Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 198
________________ .--.. . ३५. "यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का.. * निभान्यं पदनिचार:* न तदनुरोधेन द्रव्यनिष्ठजातिविशेषकल्पनसिति विभाव्यम् । -* जयलIld ... ... ........ - अस्तु इति हेतोः न तदनुरोधेन = अन्त्यावयविसमवेतगुणाद्यनुरोधेन, द्रव्यनिष्ठजातिविशेषकल्पनं = द्रव्यनिष्टतया वैजात्यकल्पनम् । जन्यद्रव्यत्वावच्छिन्नस्य ससमवायिकारणकत्वनियमाऽभ्युपगमेन घटादिगतगुणाद्यनुरोधेन घटादिवृत्तिवेजात्यं न तत्समबायिकारणतारच्छेदकतया कल्पनीयम् । एतेन बटादिगुणाधन्यथानुपपत्त्या घटादेः समवायिकारणत्यसम्पादनाय अन्त्यावयविगतकत्वे एकत्वत्व विशेषजाति: कल्पनीया । तथा च जन्यद्रव्यं प्रति तत्तदन्त्यावयवित्वेनाऽनन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमावकल्पनागौरवम् । घटादी वा वजात्यकल्पनेऽधिकजातिकल्पनागौरवम् । तदकल्पने न जन्यभावत्वावच्छिन्नस्य ससमवाधिकारणकत्वनियमभङ्ग इति कल्पनाशस्त्रत्रयी त्र्यम्बकनेत्रत्रितयीव बीकत इत्यपि पराकृतम्, तत्र जन्यद्रव्यत्वविरहेण ससमवायिकारणकत्वाइवश्यम्भावाभावात् । यद्वा तत्र = जन्यभावमात्रे, द्रव्यत्वेनैव तधात्वं = समवायिकारणत्वमित्यर्थः । जन्यद्रव्यमात्रवृनिवजात्यावच्छिन्नं प्रति स्वसमवाविसमवायेन एकत्वत्वविदोषेणाऽन्त्यावयव्येकत्वासमवेतेन समचाविकारणता, जन्यसन्मात्रवृत्तिबैजा त्यावच्छिन्नं प्रति द्रव्यत्वेन समवायिकारणतेत्यगीकारोऽस्तु । एतेन अन्त्यावयविनिगुणादेराकस्मिकत्वप्रसङ्गोऽपि प्रत्युक्तः, अन्त्याययविनि जन्यभावसमवायिकारणतावच्छेदकी भूतद्रव्यत्वस्य सत्त्वादिति न तदनुरोधेन = अन्त्यावयविगुणाद्यन्यथानुपपत्त्या, द्रव्यनिष्ठजातिविशेषकल्पनमित्येवं व्याख्यान्तरं द्रष्टव्यम् । इत्थश्च तमोऽवयवेषु यदेकत्वं वर्तते तत्र द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषस्य वर्तमानत्वेन न तमो न्योत्पादानवकाश इति स्वतन्त्रमतानुसारेणापि तमसो द्रन्यत्वं निराबाधमिति प्रकरणकाराशयः । वस्तुनस्तु अन्त्यावयञ्येकत्वासगवेतस्यैकत्यसमवेतस्य जातिविशेषस्य स्वाश्रयसमवायेन द्रव्यारम्भकतावच्छेदकत्वं च युक्तम्, गगनादरपि द्रव्यारम्भकत्वप्रसङ्गात्, गगनसमवेतैकत्वे द्रव्यारम्भकतावच्छेदकजातिविशेषस्य समवेतत्वात् । न च तस्य विभुद्रन्यकन्या समवेतत्वाइन्युसनमान दोष वाच्यम्, तथापि भनसो द्रव्यारम्भकल्यप्रसङ्गात् । न च निरवयवद्रव्यैकल्वे तस्या नभ्युपगमात्र दोष इति वक्तव्यम्, 'पार्थिवादिपरमाणूनां द्रव्यारनारम्भकत्वासङ्गात् । एतेनानन्त्यावयबिगतकत्वमात्रबृत्तित्वमपि तस्य प्रत्युक्तम् । न च मनोऽन्यनिरचयबद्रव्यान्त्यावयविगतकत्वा समवेतत्वे सत्येकत्वसमवेता यो जातिविशेष: तस्यैव द्रव्यारम्भकतावदकत्वमिति वक्तव्यम, तथापि जन्यगणादिकं प्रति जन्मभावं प्रति वा पृथकारणकलपनाया आवश्यकत्वेन नानाकार्यकारणभावगौरवस्याऽव्याहतत्यात्, तादृशजातिविशेषकल्पनं पुनरधिकर्मवेत्यादिसूचनार्धं 'विभाज्यमि'त्युक्तमिति तु ध्येयम् । साम्प्रतमुयोगित्वात श्रीनयोदयविजयविरचितः अन्धकारभाववादः प्रददर्यंत । तथाहि - निपम का भंग ही एकत्यत्यजातिविशेष को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में बाधक है तथापि नादृश नियम में कोई प्रमाण न होने से वह नियम ही हमें अमान्य है। इसलिए उक्त नियम का भंग अंत्यावयविगत एकत्व में अवृति एकत्वत्वविशेष को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में बाधक नहीं हो सकता । यदि उक्त नियम को मान्य करना हो तो भी जन्यभावमात्र के स्थान में जन्यद्रव्यमात्र को ही ससमवायिकारणक मानना चाहिए । मतलब कि 'जो जो जन्य द्रव्य है, यह वह समवाधिकारणयुक्त ही होता है' इत्याकारक नियम को प्रसिद्ध-प्रामाणिक मानना चाहिए । घटादि में रहने वाले जन्य गुण क्रिया तो द्रव्य से भिन्न है । अतः उसे समवायिकारणसहित मानने की कोई आवश्यकता भी नहीं रहती है और उक्त नियम के भंग का भी कोई प्रसंग नहीं है । अथवा जन्यभावमात्र के प्रति द्रव्यत्वरूप से समवायिकारणता का स्वीकार करने पर भी घटादि में उत्पन्न होने वाले गुणादि की उत्पत्ति का निर्वाह हो सकता है, क्योंकि घटादि में द्रव्यत्व रहता ही है । जन्यभावमात्र के प्रति द्रव्यत्वरूप से समवायिकारणता का स्वीकार करने का दूसरा लाभ यह है कि अन्त्य अवयवी द्रव्य में गुण, क्रिया की कारणतावच्छेदक जातिचिशेप की कल्पना भी अनावश्यक रहती है। घटादि में उत्पन्न होने वाले गुण, क्रिया के प्रति द्रव्यगन जाति की तत्कारणतावडेदकविधया कल्पना का गौरव भी स्वतन्त्र मत में अप्रसक्त है। इसलिए एकत्वसमवेत जातिविशेष को ही द्रव्यारम्भकतावदक मानना युक्त है, न कि द्रव्यसमवेत जातिविशेष को । ऐसा स्वतन्त्रमतानुसार विचार करने पर अन्धकार द्रव्य की उत्पत्ति का निर्वाह हो सकता है, क्योंकि अन्धकार के अवयव में स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से एवं तादृशावयवसंयोग में स्वाश्रयसामानाधिकरण्यसम्बन्ध से न्यारम्भकतावदक एकन्यत्त्वजातिविशेष विद्यमान है। अतः स्वतन्त्रमतानुसार अन्धकार | को द्रन्य माना जा सकता है ऐसा विभावन - विमर्श करना चाहिए । निष्कर्ष - अन्धकार च्यात्मक है ।

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