Book Title: Syadvadarahasya Part 2
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 193
________________ - - * स्वतन्त्रमतनिराकरणम् * न तत्तदन्त्यावयवित्वेनाऽनन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावकल्पनागौरवमित्याहुः । तर, ताहशजातेर्जन्यैकत्वत्वेन समं साकर्यादित्यपरे । = * गयलता* = एतेन घटादेव्यारम्भकत्वप्रसङ्गः प्रत्युक्तः, समवायिकारणतावच्छेदकतावच्छेदकसंसर्गेण समन्नायिकारणतावच्छेदकाभावक्तो द्रव्यारम्भाऽयोगात् । एकत्वत्वविशेषस्याऽन्त्यावयव्येकत्वसमबेतत्वोपगमे तु घटादीनामनारम्भकत्वरक्षणाय तत्तदन्त्यावयवित्वेन द्रव्यप्रतिबन्धकत्वकल्पनावश्यकत्वेनाऽनन्तप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावग्रसङ्गात् । एतादृशगौरवस्य पूर्वमेवोपस्थितत्वेन न तत्र जातिविशेष: कलप्यते इति न गौरवमित्याशयमाविष्कुर्वन्ति - इति = उक्तहेतोः, न तत्तदन्त्यावयवित्वेन अनन्तप्रतिवध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनागौरवमिति । घटे समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्म्येन घटस्य प्रतिबन्धकत्वं, पटे समवायेन द्रव्यं प्रति तादात्मयेन पटस्य प्रतिबन्धकत्वमित्याद्यनन्तप्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभावकल्पनागौरव घटादिसमवेतैकल्ये एकत्वत्वविशेषस्या नभ्युपगमेनैव परिहतम् । न चान्त्यावयविसमवेतम्यगावृत्तिरेकचनविदों को मिला ? इति वाच्यम्, धर्मिग्राहकप्रमाणादेव तल्लाभात्, ‘समवायसम्बन्धावच्छिन्नद्रश्यनिष्ठकार्यतानिरूपिता तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नानन्त्यावयविवृत्तिकारणता किश्चिद्भर्मावच्छिन्ना कारणतात्वात्' 'इत्यनुमानेनैवाऽन्त्यावयविममवेतैकत्वासमवेतस्यैव तस्य सिद्धेरिति तेषामाशयः । अपरे स्वतन्त्रमतभागकुर्वन्ति - तन्नेति । 'अपरे' इत्यनेनाऽस्पाइन्वयः । तादृशजातेः = अनन्त्यावयविमानसमवेतैकत्यसंख्यासमवेतकत्वत्वविशेषरूपाया स्वाश्रयसमवायसम्बन्धेन द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदिकाया जातेः, जन्यैकत्वत्वेन = जन्यैकत्वसङ्ख्यासमवेतैकत्वत्वसामान्येन, समं साङ्कर्यादिति । तथाहि घटादी जन्येऽन्त्यावयविनि या एकत्वसङ्ख्या साऽपि जन्येति तत्र सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टैकत्वत्वजातिर्वर्त्तते परं द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वविशेषो नास्ति, स्वतन्त्रैः तादृशजातेरन्त्यावयव्येकत्वन्यात्तत्वाऽभ्युपगमात् । परमाणोव्यारम्भकत्वेन तद्गतैकत्वसङ्ख्यायां द्रव्यारम्भकतावच्छेदक: एकत्वत्वविशेषोऽस्ति परं जन्यकत्वत्वजाति स्ति; परमाणोरिव तद्गतैकत्वस्यापि नित्यत्वेन सामानाधिकरण्येन जन्यत्वविशिष्टेकत्वत्वाऽयोगात् । द्वयणुघट आदि में रहने से घटादि में भी कपालादि की भाँति समवाय सम्बन्ध से द्रव्य उत्पन होगा' <- तो यह असंगत है, क्योंकि द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष अनन्त्य अवयवी में रहनेवाली एकत्व संख्या में ही रहती है, न कि अन्य अवयवी में रहनेवाली एकत्व संख्या में । घटपत एकत्वसंख्या में तादृश जातिविशेष समवायसम्बन्ध से नहीं होने से वह स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से घटादि अन्त्य अवयवी में भी नहीं रह सकती । अतः घटादि में समवायसम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति होने का अवकाश नहीं है। अंत्य अवयवी में रहनेवाली एकत्व संख्या में द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जाति समवाय सम्बन्ध से नहीं रहती है . यह मानना उचित भी है, क्योंकि ऐसा न मानने पर तत् तत् अन्त्य अवयवी को समवायसम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति का प्रतिवन्धक मानना होगा । तत् तत् अन्य अनंत अवयवित्व को प्रतिबन्धकतावच्छेदक मानने पर अनन्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना करनी होगी, जिसमें अत्यंत गौरव है। इसकी अपेक्षा अन्त्य अवयवी में विद्यमान एकत्व संख्या में इन्यारम्भकतावच्छेदक जातिविझेप को न मानना ही उचित है, क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त अनन्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना अनावश्यक बन जाती है। स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से द्रव्यारम्भकतावच्छेदक जातिविशेष का अन्त्य अवयवी में अभाव होने से ही अन्त्य अवयवी में समवायसम्बन्ध से द्रव्यान्तर की उत्पत्ति का अवकाश नहीं है। समवायिकारणतावच्छेदक धर्म से शून्य में समवेत कार्य की उत्पत्ति का अवकाश नहीं है । समवेत ऐसे कार्य की उत्पनि समवायिकारणतावच्छेदक धर्म से शून्य में नहीं होती है । अतः अन्न्याक्यविगत एकत्व में अवृत्ति (=व्यावृत्त व्यतिरिक्त) और अनन्त्यावयविगत एकत्व में समवेत जातिविशेष || को ही स्वाश्रयसमवायसम्बन्ध से द्रव्यसमवायिकारणतावच्छेदक मानना मुनासिब है। स्वतन्त्रमत में सांकर्य दोष - अपर विदान तन्नः इति । उपर्युक्त स्वतन्त्रमत के खिलाफ. अन्य नैयायिक मनीपियों का यह कथन है कि -> 'अन्यत्यावपवियत एकत्व संख्या से व्यावृत्त और अनन्त्यावयविगत एकत्वसंख्या में समवेत जातिविशेष (=एकत्वत्वविशेष) को द्रव्यारम्भकतावच्छेदक मानने में सांकर्य दोष उपस्थित होने से उक्त कार्य-कारणभाव को मान्य नहीं किया जा सकता । वह सांकर्य जन्य एकत्वत्वजाति के साथ इस तरह प्रसक्त होता है। जन्यकत्वत्वजातिपद का अर्थ है केवल जन्य एकत्वसंख्या में रहने वाली एकत्वत्वजातिविशेष। घटगत जन्य एकत्वसंख्या में जन्यैकत्वत्वजाति है, मगर द्रव्यारम्भकतावच्छेदक एकत्वत्वजातिविशेष नहीं है, क्योंकि घट द्रव्यानारम्भक होने से तद्गत एकत्वसंख्या में द्रव्यारम्भकतावन्तछेदकीभूत जातिविशेष का अंगीकार स्वतन्त्रमतानुसार नहीं किया गया है, यह | अभी ही उपर्युक्त कथन से स्पष्ट किया गया है। परमाणुगत एकत्वसंख्या नित्य होने से उसमें जन्यैकत्वत्वजाति नहीं रहती

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