________________
३७७ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्डः २ - का. ५ * नमसो द्रव्यत्वे बाधकनिराकरणम् *
अथ यदा यत्र प्रागुक्तयावत्तेन: संसर्गाभावो निरवच्छिन्नस्तदा तत्रान्धतमसं यदा तु यत्राऽयं सावच्छिन्नः तदा तत्राऽवतमसमिति चेत् ? न घटादेरिवान्धतमसावतमसयोरवच्छेदकाबुधरामेणैव प्रतीतेरिति दिक् ।
एटोल तमसो द्रव्यत्वे ऽनन्तसंयोगादिकल्पनमपि पराकृतम्, तस्य फलमुखत्वात् ।
परः शङ्कते अथेति । यदा = यत्कालावच्छेदेन यत्र = देशे, प्रागुक्तयावत्तेजः संसर्गाभावः महदुद्भूतानभिभूतरूपवद्यावत्तेजः संसर्गाभावः, निरवच्छिन्नः विवच्छिधिकाधिक ताक्षः, तदा = तत्कालावच्छेदेन तत्र = तदेशे अन्धतमसं विद्यते प्रतीयते व्यवह्नियते च । यदा यत्कालावच्छेदेन, तुर्विशेषणे यत्र देशे अयं यावन्महदुद्भूता| नभिभूतरूपवदालोकसंसर्गाभावः सावच्छिन्नः = सावच्छिन्नदेशिकाधिकरणताक:, तदा = तत्कालावच्छेदेन तत्र देशे, अवतमसं विद्यते प्रतीयते व्यवह्नियते च । समनियतत्वेन लाघवादन्धतमसं निरवच्छिन्नतादृशा भावात्मकमवतमसञ्च सावच्छिन्नतादृशा भावस्वरूपमिति न तयोः द्रव्यत्वकल्पना युक्तिमतीत्यथाशयः ।
:
=
क
प्रकरणकृत्तमपाकरोति नेति । घटादेरिव अन्धतमसावतमसयोः अवच्छेदकानुपरागेणैव प्रतीतेरिति । कपिसंयोगाभावस्य वृक्षादौ सावच्छिन्नत्यं हृदादी च निरवच्छिन्नत्वं यथा प्रतीयेते तथा यदि तमस क्वचिन्निरवच्छिन्नत्वं क्वचिच्च सावच्छिन्नत्वं प्रतीयेत तर्हि निरवच्छिन्नतादृशाभावस्याऽन्धतमसत्वं सावच्छिन्नरस्य च तस्यावतमसत्वं वक्तुं सम्भवेत् । न चैत्रमस्ति । घटादेखि निरवच्छिन्नतत्प्रतीतेः । अन्धकाराभावपक्षस्याऽचटमानत्वात्तमसो द्रव्यत्वमेव युक्तमित्याशयः ।
एतेनेति । तमसो द्रव्यत्वस्य प्रमाणसिद्धत्वेनेति । अस्य पराकृतमित्यनेनान्वयः । अनन्तसंयोगादिकल्पनमपीति गगनादिपरमाण्वाद्यनन्तद्रव्य प्रतियोगिकानन्तसंयोग-विभागकत्वपरिमाणादिकल्पनाप्रयुक्तगौरवमपीत्यर्थः । अपिशब्देन तत्कारणादिकल्पनागौरवंः समुच्चितम् । तस्य = तादृशगौरवस्य फलमुखत्वादिति । प्रमाणेन तमसो द्रव्यत्वसिद्ध्यनन्तरमुपस्थितत्वात् । प्रमाणप्रवृत्तिपूर्वं तस्यानुपस्थितत्वेनाऽदोषत्वम्, प्रमाणप्रवृत्त्यनन्तरं सतोऽपि तस्य प्रमाणाऽपेक्षया दुर्बलत्वान्न प्रमाणविघटकत्वम् ।
स्याद्धादी
अन्यतमयादि की निवच्छिन्न ही प्रतीति अथ यदा इति । नैयायिकादि की ओर से यह कहा जाय कि "जिस काल और जिस देश में प्रकृष्ट यावत् आलोक का अभाव निरवच्छिन होता है, उस काल में और उस देश में अन्धतमस होता है । जब विवक्षित देश के अमुक भाग में आलोक रहता है, तब तादृश अभाव निरवनि नहीं होता है । अतः तब उस देश में अन्यतमस का व्यवहार या प्रतीति नहीं हो सकती । जब निरवच्छिन्न उक्त अभाव होता है, तभी उस देश में गाढ अन्धकार की प्रतीति एवं प्रयोग हो सकते हैं। जिस काल और देश में प्रकृष्ट यावदालोक का अभाव सावच्छिन्न होता है, वही उस काल और देश में अवतमस होता है । देश के अमुक भाग में कतिपय आलोक होने पर प्रकृष्ट आलोक का अभाव वहाँ सावच्छिन्न होने से तब उस देश में अवतमस की यानी मन्द अन्धकार की प्रतीति एवं व्यवहार हो सकते हैं । अतः अन्धसत्व और अवतमसत्व को जातिविशेषात्मक एवं उसके आश्रय को द्रव्यात्मक नहीं मानना चाहिए" - तो यह कथन भी असंगत है, क्योंकि जैसे घटादि पदार्थ की प्रतीति निरबच्छिन्न होती है, ठीक वैसे ही अन्धकारमात्र की प्रतीति निवच्छिन्न ही होती है । यदि कपिसंयोगादि की भाँति अन्धकार की सावच्छिन्न प्रतीति कभी भी होती, तब तो सावच्छिन्न- निरवच्छिन ऐसा भेद करना संगत होता मगर अन्धकार की सर्वदा निरवच्छिन्न ही प्रतीति होने से अन्धतमस को तादृश निस्वच्छिन अभाव मानना एवं अतमस को सावच्छिन्न तादृशाभावस्वरूप मानना असंगत है। अतः अन्धकार को द्रव्यस्वरूप मानना ही युक्तिसंगत भी है ।
* अन्धकार में द्रव्यत्वबाधक का निराकरण *
एतेन तम इति । अन्धकार को अभावस्वरूप मानने वाले विद्वान का यह आक्षेप है कि "अभाव को द्रव्यात्मक मानने पर उसमें अनन्त द्रव्य ( आत्मादि) के संयोग की कल्पना का गौरव होगा" मगर यह कथन अयुक्त है, क्योंकि यह गौरव फलमुख होने से दोषरूप नहीं है । फलमुख गौरव का मतलब यह है कि कार्य कारणभाव, पदार्थ आदि की प्रमाण से सिद्धि होने के बाद उपस्थित होने वाला गीरव । प्रमाण, तर्क आदि के सहकार से वस्तुस्थिति का निर्णय होने के बाद उपस्थित गौरव प्रमाण का विरोध नहीं कर सकता । अतः वह दोपात्मक नहीं है । अन्धकार को द्रव्य मानने से