरोप जिस प्रतियोगी में मुमकिन हो । जैसे घटाभावचाक्षुप के प्रति योग्यानुपलब्धि कारण है, क्योंकि भूतलादि में आलोकादि होने पर 'यदि यहाँ घट होता, तो अवश्य उपलब्ध होता' ऐसा आरोप किया जा सकता है । पिशाच आदि अतीन्द्रिय पदार्थ के अभाव का चाक्षुप प्रत्यक्ष नहीं होता है, क्योंकि 'यदि पिशाच यहाँ होता तो जरुर उपलब्ध होता' ऐसा आरोप नामुमकिन है । मगर जब घटादि प्रतियोगि विद्यमान होता है, तब योग्यानुपलब्धि नहीं हो सकती है, क्योंकि तब घटादि का ही चाक्षुप हो जाने से 'यदि यहाँ घटादि होता तो जरूर उपलब्ध होना' ऐसा आरोप नहीं किया जा सकता।