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* तमसोऽभावत्वाऽसम्भवाऽऽविष्करणम् * इत्थच 'तमचलती'त्यादिप्रत्यक्षमपि निराबाधम् । न च स्वाभाविकगतेरन्यगत्यनुविधानानुपपत्ति: परागप्रभायामेवाश्रयचलनानुविधानदर्शनात् । पद्मरागचलनं विनाऽपि कुड्यावरणविगमादिनापि तत्प्रभाचलनमुपलब्धमिति चेत् १ ताह, स्थिरेऽपि स्तम्भादौ प्राक् पश्चादीपसम्बन्धादिना तमश्चलनोपलम्भः किं काकेन भक्षित: ? तमस: प्रागभावत्वे उत्पत्ति
==* जयलता * = | इदमेव फलभुखगौरवस्या दुष्टत्वे बीजम्, अन्यथा लाघवस्यैव सर्वत्राऽदरे शून्यवादप्रवेशापातादिति बहुशः पूर्वमुक्तम् ।
. लमोद्रकला साप, परमणि प्रकरणबार उपदर्शयति - इत्थक्षेति । तमसो द्रव्यत्वेन चेति । 'तमचलती'त्यादिप्रत्यक्षमपि निराराधम्, आदिशब्देन 'नीलं तमः' 'घटसंयुक्तं तम' इत्यादिप्रत्यक्षग्रहणम् । अपिशब्देन तमस्त्वजातिसाधकानुमानादिसमुच्चयः कृतः ।
ननु तमसो द्रव्यत्वे तस्य स्वाभाविकी गतिः स्यात, घटादिगतिवत् । न चैवमस्तेि, पटादिगत्यनुसारित्वात् तमोगतेः । यथा नौयानारूढपुरुषोपलब्धवृक्षादिगतिः औपाधिकी नौयानगता वृक्षादावारोप्यते तथा पटादिगतगतिः तमस्यारोप्यते न तु | || वस्तुगत्या सा तमोगता, स्वाभाविकगतेः परद्रव्यगत्यनुकरणाऽदर्शनात् । ततः 'तमश्चलती त्यादि प्रत्यक्षं न तमसो द्रव्यत्वसाधकमित्याशङ्का निराकरोति - न चेति । तन्निरासे हेतुमाह - पद्मरागप्रभायामेवेति । एवकारोऽयोगव्यवच्छेदे आश्रयचलनानुविधानदर्शनात = स्वाश्रयपद्मरागगत्यनकरणोपलब्धेः । पद्मरागप्रभाया रूपादिमत्त्वेन परैः द्रव्यत्वमेवाऽङगीक्रियते । दृश्यते च तद्गते: स्वाश्रयगत्यनुकारित्वम् । तद्वदेव तमसो नीलरूपादिमत्त्वेन द्रव्यत्वेऽपि स्वाश्रयपटादिगत्यनुसारिगतिमत्त्वमपि सम्भवत्येव । एतेन 'तमश्चलती' त्यादिप्रत्यक्षं भ्रमः परगत्यनुविहितगतिविषयकत्वात् नौयानगतपुरुषीयवृक्षचलनप्रतीतिवदिति प्रत्युक्तम, 'प्रभा चलती' त्यादिप्रतीतरपि भ्रमत्वापत्तः ।
परः शकते - पद्मरागचलनं बिनाऽपि कुड्यावरणविगमादिनाऽपि तत्रभाचलनं = पद्मरागप्रभाचलनं, उपलब्ध = प्रतीतम् । स्वाश्रयगतिमृतेऽपि पदारागप्रभागतिदर्शनात तत्प्रभाया द्रव्यत्वं युक्तम् । न चैवं तमसि सम्भवतीति न तस्य द्रव्यत्वमिति शङ्काशयः । अत्र प्रतिबन्द्या प्रकरणकार उत्तरयति - तहीति । अन्धकाराश्रये स्थिरेऽपि स्तम्भादी प्राक्पथादीपसम्बन्धादिना तमश्चलनोपलम्भ इति । प्रभावत तमसोऽपि स्वाश्रयचलनमृते चलनोपलम्भान्न द्रव्यत्वबाध इति भावः ।
किञ्च महदद्भूतानमिभूतरूपवदालोकप्रतियोगिकस्य प्रागभावस्य तमस्त्वं यद्त प्रध्वंसाभावस्याऽत्यन्ताभावस्याऽन्योन्या
ही 'अन्धकार चलता है' इत्यादि प्रतीति की उपपत्ति हो सकती है। अभाव में चलन क्रिया कैसे हो सकती है ? यहाँ यह शङ्का नहीं करना चाहिए कि → “अन्धकार की गति स्वाभाविक नहीं है, किन्तु औपाधिक है। घटादि द्रव्य को चलाने पर ही अन्धकार में गति का भान होने से वह गति स्वाभाविक नहीं है। अन्यगत गति का भान अन्धकार में । होने से अन्धकार में द्रव्यत्व नहीं माना जा सकता" - यह इसलिए अयुक्त है कि पद्मराग मणि की प्रभा में, जो नैयायिकादि को भी द्रव्यरूप से मान्य है, भी अन्य गत गति का अनुविधान प्रसिद्ध है । पमराग मणि को गतिमान करने पर उसकी प्रभा में गति प्रतीत होती है। स्वाश्रय की गति का अनुकरण प्रभाद्रव्य करता है, फिर भी वह द्रव्यात्मक ही है । ठीक इसी तरह अन्धकार भी स्वाश्रय की गति का अनुकरण करने पर भी द्रव्यात्मक सिद्ध हो सकता है । यहाँ यह कहना कि
-> 'अन्धकार की गति एवं पद्मरागप्रभा की गति में रहुत फर्क है। पद्मरागमणिप्रभा के आश्रय पराग मणि को चलित किये बिना भिति आदि के दूर होने से भी प्रभाद्रव्य में गति की उपलब्धि = प्रतीति होती है। मतलब की आश्रय में गति न होने पर भी प्रभा में गति क्रिया उपलब्ध होने से प्रभा को द्रव्य मानने में कोई दोष नहीं है। मगर अन्धकार की बात ऐसी नहीं है । अन्धकार के आश्रय में गति होने पर ही अन्धकार में गति क्रिया उपलब्ध होती है । घटादि द्रन्य को चलाने पर ही 'अन्धकारः चलनि' ऐसी प्रतीनि होती है। अतः अन्धकार को द्रव्य नहीं माना जा सकता" - भी ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धकार के आश्रय स्तम्भादि स्थिर होने पर भी दीपक को आगे-पीछे करने पर अन्धकार में गति का भान होता है । आश्रय की गति के बिना भी प्रभा की भाँति अन्धकार में गति का भान समान होने से प्रभा की भाँति अन्धकार को द्रव्यात्मक मानने में कोई दोष नहीं है ।
| अन्धकार को अभावाम मानने में दोष न तमसः प्रा. इति । दूसरी बात यह है कि अन्धकार को अभावस्वरूप मानने वाले अन्धकार को किस अभावस्वरूप