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३५१ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः १ - का.५ *जन्यैकत्वत्वस्वरूपविचार:* या 'जन्यैकत्वत्वं तादृशजातिव्याप्यं भिन्नमेवाऽभ्युपेयते । न च तादृशजातेरेव
* जयलवा. .. ...... कादिगतैकत्वे तु सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टकत्वत्वं द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वविदोषश्च स्त इति साङ्कर्यम् । यद्यपि सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टेकत्वत्वस्य जातिलं न सम्भवति, विशिष्टस्य जातित्वाऽयोगात् तथापि जन्यैकत्वसङ्ख्या - मात्रबृत्तिजातरित्येवं विवक्षायां दोषाभावात् । यतोऽत्र साङ्कयम्, अत , त्याचयविसमवेतैकत्वव्यावृत्तैकत्वत्वविशेषस्या:नन्त्यावयव्यकत्वसमवेतस्य द्रव्यारम्भकत्वापच्छेकत्वकल्पनं नाहति । तरपान्त्यावविगत कल्यवृत्तित्वे तु दर्शितानन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभानगौरवमनिवार्यमवेति ज्याघ्रतटीन्यायावात इति स्वतन्त्रमतप्रतिक्षेपिनामपरेषामभिप्रायः ।
यदि विति । अस्य चान्ग्रे 'इति विभाव्यत' इत्यनेनान्वयः । जन्यैकत्वत्वं = जन्यैकत्वसङ्ग्यामात्रवृनि बैजात्यं, तादृशजातिव्याप्यं = द्रव्यारम्भकतावच्छेदकैकत्वत्तविशेषल्याप्यं, भिन्नं = अन्त्यावयविगतकत्वनिष्ठकत्वत्वातिरिक्तं, एवं अभ्युपेयते स्वतन्त्रैरिति शेषः । एवञ्च न साड़कर्यावकाशः । तथाहि घटादिगत्तैकत्वे द्रव्यारम्भकतावच्छेदकीभूतैकत्वत्वविशेषस्या:
। जन्यकत्वत्वविशेषस्यापि तवा भाव:, व्यापकाभावस्य थाप्याभावसाधकत्वात् । यच्चैकत्वत्वं घटादिगते कले वर्तत तन्नानन्त्यावयविगतकत्ये द्रव्यारम्भकतावच्छेदककत्वत्समवायिनि वर्तते किन्तु तदतिरिक्तैकत्वत्वं द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदकैकत्वत्वविशेषज्याप्यमेव वर्तत इति न परस्परन्यधिकरणयोरेकत्र समावेशलक्षणस्य सकरस्याबकाशः । ततश्चान्त्याध्ययविगतैकत्वाऽवृत्येकत्वत्वव्यापकोऽन्त्यावरविसमवेतकत्वाऽसमवेत एकत्यसमवेतो जातिविशेष एकल्यत्व विशेषलक्षण: स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेन द्रव्यसमवायिकारणतावछंदक इत्यभ्युपगमे दोपलेशाऽवकाशो नास्तीति स्वतन्त्राणामभिप्रायः ।
___ ननु जन्यैकत्वत्वजात्या सह द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजाते: साङ्कर्यनिरासकृते भवद्भि जन्यैकल्यत्यजाते: नानात्वमुषकलायकत्वनिष्ठद्रन्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषव्याप्यत्वं तत्रागीकृतम् । परं नाध्यमेव पन्धा विद्यते साकर्या पाकरणकृते; एकत्वनिष्ठदव्याराम्भकतावच्छेदकजातेनानात्वमभ्युपगम्य तत्र जन्यैकत्वत्वजातिव्याप्यत्वकल्पनाया अपि साकर्यनिराकरणप्रवणत्वादित्याशङ्कापराकरणायोपक्रमनो - न चेति । विनिगमकाभात्र इत्यनेनाऽस्याउन्धयः । तादृशजातेरेव नानात्वेनेति । एकत्व
है, मगर व्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्यविशेष जाति रहती है, क्योंकि परमाणु द्वथणुकद्रव्य का आरम्भक होता है । इस तरह परस्परल्यधिकरण ऐसी जन्यैकत्वत्वजाति एवं द्रघ्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेप कपालादिगत एकत्वसंख्या में रहती हैं। अत: परस्परब्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश होने से जन्यैकत्वजाति के साथ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष का सांकर्य प्रसक्त होता है । इसलिए अन्त्यावयविगत एकत्वसंख्या में असमवेत ऐसी द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष का स्वीकार नहीं किया जा सकता । अतएव उससे घटित कार्यकारणभाव भी, जो स्वतन्त्र विद्वानों की ओर से बताया गया है, मान्य नहीं किया जा सकता' । यह अपर विद्वानों का स्वतन्त्र मनीपियों के प्रति आक्षेप है ।
*स्वतन्त्रमत का परिकार पदि, इति । उपर्युक्त सांकर्य दोप का निराकरण करने के लिए स्वतन्त्र मनीषियों की ओर से परिप्कार किया जा सकता है कि --> 'द्रव्यारम्भकत्वावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष की व्याप्य जन्यैकत्लत्वजाति की, जो अन्त्यवयविगत एकत्वसंख्या में विद्यमान जातिविशेप से भिन ही है, कल्पना करने से सांकर्य दोष का अवकाश नहीं है । आशय यह है कि घटादि में रहने वाली एकत्वसंख्या में समवेत जन्यैकत्वत्वजाति कपालादिगत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है, किन्तु उससे मित्र एकत्वत्वजातिविशेष कपालादिगत एकत्व में रहती है, जो कि द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वनिष्ठ जातिविशेष की व्याप्य है। घटादिगत एकल में द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेप नहीं होने से उसकी व्याप्य कपालादिगतेकत्वसमवेत एकत्वत्वविशेप जाति का न होना सिद्ध होता है, क्योंकि व्यापक का अभाव ब्याप्याभाव का व्याप्य होता है। इस तरह कपालगतैकत्व में समवेत एकत्वत्वजातिविशेष घटादिगत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है और घटादिसमवेत एकत्वसंख्या में समवेत जन्यकत्वन्च जाति कपालादिगत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है। अतः परस्परब्यधिकरण धर्म का एक धर्मी में समावेश ही असिद्ध होने से जन्यैकत्वत्वजाति के साथ व्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेप के सांकर्य दोष का उद्भावन करना नामुनासिब है । अतः एकत्वनिष्ठ जातिविशेष को स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में कोई दोप नहीं है।
द्रत्यारम्भकतावच्छेदक एरपत्यविशेष को अनेक माजजे में गौरत.* न च ता, इनि । यहाँ यह शंका हो सकती है → 'जन्यैकत्वत्व जाति के साथ एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक ||