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*त्वाचाभावस्य प्रतिबन्धकताविचार घटकत्वेन लाघवाद् द्रव्यान्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रत्येव लौकिकविषयत्वाच्छेमत्वाचाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन प्रतिबन्धकता कल्यते । वायोरस्पार्शनत्वं तु न यौक्तिकमिति न तदवृत्तिस्पर्शस्पार्शनानुपपत्ति: । तथा च प्रसरेणारस्पार्शनत्वान्न तवृतिस्पर्शादिस्पार्शनप्रसङ्ग इति, <--
* ायलता यथा चैतत्तत्त्वं तथा भाक्तिमेवैतदक्तरणिकायामिति न पुनः प्रतन्यते । लाघवादिन्न । द्रव्यान्न्य-द्रव्य भवेनविषयकम्पार्शनकारणताबछेदकप्रत्यासत्ती तयोरप्रयेशप्रयुक्तलाघवादिति । 'तर्हि घटायेंककत्वकसंयांना न पटयाः संयोगस्य द्वित्वादेश्च रमादर्शनं ?' इत्याशङ्कायामाह- द्रव्यान्यसत्त्वाचत्वावच्छिन्नं प्रत्येवेति । एवकारेण व्यासज्यनिगुणत्वाच त्यावच्छिन्न प्रतीत्यस्व व्यवच्छेदः कृतः, एतन्निषेधहेनस्तु प्रकृतमतापायाते विमावितत्वानोन्यते । लौकिकविषयत्वावन्नित्वाचाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन प्रतिबन्धकतति । तथाहि - 'घट स्पृशामी त्यत्र लौकिकविधयतया त्वाचप्रत्यक्षं घट बर्नत, लौकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्त्रप्रतियोगिताकतदभावश्च पटे वर्तते, तत्समरतस्तु घटसंयोगादिः, तस्य विष्ठत्वात । लांकिकविषयतासंसर्ग त्वाचं स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन घटस्पई-कर्मादौ वर्तते । अतः तद्गोचरं स्पार्शनं जायते, तदभावस्तु घटपटसंयोगादौ पटस्पशादी च वर्तते येन तत्स्पार्शनं घटत्वसंयोगद्शायां नोपजायते । अत एव तत्प्रतिबन्धकत्वं कल्पनामहत्येच । 'तहि वायुस्पर्शस्पार्शनं कथं स्यात ? नागोरगरलेन तादालानाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्त्वसम्बन्धेन वायुस्पर्शे वर्तमानत्वादि'त्याशङ्कायामाहुः - बायोरस्पार्शनत्वं = स्पार्शनप्रत्यक्षाविषयत्वं तु न यौक्तिकमिति | 'वायुं स्पृशामी'त्यबाधितानुभवबलाद् वातस्य लौकिकविषयत्वावच्छिन्नत्वाचाश्रयत्वसिद्धया वायस्पर्शे तादात्वाचाभावस्य स्वाश्रयसमवेतत्वसंसर्गेणाऽवर्तमानत्वात न तदतिस्पर्शस्पार्शनानुपपत्तिः = वायुसमवेतस्पर्शस्पार्शनानुपपत्तिः । दर्शितप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावफलमुपदर्शयन्ति - तथा चेति । विषयतासम्बन्धाच्छिन्न-द्रव्यान्यसत्त्वाचत्वाच्छिन्न प्रतिबध्यतानिरूपितस्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धावच्छिन्न-लौकिकविषयत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वाचाभावनिष्ठप्रतिबन्धकताऽभ्युपगमप्रकारेण च । त्रसरेणोः अस्पार्शनत्वात् = त्वगिन्द्रियजन्यप्रत्यक्षाविषयत्वात्, न तवृत्तिस्पर्शादिस्पार्शनप्रसङ्गः त्रसरेणुसमवेतस्पर्श-संयोगादिस्पार्शनापत्तिः, कार्याधिकरणत्वेनाऽभिमते त्रसरेणुस्पर्शे प्रतिबन्धकस्य सत्त्वात्, प्रतिबन्धकाभावस्याऽपि कारणत्वेनाऽऽपादकविरहात्रैव तदापादयितुमर्हत्तीति नोद्भूतनीलरूपस्योद्भूतस्पर्शव्याप्यत्व अभिचारः । अत एब 'नीलं तम' इति प्रतीते; भ्रमत्वं तमस उद्भूतनीलरू वच्चे चोद्भूतस्पा भावस्य बाधकत्वं व्यवतिष्ठते । ततश्च तमसो न दव्यत्वसिद्भिः कल्पकोटिभिरपि स्वात्मलाभक्षमेति फक्किकार्थः ।
