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३५७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.५ * अअनादेः चाक्षुषसहकारित्वविचारः * | विना कथं तदानीं तेषां तच्चाक्षुषमिति वाच्यम्, आलोकस्येवाऽसनादेरपि चाक्षुषजनने चक्षुषः । पृथक्सहकारित्वात् ।। अअनादिसंस्कृतवक्षुष एवाऽऽलोकाऽजन्यचाचणे हेतुत्वात् अजनादेर्हेतुतावच्छेदकत्व
-=-=---* गयला = नेनाऽन्वयः । आलोकं बिना कथं तदानीं = बहलतमतम: काले, तेषां = अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां, तच्चाक्षुपं - घटादिचाक्षुषं ? द्रव्यचाक्षुषं प्रत्यालोकसंयोगस्य हेतृत्वान्न तदा घटादिचाक्षुपं नेषां भवितुमर्हनीति शङ्काशयः । तदपाकरणे परे हेतुमुद्योतयन्ति - आलोकस्येवेति । अञ्जनादेरपि चाक्षुषजनने चक्षुषः पृथक्सहकारित्वादिति । यथाऽलोककालीनचाक्षुषं प्रति आलोकस्य तत्सहकारिकारणत्वं तथा अनादिकालीनचाक्षुपं प्रति अञ्जनादे; तत्सहकारिकारणत्वम् । अत एवाड| अनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां बहलतम तमसि घटादिचाक्षुषोदयेऽपि न न्यतिरेकव्यभिचार :; आलोकस्या अनादिकालीनचाक्षुषं प्रत्यहेतुत्वादिति तौतातिककदेशीयाभिप्रायः ।
अत्रैव केषाञ्चिन्मतमपहस्तयितुमुपदर्शयन्ति - अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुप एवेति । एवकारेण चाक्षुषे अनादेः चक्षुःसहकारिकारणत्वव्यवच्छेदः कृतः । आलोकाऽजन्यचाक्षुषे हेतुत्वादिति । आलोकाऽकालीनचाक्षुषोदये कारणत्वादिति । अञ्जनादेः हेतुतावच्छेदकत्वमेवेति । चक्षुषोऽञ्जनादेश्च पृथक् चाक्षुषकारणत्वमिति नाऽङ्गीक्रियते किन्तु अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषः एच चाक्षुषकारणत्वं, अञ्जनादिकं तु कारणतावच्छेदककोटी प्रविष्टमिति घटं प्रति दण्डत्वादेरिय तस्या न्यधासिद्धत्वमिति बहलतमे | नमसि अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तस्करादीनां बटादिवाक्षुषोदये पि न कश्चिदोषः, तस्यालोकाः जन्यत्वेन व्यतिरेकव्यभिचारनिरासादिति भावः । 'केचिदिति । आहुरिति गम्यते ।
एवं समवायसम्बन्ध से अन्धकारत्व जाति को कारण माना जाय तब अंजनादि से संस्कृत नेत्र वाले चीर आदि मनुष्य को रात में घटादि का तामस इन्द्रिय से साक्षात्कार कैसे हो सकेगा ? क्योंकि विपयता सम्बन्ध से कार्याधिकरणविधया अभिमत घटादि में न तो तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार रहता है और न तो समवाय सम्बन्ध से अन्धकारत्व जाति रहती है। अन्धकार से घटादि अभिन्न नहीं है किन्तु भिन है- यह तो सर्वजनविदित है । वस्तुस्थिति तो यह है कि अंजनादिसंस्कृत चक्षु वाले चौर आदि मनुष्य को अन्धकार में भी घटादि का साक्षात्कार होता है । कारण के बिना ही इस तरह कार्योत्पत्ति होने से व्यतिरेक व्यभिचार दुर्निवार होगा" <
* आंजनादिसंस्कार से सात में घटादि का शुष ही होता है - पूर्वपक्ष गारी *
अञ्जना. इति । तो यह ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि अन्धकार में अंजनादिसंस्कारयुक्त चक्षु से चौर || आदि को घटादि का चाक्षुप साक्षात्कार ही होता है, न कि तामसीय साक्षात्कार । यदि तब तामसेन्द्रियसभिकर्पजन्य साक्षात्कार
का स्वीकार किया जाय तो व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश होता । मगर अन्धकार में अंजनादि के सहयोग से चौर आदि । को घटादि का चाक्षुप ही होता है। इस तरह कारण के विरह में तामसीय साक्षात्कार की उत्पत्ति अमान्य होने से व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है। अनः विषयतासम्बन्ध से नरतामसेन्द्रियजन्य साक्षात्कार के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से अन्धकार एवं समवाय सम्बन्ध से अन्धकारत्व को कारण मानने में कोई दोष नहीं है । यहाँ यह शंका हो कि → “अँधेरी रात
र आदि को घटादि का चाक्षुप प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? क्योंकि चाक्षप प्रत्यक्ष के प्रति आलोक चक्षु का सहकारी कारण है । अतः उसके विरह में चाक्षुपात्मक कार्य की उत्पनि नहीं हो सकती" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे आलोक चाक्षुषप्रत्यक्षोदय के लिए चक्षु का सहकारी कारण है वैसे अंजनादि भी स्वतंत्र सहकारी कारण है। मतलब यह है आलोककालीन चाक्षुष के प्रति आलोक एवं अंजनकालीन चाक्षुप के प्रति अंजन चक्षु का सहकारी कारण है। इसलिए अंजनादि के सहकार से चौर आदि को अंजनादिकालीन घटादिवानुष गाढ अन्धकार में होने पर व्यतिरेक व्यभिचार का अवकाश नहीं है।
अंजनादि में चाक्षुषकाःणतावर कदम ipl निराकरण ____ अंज. इति । अमुक विद्वान मनीपियों का यह कथन है कि -> "अंजनादि चाक्षुप के स्वतंत्र सहकारी कारण नहीं i| है, किन्तु कारणतावच्छेदक है । वह इस तरह . 'आलोकाऽकालीन यानी आलोकाऽजन्य चाक्षुष के प्रति अंजनादिसंस्कृत