Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 191
________________ ३64 - - - * विश्वनाथ-महादेव-नृसिंहप्रभृतिमतप्रकाशनम् * __आकाशे वेदादिप्रयुक्तभूतपदस्य मुख्यत्वाय बहिरिन्द्रयग्राह्यविशेषगुणजातीयगुणवत्वस्य गुरोरपि भूतपदशक्यतावच्छेदकत्वात्, अन्यथा पशुपदादेरपि गोत्वादिविशिष्ट एव शक्त्यापतेः। =* जयलवा यत्तूक्तम् - 'आकाशे भूतत्वव्यवहारस्तु भाक्त एवेति तत्राऽऽह - आकाशे इति । सप्तम्यर्थो विषयत्वम् । वेदादि भूतपदस्येति । वेदादो प्रयुक्तस्य आकाशविषयकस्य भूतपदस्येति भावः । मुख्यत्वाय = प्रधानत्वोपपत्तिकृते, बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणजातीयगुणवत्त्वस्य = मनोभिन्नेन्द्रियेण ग्राह्यो यो विशेषगुण: तत्सजातीयगुणवत्त्वस्य, गुरोः अपि भूतपदशक्यतावच्छेदकत्वात् = भूतपदनिरूपितशक्तिविषयताया अबच्छेदकत्वात् । अयमत्राभिसन्धिः भूतत्वं जानि: न सम्भवति मूर्तत्वेन समं साकर्यात्, भूतत्वं विहाय मनसि वर्तमानस्य मूर्तत्वस्य मूर्नत्वं विहाय गगने वर्तमानस्य भूतत्वस्य च पृथिव्यादिषु सत्त्वेन परस्परत्यधिकरणायोरेकत्र समावेशात् । किन्तु बहिरिन्द्रयग्राह्यविशेषगुणसजातीयगुणवत्त्वमेव भूतत्वम्, आत्मन्यतिव्याप्तिवारणाय 'बहिरिन्द्रये'ति । बहिरिन्द्रियग्राह्यस्य संयोगादिगुणस्य मनआदावपि सत्त्वात् 'विशेष'त्युक्तम् । 'बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वे'त्युक्तावननुगमदोषः इति 'जातीयगुणे' त्युपादानम् । साजात्यञ्च तादृशविशेषगुणत्वेन बोध्यम् । तेन नात्मादावतिव्याप्तिः । यद्यप्युत्पत्तिणावच्छेदेन घटादी सृष्टिप्राककालावच्छेदेन गगने च तादृशगुणवत्त्वं नास्ति तथापि समवायेन तादृशगुणसम्बन्धित्वमित्यत्र तात्पन्नाव्याप्तिः । न च समवायेन स्पर्शसम्बन्धित्वमेव भूतत्वमस्तु, लाययात्, गगने तूपचारेणैव भूतपदप्रयोगादिति वाच्यम्, वेदादावपि गगनविषयकभूतपदोपलम्भात्, वेदादी लक्षणाया अनङ्गीकारात्तन्मुख्यत्वोपपत्तये तत्राऽपि भूतत्वस्यावश्यकत्वात्, गौरतस्य फलाभिसरणलेगा दोषात् । ____ मुक्तावलीकारस्तु -> "पृधिव्यप्तेजोवावाकाशानां भूतत्वम् । तच्च बहिरिन्द्रियग्राह्यविशेषगुणवत्त्वम् । अत्र ग्राहात्वं लौकिकप्रत्यक्षस्वरूपयोग्यत्वं बोध्यम् । तेन 'ज्ञातो घट' इति प्रत्यक्ष ज्ञानस्याऽप्युपनीतभानविषयत्वात्तद्वति आत्मनि नातिव्याप्तिः । न वा प्रत्यक्षाविषयरूपादिमति परमावादावव्याप्तिः, तस्यापि स्वरूपयोग्यत्वात्, महत्त्वलक्षणकारणान्तरा सन्निधानाच न प्रत्यक्षत्वम् । अथवा आत्मावृत्तिविशेषगुणवत्वं