सत् पदार्थ के स्पार्शन साक्षात्कार के प्रति लौकिकविषयतावच्छिवप्रतियोगिताकस्पार्शनप्रत्यक्षाभाव स्वाश्रयममरेतत्वसम्बन्ध से प्रतिवन्यक है । आशय यह है कि द्रव्य से भिन्न गुण, क्रिया आदि का स्पार्शन प्रत्यक्ष करना हो तर उस गुण, क्रियादि के आश्रय का स्पार्शन प्रत्यक्ष होना आवश्यक है । यदि गुणादि के आश्रय का स्पार्शन प्रत्यक्ष न हो, तो गुणादि का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि आश्रपत्रिपयकस्पार्शनाऽभाव उसमें आश्रित (रहनेवाले) स्पर्शादि गुणादि के स्पार्शन में प्रतिबन्धक है। प्रतिवध्य और प्रतिबन्धक समानाधिकरण यानी एकाधिकरण में रहने वाले हो तभी उन दोनों के बीच प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमात्र हो सकता है। क्या चन्द्रकान्त मणि जलद में होने पर अन्यत्र अग्नि से दाह नहीं होता है ? यहाँ प्रतिबध्य है द्रव्यभिन्नमविषयक घटपटसंयोगविषयक स्पार्शन प्रत्यक्ष, जो कि विषयतासम्बन्ध (कार्यताअवच्छेदक सम्बन्ध) से द्रव्येतर सत् घटपटसंयोगादि में रहता है । अतः प्रतिबन्धकीभूत लोकिकविषयतासम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक स्पार्शनप्रत्यक्षाभाव भी यहाँ रहना चाहिए । वह तब हो सकता है यदि स्वाथयसमवेतवसम्बन्ध को प्रतिबन्धकताअचच्छेदक माना जाय, क्योंकि स्व = स्पार्शनाभाव, उसका स्वरूपसम्बन्ध से आश्रय है पटद्रव्य, (क्योंकि घट-पटसंयुक्त होने की दशा में घट के साथ त्वगिन्द्रियसंयोग होने पर एट द्रव्य का ही स्पार्शन होता है, न कि पट द्रव्य का) और उस पट द्रव्य में समवेत पटस्पर्श, घटपटसंयोग आदि गुण वगैरह । अतः घटपटसंयोग स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से लौकिकस्पार्शनाभाव (= प्रतिबंधक) का आश्रय एवं विषयतासम्बन्ध से द्रव्यान्यसद्गोचरस्पार्शन के अधिकरणविधया अभिमत होने से केवल घट के साथ त्वगिन्द्रिय का संयोग होने की दशा में घटपटसंयोग आदि व्यासज्यवृत्ति गुण का स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा; क्योंकि प्रनिबन्धकाभाव भी कारण है, जो यहाँ अविद्यमान है। इस प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव को मान्य करने पर कारणतावच्छेदक सम्बन्ध में प्रकृष्ट महत्व और उतस्पर्श का प्रवेश अनावश्यक होने से लाघव भी है।
वायार, इति । मगर यहाँ यह हाड़ा हो कि --> "लौकिक स्पार्शनाभाव को स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से द्रन्येतर-सदविपयक सार्शन का प्रतिवन्धक मानने पर वायुगतस्पर्श का स्पार्शन प्रत्यक्ष कैसे हो सकेगा ? क्योंकि वायु का स्पार्शन प्रत्यक्ष न होने