Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 195
________________ *साइयविचारः * नानात्वेन तद्व्याप्यत्वे विनिगमकाभाव:, यत: तज्जातेर्नानात्वे व्यभिचारभिया तदवच्छिन्नजन्यतावच्छेदिकाऽपि नाना जाति: कलया । * जयलता निष्ठाया द्रव्यारम्भकत्वावच्छेदकजातेरंबाऽनेकविधत्वाङ्गीकारसम्भवेनेति । एवकारेण जन्यैकत्वत्वजातेर्नानात्वकल्पनाव्यवच्छेदः कृतः । तद्व्याप्यत्वे = जन्यैकत्वमात्रवृत्तिजातिव्याप्यत्वाऽभ्युपगमे विनिगमकाभावः = विनिगमनाविरह इति । तद्युक्तत्वदर्शनार्थं विनिगमकमावेदयन्ति स्वतन्त्राः यत इति । तज्जाते: एकत्वनिष्ठद्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातेः नानात्वे अनेकविधत्वकल्पने, व्यभिचारभिया व्यतिरेकव्यभिचारभयेन तदवच्छिन्नजन्यतावच्छेदिका = द्रव्यारम्भतावच्छेदकजातिविशेषावच्छिन्ननिष्ठकारणतानिरूपिताया कार्यताया अवच्छेदिका अपि नाना जातिः कल्प्येति । अयमाशय: द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातेर्नानात्वोपगमे एकैकस्य द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वे व्यतिरेकव्यभिचारात् तत्कूटस्य चैकत्राऽवर्तमानतया कारणतावच्छेदकत्वासम्भवात्तृणारणिमणिन्याययेन नाना कार्यतावच्छेदकजातिः कल्पनीया । तथाहि नित्यैकत्वद्वृत्तिजात्यवच्छिन्ननिरूपितकार्यताया अवच्छेदिका यशुकत्वजातिः, अनित्यैकत्वनिष्ठजात्यवच्छिन्ननिष्ठकारणतानिरूपितकार्यताया अवच्छेदकं त्र्यणुकत्वादिघटत्वपटत्वादिपर्यन्तजात्यन्यतमत्वं त्र्यणुकाद्यन्त्यावयविपर्यन्तवृत्तिवैजात्यं वा । एतेन द्वयागुकस्याऽनित्यैकत्ववृत्तिजात्यवच्छिन्नमृते व्यणुकादेर्नित्यैकत्वनिष्ठजात्यवच्छिन्नं विनोत्पत्तेर्व्यतिरेकव्यभिचारो द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातेर्नानात्वकल्पने दुवरि इति प्रत्युक्तम्, नानाकार्यकारणभावाभ्युपगमात् । = ३५२ = न चैकत्वनिष्ठनानाकारणतावच्छेदकजात्यवच्छिन्ननिरूपितकार्यतावच्छेदकनानाजातिकल्पतेऽपि निस्तारः, जलत्वादिना कार्यतावच्छेदकजातिसाङ्गकर्यस्य दुर्वारत्वात् । तथाहि पार्थिवद्वयणुके नित्यैकत्वगतजात्यवच्छिन्ननिरूपितकार्यतावच्छेदिका द्रयणकत्वजातिरस्ति परं जलत्वं नास्ति, जलीयत्र्यणुके जलत्वमस्ति परं तादृशद्व्यणुकत्वं नास्ति । जलीययणुके च जलत्वं तादृशइयकत्वञ्च स्त इति परस्परव्यधिकरणयोरेकत्र समावेशात्साङ्कर्यम् । तदपाकरणाय नित्यैकत्ववृत्तिजात्यवच्छिन्नकार्यताजाति के सांकर्य का निवारण करने के लिए जन्येकत्वत्व जाति को अनेकविध मान कर जन्येकत्वत्वजातिविशेष को द्रव्यारम्भकताबच्छेदक जाति का व्याप्य माना गया था, ठीक वैसे ही सांकर्य निवारणार्थ जन्यैकत्वत्वजाति के स्थान में एकत्वनिष्ठ द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति को ही अनेकविध मान कर द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष को ही जन्येकत्वस्वजाति का व्याप्य माना जा सकता है। इसमें कोई बाध नहीं है। ऐसा मानने पर भी सांकर्य का निराकरण हो सकता है। दिखेये, परमाणुगत एकत्वसंख्या में रहने वाली द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति द्व्यणुकादि अनन्त्य अवयवी में समवेत एकत्वसंख्या में नहीं रहती है और जो द्रव्यारम्भतावच्छेदक जातिविशेष द्व्यणुकादिगत एकत्व संख्या में समवेत है वह अणुगत एकत्वसंख्या में अवर्तमान है । दोनों अलग अलग हैं । अतः घटादिगत एकत्व संख्या में समवेत जन्येकत्वत्व जाति के व्यधिकरण परमाणुगत एकत्व में समवेत इन्यारम्भकतावच्छेदक जाति का ह्रयणुकादिगत एकत्वसंख्यास्वरूप एक धर्मी में समवेत द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति का द्व्यणुकादिगत एकत्वसंख्यास्वरूप एक धर्मी में समावेश की सम्भावना नहीं है। अतः उपर्युक्त सांकर्य के निवारणार्थ जन्येकत्वत्वय को अनेकविध मान कर जन्यैकत्वत्वजातिविशेष को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वनिष्ठ जाति का व्याप्य माना जाय या द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वनिष्ठ जाति का व्याप्य माना जाय ? दो पक्ष में से एक भी पक्ष में साधक या बाधक युक्ति न होने से दोनों का स्वीकार करना होगा या एक का भी स्वीकार नहीं हो सकता । इसलिए स्वतन्त्रमतपरिष्कार नामुनासिव हे" < यतः इति । मगर यह कथन भी असंगत है। इसका कारण यह है नित्य एकत्व में रहनेवाली एवं अनन्त्य अवयविगत अनित्य एकत्व में रहनेवाली दो द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष का स्वीकार करने पर व्यभिचार का प्रसंग होगा । द्व्यगुण की उत्पत्ति अनित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन के बिना ही होती है, क्योंकि परमाणु गतएकत्व में अनित्यैकत्ववृत्ति तादृश जातिविशेष नहीं है । एवं त्र्यणुकादि घटादिपर्यन्त द्रव्य की उत्पत्ति नित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन्न के बिना ही होती है, क्योंकि द्व्यणुकादि कपालपर्यन्त में रहने वाली एकत्वसंख्या में नित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष का अभाव होता है । अतः कारणतावच्छेदकावच्छित्र के बिना ही द्व्यणुक, त्र्यणुक आदि की उत्पत्ति होने से व्यतिरेक व्यभिचार दोप होगा । इसका निवारण करने के लिए दोनों द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्ववृत्ति जातिविशेष से अवच्छिन्न कारण द्रव्य का जन्यतावच्छेदक जाति अलग अलग माननी होगी । वह इस तरह, नित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष से अवच्छिन्न (विशिष्ट) का कार्यतावच्छेदक द्व्यणुकत्व है और अनित्यैकत्ववृत्ति द्रव्यारम्भकता

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