तत्त्वम्' <- (मुक्ता. पृ. २४१, का, २६) इत्याह । अत्र कल्पान्तर प्रदर्शनप्रयोजनं तु -> 'चक्षरिन्द्रियादिगतरूपादिविदोपगणानामनद्भुतत्वेन बहिरिन्द्रिग्रहागायोग्यचक्षुरादायव्यासेाधवाच' -(मु. दिन. पृ. २४१) इति महादेवः प्राह । नृसिंहशास्त्री तु -> 'समवायेन शब्दस्पर्शान्यतरसम्बन्धित्वं समवायघटितसामानाधिकरण्यसम्बन्धेन शब्दस्पर्शान्यतर. धेत्वं, एतदन्यतरत्वं पृथिव्यादिगगनान्तान्यतमत्वरूपं वा भूतत्वं' - (मुक्ता.प्र. पु. १०८) इत्याचष्टे । ननु दर्शितभूतत्वस्य गुरुत्वान्न भूतपदाक्यातावच्छेदकत्वं सम्भवतीत्याशङ्कायामाह - अन्यथेति । गुरोः शक्यतानबच्छेदकत्वे, पशुपदादेरपि गोत्वादिविशिष्ट एव शस्त्यापत्तेः = शक्तताप्रसङ्गात् । एवकारेण 'लोमवल्लागूलबति' इत्यस्य व्यवच्छेदः कृतः । अथं भावः पशुत्वं न जाति: उच्चे: श्रवत्वादिना साकर्यात् किन्तु लोमवल्लाङ्गलबत्त्वलक्षण: सखण्डोपा एक ही बनेगा। जिन पदों का प्रवृत्तिनिमित्त एक ही होता है, वे पद पर्यायवाचक कहलाते हैं। इसलिए अभिन्न पदप्रतिनिमित्त राले भूतपद और मूर्तपद में पर्यायत्व की आपत्ति आयेगी । गुरुधा भी शक्यतावच्छेतक हो सकता है - स्यातापी आकाशे. इति । पृथ्वी आदि चार में भूतत्व जाति मानने वाले विद्वानों ने जो कहा था कि --> 'आकाश में भूतत्त्व जाति नहीं रहती है। इसलिए आकाश में होने वाला भूतपद का प्रयोग गौण है" - वह भी युक्त नहीं है। इसका कारण यह है कि वे विद्वान् वेदादि को प्रमाण मानते हैं। तथा वेदादि में तो अनेक बाद आकाशात्मक अभिधेय में भूतपद का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । वेदादि में आकाश में जो भूत पद का प्रयोग किया गया है, उसे गीण तो नहीं माना जा सकता । अतः उसके मुख्यत्व की उपपत्ति के लिए आकाश में भी भूतत्व का अङ्गीकार करना उचित है । भूतपद के शक्यतावच्छेदकस्वरूप भूतत्व को जातिस्वरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि तब मूर्तत्व जाति के साथ सांकर्य प्रसक्त है। किन्तु भूतत्व अखण्ड उपाधिस्वरूप है जिसका बहिरिन्द्रियग्राह्य विशेषगुण के सजातीय गुणिकचरूप निर्वचन हो सकता है । पृथ्वी आदि में बहिरिन्द्रिय प्राण आदि से ग्राह्य गन्धादि विशेषगुण के सजातीय विशेष गुण गन्धादि रहने से उनमें त्वस्वरूप भूतत्व रहता है। यहाँ भूतत्व का जो निर्वचन किया गया है, वह अन्धकार में भी अबाधित है, क्योंकि उसमें नील रूप आदि विशेपगुण रहते हैं, जो बहिरिन्द्रियग्राह्य विशेषगुण नील रूपादि के सजातीय है। अतः भूतत्व को

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