Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 202
________________ ३५९ मध्यमस्याद्रादरहस्ये खण्डः २ . का.५ * तमसः पृथिवीत्वापत्तिनिरास: * : __ इत्थर तमसो भावत्वेऽनुमानमप्याहुः तमो भावरूपं धनतरनिकरलहरीप्रमुखशब्दयंप|| दिश्यमानत्वात् आलोकवदि'त्यादि । ननु तमसो नीलरूपवत्वे पृथिवीत्वमेव स्थानातिरेक इति ? त, रूपपरावृत्ति=-=-=- = - = -* जयलता * स्थिराजजेनेत्यमथोपदिष्टादस्मात् प्रकारात् परपक्षबाधः । __ बादं बभूवैव ततः परेषां कथं कृतार्थः स्वमनोरथः स्यात् ? ||१०|| पेशलपटूपपत्त्या पुण्याय परे पराकृता इत्यम् । अविगानगुणस्मरणैर्यः श्वचारुतरचरणैः ॥१.३|| तार्किकसभासुरेन्द्राः जयन्तु ते विजयदेवमुनिचन्द्राः । बुधऋद्धिविजयगुरव: श्रीतपगणासाधुसुरतरवः ।।१०४|| श्रीमण्डपाचलेऽस्मिन् मुदा जिहांगीरसाहिना दत्तम् । महातपेति विशदं बिभ्राणं बन्धुरं बिरुदम् ।।१५।। नन्दान्तरिक्ष-ऋषि-रात्रिपतिप्रमाणे (१७०५) । वर्षे सितरेभ्यतनयेन नयोदयेन । युक्त्तेः पधः कुमतकूटविनाशकोऽयं यो दर्शितो भवतु ध्रुववत् स्थिरः सः ॥१०६|| इत्यन्धकारभाववादः || प्रत्यक्षेणैव तमसो द्रव्यत्वसिद्धावपि प्रत्यक्षेणाऽऽकलितमप्यर्थमनुमानेन बुभुत्सन्ते तर्करसिका' इतिवचनेन प्रमाणसम्प्ल- | ववादिमनोरञ्जनार्धं प्राचां जैनाचार्याणां श्रीरत्नप्रभसूरिप्रभृतीनामनुमानप्रयोगं प्रकरणकार आदर्शयति - इत्यञ्च तमसो भावत्वेऽनुमानमप्याहरिति । स्पष्टमुस्तानुमानम् । आदिपदेन 'तमो भावरूपं घटाद्यावारकत्वात् काण्डपटवत्, नाभावरूपं तमः प्रागभावाद्यस्वभावत्वात्, व्योमवदिति, भावरूपं तमः उत्पत्तिमत्त्वे सत्यनित्यत्वात् घटवदि' (स्या. रत्ना. ५१८) त्यादिनि स्याद्वादरत्नाकारोक्तानि तत्वार्थावृत्त्याधुक्तानि चानुमानानि ग्राहयाणि । शकते - नन्विति । चेदित्यनेनान्वयः । तमसो नीलरूपरत्त्वे = निरुपाधिकनीलरूपाश्रयत्वे, पृथिवीत्वमेव स्यात्, एवकारफलं कण्ठत आह - नातिरेकः इति । तधाहि न तावन्नीलरूपस्य तमसः तोयादिभावसम्भवः; तोयतेजसो: सितत्वात् पवनादीनावारूपत्वात् । ततश्च पारिशेषन्यायेन तमसः पृथिवीत्वमेव स्यात्, न तु पृथिवीतरद्रव्यत्वमिति शङ्काशयः । ननु नीलरूपवत्त्वेन तमसः पृधिनीत्वे कदाचित् तत्र घटादाविव रूपपरावृत्तिरपि स्यात्, अन्यता सुवर्णस्यापि पीतरूपवत्वेन पृधिवीत्वं प्रसज्येत । न च स्वर्णस्य पृथिवीत्वे गन्धवत्त्वप्रसङ्गो बाधक इति वाच्यम्, तमस्यपि तस्य जागरुकत्वादिति | सुवर्णवत् तमस्यपि रूपपरावृत्तिप्रयोजकस्य पृथिवीत्वस्याऽभाव एवोपगन्तव्य इत्याशयेन प्रकरणकार: तन्निराकरोति - नेति । प्राचीन जैनाचार्य का तमोभावत्वसाधक ॐ इत्थं. इति । रत्नप्रभरि आदि प्राचीन जैनाचार्यों ने अन्धकार में भावत्व की सिद्धि करने के लिए अनुमानप्रयोग भी रत्नाकरायतारिका आदि ग्रन्थों में बताये हैं । वह इस तरह - अन्धकार भावात्मक है, क्योंकि घनतर, निकर, लहर आदि शब्द से वह व्यवहार्य है, जैसे आलोक । आलोक नैयायिकादि मत में भावात्मक ही है तथा जैसे 'यहाँ अत्यन्त आलोक है, यह आलोक का निकर-समूह है, प्रकाश की लहर' इत्यादि व्यवहार होता है, ठीक वैसे ही 'यहाँ अत्यन्त धना अँधेरा है, तगो निकरं, तमो लहरी' इत्यादि व्यवहार भी होता है। अत: आलोक की भाँति अन्धकार भी भावात्मक ही है। समान व्यवहार होने पर भी एक को भावात्मक मानना और दूसरे को अभावात्मक मानना इसमें कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। अत: दानों में भावत्व का अंगीकार करना चाहिए । भावात्व यहाँ द्रव्यत्वरूप में अभीष्ट है । अतः उक्त अनुमान प्रमाण से अन्धकारात्मक पक्ष में द्रव्यत्वस्वरूप साध्य की सिद्धि हो सकती है। ___ अन्धकार पृथ्वी नहीं है ननु तम. इति । यहाँ यह शंका हो सकती है -> "अन्धकार में नील रूप का स्वीकार करने पर अन्धकार पृथ्वीस्वरूप ही होगा, क्योंकि पृथ्वी को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नील रूप नहीं रहता है" <- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि | अन्धकार को पृथ्वी मानने पर पाक से उससें रूप की परावृत्ति होनी चाहिए । मगर अन्धकार के नील रूप की परावृत्ति नहीं होती है। अत: रूपपरावृत्तिप्रयोजक पृथ्वीत्व का तम में स्वीकार नहीं किया जा सकता । यह ठीक उसी तरह उपपन हो सकता है जैसे तैजस चूल्य में पृथ्वीत्व का अभाव । स्फुटिक, मणि आदि द्रव्य के रूप में पाक से भी रूप का परावर्तन

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